कार्तिक में आठ घरों में विवाह है। शायद यही सोचकर वह विवाह गीत गाती है। विदाई का गीत इसलिए कि उसकी पड़ोसिन की बेटी "शिलो" भी इसी कार्तिक में विदाई होकर
हवाईजहाज
आश्विन का महिना शुरू हुआ है। सर्दी अगले माह से हीं दस्तक देगी। घर-घर में शरद के लिए साल-स्वेटर की व्यवस्था की जा रही है। चंद्रज्योती देवी ने स्वेटर बुनना शुरू कर दिया है। अतः अब हर घर की औरतें भी स्वेटर बुनना शुरू कर देंगी। चंद्रज्योती देवी गाँव की महिलाओं की मुखिया है। वह गाँव-भर में कलावती मानी जाती है। उसकी ख्याति बाकी औरतों से इतनी अधिक है कि गाँव के वरिष्ठ और सम्मानित पुरुष भी उसकी प्रशंसा करते हैं ।गृहस्थी से सेवा निवृति की चाह रखने वाली औरतें उसके जैसी बहु की कामना करती हैं। उसका अनुसरण उसकी बेटी भी कर रही है। उसकी माँ स्वेटर बुनना जानती है और उसे स्कार्फ बुनना आ गया है। उसकी माँ कन्टों से बुनती है और वह समान अकार-प्रकार की दो पतली लकड़ियों से बुनती है। उसकी माँ दो-तिहाई हिस्सा बुन चुकी है। मुन्नी को बस "छानना" शेष है और उसका स्कार्फ तैयार हो जाएगा। इस बात पर वह इतरा रही है। वह अपनी माँ के समीप बैठ कर बुन रही है ताकि उसकी माँ की नज़र उसकी स्कार्फ पर पड़ जाए और वह खुब तारीफें बटोर सके। लेकिन मुनिया अब तक माँ के ध्यान को आकर्षित करने में सफल नहीं हुई है। चंद्रज्योती एक कंटे में धागों को उलझा कर ऊपर लाती है तो दूसरे को सुलझाती है। इसी उलझ-सुलझ में उलझ कर भी वह इतनी सुलझी हुई है की वह स्वेटर भी बुनती है और गीत भी गाती है। एकाग्रता इतनी है कि न तो स्वेटर की एक लाइन गड़बड़ होती है और ना ही गीत की, एकदम सटीक गाती है -
"गाई रे भइंसिया काहे ना हरनी त~ हामारा के हारी गईनी हो....
गाई रे भइंसिया, घर के लछिमी त~ तुहुँ बेटी पराया रहलु हो..."
इस बरस गाँव में अनेक विवाह की तिथियाँ पड़ी हैं। इसी कार्तिक में आठ घरों में विवाह है। शायद यही सोचकर वह विवाह गीत गाती है। विदाई का गीत इसलिए कि उसकी पड़ोसिन की बेटी "शिलो" भी इसी कार्तिक में विदाई होकर चली जाएगी। उसकी अभी उम्र ही क्या है, मुनिया से दो-तीन साल हीं तो बड़ी होगी। बेचारी माँ-बाप पर बोझ बन गई है। वह इन्ही ख्यालों के धागों से बुने गीत में खोयी रहती है कि तभी बाहर बहुत शोर होता है। वह मुनिया को बोलती है - "जा, देख कर आ तो क्या हुआ है?" वह चौखट तक जाती है और वह भी चौखट पर खड़े-खड़े और बच्चों की तरह आसमान की ओर देखते हुए हवाईजहाज - हवाईजहाज चिल्लाने लगती है। हालांकि सभी लोग कहते हैं कि "चंजोतिया" बहुत गंभीर औरत है लेकिन वह भी स्वेटर बुनना छोड़,चौखट पर जा कर झांक आती है। हवाईजहाज के ओझल होने के बाद दोनो माँ-बेटी आकर अपनी अपनी जगह बैठ जाती हैं। चंद्रज्योती को हवाईजहाज से अचानक याद आता है कि आज से बारह तेरह बरस पहले उसका भी ब्याह कार्तिक की कड़कती सर्दी में हीं हुआ था। उस बरस खूब ठंडी पड़ी थी। यह सोचकर वह, वही गीत फिर से गाने लगी, लेकिन इस बार गीत और भी करुण स्वर में था। मुनिया चुकी अपने स्कार्फ के इतिश्री में व्यस्थ थी इसलिए उसे आभास न हुआ। स्वेटर बुनते-बुनते चंद्रज्योती सोचती है कि इसी तरह वह भी रिश्ते- नातों के धागों में उलझ कर सुलझेगी और स्वयं को इन्ही रिश्ते- नातों पर समर्पित कर देह छोड़ देगी।
वह 19वीं सदी में ही जन्मी है लेकिन वह 19वीं सदी के सबसे बड़े चमत्कार "हवाईजहाज" पर बिना चढ़े हीं मर जाएगी। सिर्फ वह हीं क्यों इस धरती पर न जाने कितने लोग ऐसे हीं मर जाते हैं, "हवाईजहाज" पर बिना चढ़े l जैसे की उसके माँ बाप , उन दोनों ने भी तो इस नए जमाने के चमत्कार को अपने रहते देखा था लेकिन उस पर चढ़ने की चाह किए बिना चले गए। उन्हें कैसे बताती चंद्रज्योती कि वह उनसे अलग थी, वह तो चाह रखती थी। वह सोचती थी कि पढ़-लिखकर हवाईजहाज उड़ायेगी और अपने घर-परिवार,सगे-संबंधियों सबको हवाईजहाज में बिठाएगी। चंद्रज्योती को आज भी यकीन है कि अगर उसके माँ-बाप उसे पढाए होते तो आज वह जरूर हवाईजहाज चालक होती और हवाईयात्रा कर चुकी होती। उसके माँ बाप को किस चीज की कमी थी? दहेज में एक साईकिल, एक चैन , एक रेडियो और एक जोड़ी बैल दिया गया था। उस वक्त सिर्फ चंद्रज्योती के घर ही साईकिल थी। मायके में तो वह जमींदार साहब की पोतियों के साथ रहती थी। वे भी आज मेम साहिब बन गई होंगी। अगर वह पढ़ी होती तो वह भी आज मेम साहिब की तरह रहती। पढाई में कमजोर नहीं थी वह। प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक "चंजोतिया- चंजोतिया" किए रहते थे। उसे तो टांसलेसन भी बनाने आता था।
जमींदार साहब की पोतियों के बाद इसी का नाम आता था। प्रार्थना कराने भी यही जाती थी, पहाड़ा पढ़ाने भी यही जाती थी। सारे शिक्षक भी उसे बहुत मानते थे। उसके मास्टर जी को तब पुरा भरोसा था कि चंजोतिया जरूर "पाइलट" बनेगी। उनको तब थोड़े ही पता था कि "चंजोतिया" सोरे बरिस में हीं ब्याह दी जाएगी। चंद्रज्योती अतीत की इन्ही गलियों में भ्रमण कर रही थी कि उसका भ्रमण रूक गया। गाने के बीच में रुकावट डालने के कारण वह मुनिया पर खीझती है तभी मुनिया उसे अपना बुना हुआ स्कार्फ दिखाकर शांत कर देती है। चंद्रज्योती वह स्कार्फ मुनिया के हाथ से लेकर एक परखने वाले की तरह उस स्कार्फ को दोनों हाथ में लेकर देखती है। फिर मुख पर गर्व की मुस्कान लिए कहती है- "दाहिने कान पर छोटा होगा लेकिन तुने तो ठीक हीं बुन लिया रे मुनिया।" यह कह वह, स्कार्फ उसके गले में बांधकर देखने लगती है। मुनिया मन हीं मन फुले न समाती है, उसे अपनी माँ से तारीफें मिल रही हैं। वह उस स्कार्फ को पहनकर गाँव भर में दिखाने चली जाती है और गाँव की छोटी बच्चियों की कामों में उलझी माताओं से स्कार्फ बुनने की जिम्मेदारी लेकर लौटती है।
- अनुराधा राय
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