विदेश जाकर नौकरी या व्यवसाय करने वाले भारतीयों में बहुत-से ऐसे होते हैं जो वहाँ रम जाते हैं और बस जाते हैं। बरस के बरस बीत जाते हैं और वे भारत में रहन
ढलती साँझ का सूरज
मधु कांकरिया के उपन्यास ‘ढलती साँझ का सूरज’ की मृदुला गर्ग (उपन्यास का फ्लैप), रविभूषण (जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ, 10 जून, 2022), रोहिणी अग्रवाल (मधु कांकरिया की फेसबुक वाल, 15 जून, 2022), डॉ0 श्रद्धांजलि सिंह (वागर्थ, अगस्त, 2022) आदि के द्वारा की गई अतिशय प्रशंसा ने पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगा दी। पुस्तक पढ़ी पर पढ़ने के बाद यही लगा - वह बात नहीं!
विदेश जाकर नौकरी या व्यवसाय करने वाले भारतीयों में बहुत-से ऐसे होते हैं जो वहाँ रम जाते हैं और बस जाते हैं। बरस के बरस बीत जाते हैं और वे भारत में रहने वाले माता-पिता से मिलने नहीं आते। ऐसे लोगों के मन में माता-पिता के प्रति प्रेम का स्रोत निरन्तर छीजता जाता है या पूरी तरह से सूख जाता है या फिर उनके प्रति उपेक्षाभाव रखने के अपने कारण होते हैं।
स्विट्जरलैंड में बस गए उपन्यास के नायक अविनाश का विवाह वहीं की युवती नैंसी से होता है। दोनों की एक पुत्री स्नेहा है। बीस साल बीत जाते हैं परन्तु अविनाश मुम्बई में रहने वाली अपनी अम्मा से मिलने नहीं आता यद्यपि उनके साथ लैंडलाइन फोन से संपर्क बना रहता है। वह अम्मा को इतना अधिक चाहता है कि सपने में पुत्री स्नेहा का नहीं, वरन् अम्मा का चेहरा याद आता है (पृ0 29)। इतने स्नेह के बावजूद वह लगभग नौ घण्टे फ्लाइट की दूरी पर स्थित अम्मा से बीस साल तक मिलने नहीं आता। यह तर्कसंगत नहीं लगता। यह भी विचारणीय है कि जब कोई बीस साल बाद अपने घर लौटता है, तो अपने आगमन की सूचना ज़रूर देता है जिससे आगमन के समय परिवार के लोग उपलब्ध रहें, परन्तु अविनाश ऐसा नहीं करता। आख़िर क्यों? लैन्डलाइन फोन नहीं मिल रहा था तो किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से सूचना पहुँचायी जा सकती थी।
अम्मा मोबाइल फोन के लिए मना कर देती हैं, इसलिए अविनाश का सम्पर्क लैंडलाइन फोन से ही हो पाता है। परन्तु मातृस्नेही पुत्र का कर्तव्य बनता था कि वह मोबाइल फोन भेज देता जिससे घर के बाहर होने पर भी वृद्ध अम्मा से सम्पर्क बना रहता। मोबाइल युग में जहाँ हर-हर मोबाइल, घर-घर मोबाइल हो, वहाँ कथानक में मोबाइल अप्रयोग को खड़ा करना अविश्वसनीय लगता है। घटनाक्रम को आगे बढ़ाने के लिए लेखिका को कोई अन्य तरीक़ा तलाशना चाहिए था। अम्मा के लिए मोबाइल फोन ख़रीदा भी तब जब वह बीस साल बाद भारत आया - मोबाइल लाते-लाते बहुत देर कर दी!
कामथड़ी गाँव में मामा ने अविनाश को बताया कि उसकी अम्मा कन्याकुमारी की वी0वी0 रामकृष्ण शास्त्री की धर्मशाला में मिलेंगी। वह कन्याकुमारी जाने का निश्चय करता है। अगर मामा उसे शास्त्री जी का फोन नम्बर नहीं दे सके थे, तो उसे जाने से पहले इन्टरनेट से नम्बर तलाशकर अम्मा के बारे में पता लगा लेना चाहिए था कि वह कन्याकुमारी पहुँचीं या नहीं। मोबाइल युग में फोन का अप्रयोग व्यावहारिक और तर्कपूर्ण नहीं लगता।
लेखिका ने उपन्यास के प्रारम्भ में अपने ‘प्रस्थान बिन्दु’ में लिखा है कि 1997 से अब तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके थे लेकिन अभी तक मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह कोई मुद्दा नहीं था। ग़रीबी और किसानों की आत्महत्या पर लिखने के लिए एक भी फुल टाइम संवाददाता नहीं है। (पृ0 9)। खेती और किसानों के लिए बहुत-से समाचार-पत्रों ने अपने संवाददाता रखे हैं, बहुतों ने नहीं भी रखे हैं। परन्तु इस प्रकरण में महत्वपूर्ण बात यह है कि ये स्थानीय और गै़र-स्थानीय समाचार-पत्र ही हैं जो किसानों, उनकी समस्याओं और आत्महत्या के मामलों को बाहरी दुनिया से परिचित कराते हैं, जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। स्वयं लेखिका ने अपने ‘प्रस्थान बिन्दु’ में ही ‘एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट’ के सुप्रसिद्ध लेखक पी0 साईनाथ के ‘हिन्दू’ समाचार-पत्र में प्रकाशित आलेख को ‘प्रखर’ बताते हुए प्रशंसा की है।
पृ0 25
देवी के मेले में मुर्ग़ी और बकरी की बलि दिये जाते दिखाया गया है जबकि बलि मुगेऱ् और बकरे की दी जाती है।
पृ0 43
लेखिका खेतों में ‘जली हुई घास’ का उल्लेख करती हैं। खेतों में पराली तो जलायी जाती है, परन्तु घास नहीं जलायी जाती।
पृ0 43
गाँव में ‘कुएँ की मुँडेर’ का उल्लेख है। कुएँ के चारों ओर छोटी सुरक्षात्मक दीवार को जगत कहा जाता है, मुँडेर नहीं। मुँडेर छत पर होती है।
पृ0 46
अविनाश को बड़े किसान गोविन्दगिरी के घर खाना खिलाया जाता है। इस बारे में लेखिका लिखती हैं, ‘‘कुछ घर में पका, कुछ आस-पास के घरों से आ गया। कहीं से सब्ज़ी आई, कहीं से भात, कहीं से फुल्के, कहीं से मिठाई।’’
- बड़े किसान गोविंदगिरी के घर कोई मेहमान आए और वह चार घरों से चार व्यंजन मँगायें, यह विश्वासयोग्य नहीं है। किसी घर से एक विशिष्ट व्यंजन आ जाए, यह अलग बात है अन्यथा अच्छी आर्थिक स्थिति के लोग अपने मेहमान को स्वयं खिलाना पसन्द करते हैं, घर-घर से व्यंजन मँगाने को अपमानजनक मानते हैं।
पृ0 47
‘‘सूखे पत्तों और सूखी लकड़ियों की बनी बाड़, जिससे भीतर के पौधों को कोई जानवर खा न जाए।’’
- बाड़ लकड़ी, बाँस आदि से बनती है, उसमें सूखे पत्तों का प्रयोग नहीं होता है।
पृ0 47
‘‘उत्तर भारत के किसी भी गाँव जैसा गाँव, दरिद्रता और गन्दगी की विज्ञापनबाज़ी।’’
- ग़रीब की दरिद्रता और गन्दगी दिख जाती है, पर वह विज्ञापनबाज़ी नहीं करता। ‘विज्ञापनबाज़ी’ शब्द तथ्यतः ग़लत तो है ही, उपहासपरक भी है और इस नाते निन्दनीय भी। लेखिका को थोड़ी संवेदनशीलता दिखाते हुए ऐसे जुमले का प्रयोग नहीं करना चाहिए था।
पृ0 48
लेखिका ने खेती के बारे में जो प्रक्रियाएँ बतायी हैं, उसमें भी विसंगतियाँ हैं। उनका कहना है कि बीज डालने के सात दिन के भीतर यदि बारिश नहीं हुई तो बीज का दुबारा ख़र्चा होता है। दरअसल बीज बोने के बाद निश्चित समय में जब बीज अंकुरित हो जाता है, उसके बाद ही सिंचाई की ज़रूरत होती है। बीज अंकुरण के बाद लेखिका अनावश्यक घास हटाने की और उसके बाद कीटनाशकों के प्रयोग की बात करने लगती हैं। इतनी जल्दी घास उगती नहीं है, इसलिए उसके हटाने का सवाल ही नहीं उठता। पहले सिंचाई की जाती है और खाद डाली जाती है। जब पौधा थोड़ा बड़ा होता है और कीटों की आशंका होती है, तब कीटनाशक का प्रयोग होता है।
पृ0 48
लेखिका का अविनाश के माध्यम से कहना है, ‘‘हमारी तरह यहाँ शहरों से दूर अलग से गाय के चरने के लिए ऐसी कोई हरियाली और स्वच्छ भूमि ही नहीं है जहाँ गाय मस्ती से टहल सकें।’’
- यह कथन सही नहीं है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में चरवाहे चारागाहों, बागों, ऊसरों, फ़सल कट चुके खेतों तथा सड़कों और नहरों के किनारे की खाली पड़ी ज़मीनों में पालतू पशुओं को चराते हैं।
पृ0 58-59
लेखिका अविनाश के लिए लिखती हैं - ‘‘सामने दिखते हैं प्याज के फैले खेत ... वह कुछ प्याज खाने को होता है कि बालासाहब टोक देते हैं - ‘‘ना-ना ये खाने के काँदा नहीं हैं, इनके बीज निकले हुए हैं।’’
- विचारणीय है कि प्याज गाजर, शकरकंद या मूली तो है नहीं कि बीस साल से स्विट्जरलैंड में रह रहा अविनाश उसे दाँतों से काटकर खाने लगे और आँसू बहाने लगे।
पृ0 59
उपन्यास का मुख्य पात्र अविनाश अपनी पत्नी नैंसी से कहता है, ‘‘... तुम सोच भी नहीं सकतीं नैंसी कि यहाँ सब कुछ खुला और सार्वजनिक है। यहाँ निजता और गरिमा का कोई स्थान हीं नहीं है, जिं़दगी का सारा नंगापन, सारा कंगालपन, सारा लेखा-जोखा सबके सामने है। सब खुले मंे नहा रहे हैं।’’
- निजता और गरिमा के मानदण्ड विभिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न होते हैं। ग्रामीण समाज इसका अपवाद नहीं है। वैसे यह बात वह व्यक्ति कह रहा है जो स्विट्जरलैंड में रहा है और उसे पता है कि पश्चिमी समाज में लोग खुले आम सड़कों पर दीर्घ आलिंगनबद्ध होते हैं, चुम्बन का क्रमिक आदान-प्रदान करते हैं, नदी, झील तथा समुद्र के किनारे अर्धनग्न मुद्रा में ‘सनबाथ’ लेते हैं और नदी, झील तथा समुद्र में खुले रूप से नहाते हैं। अविनाश और उसके माध्यम से उपन्यास की सर्जक ग्रामीण समाज की कंगाली का उपहास कर रही हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि कंगाली मजबूरी होती है, कोई भी ख़ुशी-ख़ुशी कंगाल नहीं रहना चाहता है। गाँव में जो लोग कुएँ केे पास स्नान करते हैं और कपड़े धोते हैं, उनकी भी मजबूरी होती है। बाल्टियों से घर तक पानी पहुँचाने में कई फेरे लगाने पड़ेंगे, समय बरबाद होगा वह अलग से। घर में जल संचयन के लिए बड़े-बड़े पात्र भी नहीं होते। घर में नल होते तो ऐसी स्थिति न होती।
पृ0 68
‘‘पहले खाद के लिए गोबर, सूखे पत्ते और प्राकृतिक अपशिष्ट का प्रयोग होता था।’’
- खाद के लिए सूखे नहीं, हरे पत्ते उपयुक्त होते हैं जिनसे बढ़िया कम्पोस्ट खाद बनती है।
पृ0 68
‘‘...जबकि पहले इतना भूसा निकलता था कि पूरा घर ओसारा, दुआर सब भूसे से भरा हुआ मिलता था।’’
- कुछ ज़्यादा ही हो गया! पूरा घर भूसे से भर जाता था तो लोग रहते कहाँ थे? खेत में! भूसा जरूरत से ज़्यादा होता है, तो बिक भी जाता है। लोग खलिहान से ही ख़रीद लेते हैं।
पृ0 68
बालासाहब अविनाश से कहते हैं, ‘‘हमारे पिता तो बैलों की दौड़ करवाते थे। जो सबसे आगे दौड़ता उस बैल के मालिक को चालीस मन घी मिलता था।’’
- यहाँ तो लेखिका ने हद ही कर दी - चालीस मन यानी 1600 सेर यानी 1493 कि0ग्रा0 यानी 14.93 क्विन्टल! बालासाहब के पिता किसान थे, डेरी तो चलाते नहीं थे। इतनी बड़ी मात्रा में पारितोषिक स्वरूप घी प्रदान करना अविश्वसनीय लगता है। आज के हिसाब से उसका मूल्य लगभग सात लाख रुपये हुआ। बालासाहब के पिता के समय के हिसाब से उस समय भी उसकी क़ीमत ज़्यादा ही रही होगी। इतनी तो होगी ही कि आयकर विभाग के कान खड़े हो जाएँ।
पृ0 73
लेखिका लिखती हैं - ‘‘पेड़ की पत्तियों पर, डालियों पर रुई के फ़ाहे लटके हुए।’’
- अव्वल तो खेत में कपास का पौधा होता है, पेड़ नहीं। दूसरे, रुई पत्तियों पर नहीं होती, कपास के फल के अन्दर होती है। फल पकने के बाद फट जाता है और सफ़ेद रुई दिखने लगती है।
पृ0 78
‘‘माथे पर भारी-भरकम जूट का बड़ा-सा बोरा।’’
- भारी-भरकम जूट का बड़ा-सा बोरा माथे पर नहीं, सिर पर रखा जाता है।
पृ0 85
अविनाश के मामा कहते हैं, ‘‘हम तो बस ठंडी में ज्वार और चना और बारिश में मूँगफली भर उगा पाते हैं।’’
- ज्वार ख़रीफ़ की फ़सल होती है, ठंडी (रबी) की नहीं।
पृ0 103
अविनाश अपनी पत्नी नैंसी को ऐम्स्टर्डम की याद दिलाता है - ‘‘लाल बत्ती इलाके़ के बीच खुली हुई सेक्स शॉप और इरोटिक म्यूज़ियम तो समझ में आता था पर व्यभिचार और मांसलता का अश्लील दरिया जहाँ बह रहा हो, जहाँ मांसलता, कुटिलता और कामुकता बेख़ौफ़ टहल रही हो, उसके बीच धर्म और करुणा का प्रतीक चर्च? मैं सचमुच हैरान था। कामुक मांसलता से हाथ मिलाता धर्म! ऐसा सिर्फ़ ऐम्स्टर्डम में ही सम्भव था। और यह हैरानी एक तरस और छिः में बदल गई जब थोड़े ही और आगे जाकर मैंने देखा बच्चों का ‘डे केयर’! छिः इतना भी क्या गिरना कि बच्चों तक का लिहाज़ नहीं।’’
- यह पढ़कर मन खिन्न हुआ। ग्राहक तो आते-जाते रहते हैं, ज़्यादातर सेक्स वर्कर तो यहाँ स्थायी तौर पर रहती हैं। वे निकटस्थ चर्च में जाती हैं, तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? हैरानी क्यों है? क्या उन्हें अधिकार नहीं कि अपने बच्चों को ‘डे केयर’ में भेजें? कौन स्त्री किन मजबूरियों से ‘सेक्स वर्कर’ बनी हुई है, इस पर कोई ध्यान नहीं। इन स्त्रियों के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं। क्या यही है स्त्री-विमर्श? सारा कुछ उपहासपरक और व्यंग्यपरक। तरस आता है।
पृ0 111
मामा अविनाश को उसकी अम्मा के निधन के बारे में सूचित करते हैं - ‘‘हाँ बेटा, सच्चाई तो यही है कि तुम्हारे आने से अड़तालीस दिन पहले ही गुज़र गई थीं।’’
- जो बेटा देश छोड़ने के बाद बीस साल तक अम्मा से मिलने नहीं आता, वह उनके निधन के अड़तालीस दिन बाद अचानक प्रकट हो जाता है जबकि उसे निधन की सूचना भी नहीं दी गई थी। इसे चमत्कार ही कहा जा सकता है।
भले ही अम्मा ने अविनाश के मामा और आशा आंटी को अपने निधन की सूचना देने से मना कर दिया था, पर व्यावहारिकता का तकाज़ा था कि मना करने के बावजूद अविनाश को बता दिया जाए जिससे वह बाद में शिकायत या हंगामा न करे और जीवन भर के लिए कलंक न लगे। मृत्यु के बाद कुछ क्रिया-कर्म होते हैं जिसे बेटा ही कर सकता था, मामा या आशा आंटी नहीं। यह भी संभव था कि अविनाश इस सबमें विश्वास करता हो। यही नहीं, घर की आगे क्या व्यवस्था होगी, बेचा जाएगा या किराये पर उठाया जाएगा, घर की चाभी किसको दी जाएगी, अम्मा के न रहने पर यह निर्णय लेने का अधिकार तो बेटे का ही था। इसलिए उसे निधन की सूचना शीघ्रतम देना व्यावहारिक और ज़रूरी था। इस प्रकार उपन्यास के चमत्कारिक घटनाक्रमों में एक यह घटनाक्रम भी जुड़ गया।
पृ0 126
‘‘हमारे शास्त्रों में तीन ऋणों का विधान है - मातृ ऋण, देव ऋण और गुरु ऋण।’’
- शास्त्रों में जिन तीन ऋणों का विधान है, उनके सही नाम हैं - देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण।
पृ0 132
तुअर अरहर की दाल को कहते हैं, परन्तु लेखिका उसे मक्का बता रही हैं।
पृ0 136-137
उल्लेख है कि जब चौ0 चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री थे, किसान का वेश रखकर एक थाने में गए और रिपोर्ट लिखने के लिए कहा। घूस माँगे जाने के बाद उन्होंने अपना परिचय दिया और पूरे थाने को सस्पेन्ड कर दिया।
- इस तरह की घटना चौ0 चरण सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में नहीं घटी। वास्तविक घटना बहुत पहले की है। तब चौधरी साहब उत्तर प्रदेश सरकार में राजस्व मंत्री थे। वह सामान्य किसान के वेश में एक तहसील में गए। वहाँ पटवारी ने उनसे घूस माँगी जिसे बाद में सस्पेन्ड कर दिया गया। इस घटना की बहुत सराहना हुई और यह बहुचर्चित हुई। बाद में यह घटना विभिन्न रूपों में प्रचारित-प्रसारित होती रही।
पृ0 179
‘‘धान के बीज डालते किसान, घुटने तक पानी में धान के पौधों को रोपते किसान, फिर महीने भर बाद पानी भरे खेतों में घुटने तक मिट्टी में धँस कर एक-एक पौधे को दूर-दूर वापस रोपते किसान।’’
- धान के बीज घने-घने बोये जाते हैं। जब धान के पौधों की बेढ़ तैयार हो जाती है, तब पौधों को उखाड़कर निश्चित फ़ासले पर रोपाई की जाती है। दो बार रोपाई नहीं की जाती जैसा कि लेखिका का कहना है।
पृ0 181
‘‘उसी की (अविनाश की) अगुआई में पारतुल के आस-पास के गाँवों के सामूहिक प्रयासों से नहर खुदी जिसमें बरसात की एक-एक बूँद संगृहीत की गई।’’
- उल्लेखनीय है कि नहर बनाने के लिए पहले ज़मीन अधिगृहीत की जाती है। नियमानुसार यह कार्य सरकार ही कर सकती है, कोई अन्य नहीं। नहर का निर्माण सरकार ही करवाती है, कोई निजी व्यक्ति या संस्था नहीं। मान लिया जाए कि सरकार ने अपवादस्वरूप नहर निर्माण का कार्य अविनाश को सौंप दिया, तब इस महत्वपूर्ण बात का सुस्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए था। लेखिका का यह भी कथन है कि नहर में बरसात की एक-एक बूँद संगृहीत की गई। वास्तव में नहर का कार्य किसी जलस्रोत के जल को खेतों तक पहुँचाना होता है। नहर के प्रारम्भ और समाप्ति के दोनों छोर खुले होते हैं, रास्ते में जल निकास के बहुत-से पाइप होते हैं, अतः उसमें जल-संग्रह सामान्यतः नहीं हो सकता।
पृ0 185
‘‘नीरव सन्नाटे।’’
- सन्नाटे तो नीरव होते ही हैं। दोनों शब्द समानार्थी हैं।
‘ढलती साँझ का सूरज’ पढ़कर विस्मयपरक निराशा हुई। उपन्यास में कई झोल हैं, कई चीज़ें तथ्यपरक और तर्कसंगत नहीं हैं। यह सीख भी मिली कि आज के जमाने में किसी पुस्तक के बारे में किए गए गुणगान के आधार पर कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। जो लोग अभियान के तौर पर अतिशय प्रशंसा के किले खड़े करते हैं, उनके अपने कारण हो सकते हैं। इसी तरह जिन पुस्तकों को सामान्य या ख़राब बताया जाता है, उनमें मोती भी हो सकते हैं। यह विचार भी मन में रखना चाहिए।
- दामोदर दत्त दीक्षित
1/35, विश्वास खण्ड, गोमती नगर,
लखनऊ-226010 (उ0प्र0)
बहुत ही सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत ही विस्तृत और अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएं