करूणा से भरे हुए अपने भावुक मन के साथ अनुपमा बहुत देर यूँ ही चुपचाप बैठी रही। आज उसने अपना खोया हुआ दोस्त पुनः पा लिया था।
अनहोनी
ये अनोखी कहानी है, अनुपमा और आलोक की। जिसकी शुरुआत होती है शिमला के एक नामी गिरामी कॉलेज से, जहाँ लगभग साथ-साथ ही दोनों की नियुक्ति हुई थी। "हैलो, मैं डॉ. आलोक गोविल, रसायन विज्ञान में ज्वाइन करने आया हूँ, आप डॉ. अनुपमा दत्ता हैं ना? मैंने आपका नाम लिस्ट में देखा था" "जी, मैं भौतिक शास्त्र में हूँ" आलोक की बात सुनकर अनुपमा ने तुरंत मुस्कराकर जवाब दिया।
ऑफिस में इस पहली मुलाकात बाद से ही दोनों अच्छे मित्र बन गए। कॉलेज की अच्छी बुरी सारी बातें एक दूसरे से साझा करना, छोटी बड़ी सभी बातों पर एक दूसरे की सलाह लेना, उनका रोज का काम हो गया था। नई नौकरी, नई जगह, नई उम्र, नया जोश और नए लोग, सामंजस्य बैठाने में दोनों व्यस्त हो चले थे।
अनुपमा छोटी छोटी बातों में आनंदित रहने वाली, खुशमिज़ाज और मिलनसार लड़की थी। अपने मधुर व्यवहार और अपनी प्रतिभा से बहुत कम समय में ही उसने छात्र छात्राओं और सहकर्मियों के बीच अपनी अच्छी जगह बना ली। उसे कॉलेज बहुत भाने लगा था। वहीं तीक्ष्ण बुद्धि, थोड़ा उग्र स्वभाव वाला और अत्यधिक महत्वाकांक्षी आलोक जीवन में बहुत कुछ कर गुजरना चाहता था।
"अनु, मुझे हर वक्त एक बेचैनी सी रहती है, मुझे अपने विषय को बहुत आगे लेकर जाना है, पूरी दुनिया में नाम कमाना है, मेरा एक एक पल कीमती है।" "भई मैं तो जैसी नौकरी चाहती थी, वो मुझे मिल चुकी है, अब मैं सुकून और आराम से भरी खुशगवार जिंदगी जीना चाहती हूँ।" आलोक की बड़ी बड़ी बातें सुनकर अनुपमा हँसकर कहती।
एक तो शिमला का मनमोहक मौसम, दूजे आंतरिक संतुष्टि की आभा, खूबसूरत अनुपमा का सौंदर्य और निखर उठा था, जिसपर आलोक को छोड़कर सबकी नज़रें पड़ने लगी थी। आलोक अधिकतर समय कई-कई शोध पत्रों को पढ़ता हुआ, एक अजीब सी उधेड़-बुन में रहने लगा था। "अनु, देखो मेरे दो शोध पत्र प्रकाशित हो गए, वो भी इतने अच्छे इंटरनेशनल जर्नल में" आलोक के ऐसा कहते ही अनुपमा बेहद खुशी से शोधपत्रों को देखने लगी थी, "अरे ! तुमने इनमें मेरा भी नाम क्यों डाल दिया, आलोक? मैंने तो कोई मेहनत ही नहीं की है इनमें!" अत्यधिक आश्चर्य से अनुपमा ने कहा। "तो क्या हुआ, इसमें फिजिक्स के सिद्धांतों की भी सहायता ली गई है, और फिजिक्स केमेस्ट्री तो दोस्त होते हैं न! तुम्हें सी आर लिखने में काम आएँगे।" आलोक ने जवाब दिया।
इस बात से अनुपमा कई दिन उद्वेलित रही। "इतने महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने इतनी मेहनत से शोधपत्र लिखे और उसमें अपने साथ मेरा भी नाम डाल दिया, जबकि मेरा रत्तीभर भी योगदान नहीं है। महज दोस्ती का ही तो रिश्ता है....फिर क्यों?" अनुपमा सोचती रहती।
"अनु, मैंने एक घर लिया है, आज लौटते समय मेरे साथ चलना, मेरा घर देखना।" एक दिन आलोक ने अनुरोध किया था। आलोक धनाढ्य परिवार से था, धन- सम्पत्ति की कोई कमी नहीं थी। तीन बेडरूम का आलोक का घर अनुपमा को काफी व्यवस्थित और सुंदर लगा। घूम घूमकर पूरा घर देखते देखते अनुपमा ठिठककर कह उठी, "अरे ! ये क्या ! एक बेडरूम को तुमने प्रयोगशाला में बदल दिया, आलोक!" "ये मेरी अपनी प्रयोगशाला है अनु, इसमें मैं एक दिन किसी नायाब चीज़ का आविष्कार करूँगा, दुनियाभर में मेरा नाम होगा, सब देखते रह जाएँगे।" आलोक के ऐसा कहते ही अनु ने चुटकी ली, "भई फिर हमारे महान साइंटिस्ट महोदय अपने पुराने दोस्तों को भूल तो नहीं जाएँगे?" लेकिन पता नहीं क्यों, आलोक की आँखों में जुनून देखकर अनुपमा किसी अनजाने डर से सिहर उठी थी।
अप्रैल-मई का समय था, कॉलेज में परीक्षाओं की व्यस्तताएँ थी। अनुपमा की आलोक से कई दिनों से बातचीत नहीं हो पाई थी। एक दिन अनुपमा ने सुना, आलोक पिछले दो दिन से बिना किसी सूचना के कॉलेज नहीं आया था। उसने तुरंत ही आलोक को फोन लगाया, लेकिन आलोक ने फोन नहीं उठाया। उसके बाद अनुपमा ने अगले तीन दिन तक, उसे जाने कितनी ही बार फोन किया, लेकिन आलोक ने एक बार भी फोन नहीं उठाया, घंटी बराबर बजती रही थी। बहुत चिंतित होकर अनुपमा ने आलोक के घर जाने का निश्चय किया। शाम को अपनी दोस्त रुचि के साथ आलोक के घर पहुँचकर डोरबेल बजाया, दरवाजे पर कोई नहीं आया, लेकिन दरवाजा हल्का खुला हुआ ही था। हिम्मत करके दोनों सखियाँ अंदर दाखिल हो गईं। पूरा घर छान मारा, कहीं कोई नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों दोनों ने ही ये महसूस किया मानो घर में कोई है। रसोईघर से भी ताजा बनी हुई कॉफी की खुशबू आ रही थी, घर ठीक- ठाक, व्यवस्थित सा ही था। लेकिन आलोक की प्रयोगशाला में सारा सामान बहुत बेतरतीब सा था, मानो किसी ने जल्दबाजी में सब कुछ फैला दिया हो। ढेर सारी परखनलियाँ, बहुत सारे बीकर और केमिकल्स बिखरे पड़े थे। अचानक अनुपमा को आलोक का धीमा सा कातर स्वर सुनाई दिया, "अनु..." जैसे आलोक ने बहुत पास आकर उसके कान मे उसका नाम पुकारा हो। चौंककर, बेचैनी से अनुपमा ने चारों तरफ देखा। किसी को भी न पाकर घबराहट में पसीने से तर, किसी तरह रुचि का हाथ थामकर, बदहवास सी आलोक के घर के बाहर आ गई थी। इस घटना के बाद अनुपमा कई कई रात नहीं सो पाई।
"मैंने जो भी महसूस किया वो सब क्या था" अनुपमा मन ही मन सोचती रहती, किसी से कुछ नहीं कहती। आलोक की कोई खबर नहीं मिल पाई। कुछ समय बाद आलोक के घर के भुतहा होने की अफवाहें भी सुनाई देने लगी थी। लोगों ने उसके घर के दरवाज़े को अपने आप खुलते बंद होते देखा था, घर की लाइट्स को जलते बुझते देखा था, अंदर किसी के चहलकदमी की आवाज़ भी सुनी थी। जितने मुँह उतनी बातें।
"आखिर कहाँ गायब हो गया, एक जीता जागता इंसान" अक्सर अनुपमा सोचती। उसके जीवन का एक हिस्सा ही जैसे खो गया था।
समय अपने नियत चाल से चलता रहा, साथ ही अपनी परिवर्तनशील प्रकृति के चलते, चुपके चुपके बिना बताए अनुपमा की व्यथा पर मरहम का फाहा भी रखता रहा। देखते ही देखते दो साल बीत गए। इस बीच अनुपमा का विवाह हो गया था। अपने व्यस्त जीवन के आवरण के कई पर्तों के अंदर अनुपमा ने आलोक की स्मृतियों को सहेजकर रख लिया था। एक दिन अनुपमा कॉलेज से घर लौटकर थोड़ा सुस्ता ही रही थी कि डोरबेल बज उठी। अलसाए कदमों से अनुपमा ने दरवाज़ा खोला, लेकिन बाहर किसी को न पाकर झुंझलाहट में सोचा,"जाने कौन बेवजह परेशान कर रहा है।" लौटकर पुनः कुर्सी पर पसर गई।
लेकिन तभी आश्चर्य मिश्रित सिहरन से अनुपमा थरथरा उठी जब उसे सामने से एक आवाज़ सुनाई दी, "अनु प्लीज़, मुझसे डरना मत, मैं भूत नहीं हूँ।" आलोक की धीर, गंभीर, सधी हुई आवाज़ को अनुपमा तुरंत ही पहचान गई थी। "लेकिन तुम हो कहाँ आलोक? मुझे तो तुम दिखाई ही नहीं दे रहे हो ।"
"मैं तुम्हारी सामने वाली कुर्सी पर बैठा हूँ, अनु, पर तुम मुझे नहीं देख पाओगी, मैं तुम्हें सारी बातें बताता हूँ।" आलोक की बात सुनकर अनुपमा का सारा शरीर ही मानो कर्णमय हो गया था, वह सब कुछ जल्दी से जान लेना चाहती थी।
"अनु, तुम तो जानती ही हो कि लगभग दो वर्ष पूर्व मैं पूरी तन्मयता से अपने निजी प्रयोगशाला में एक नायाब आविष्कार करने की कोशिश में था। दिन रात की मेहनत के बाद आखिरकार मैंने एक ऐसी दवा का निर्माण कर ही लिया जिसे पीते ही कोई भी व्यक्ति अदृश्य हो जाए। मैंने इस दवा का सफल परीक्षण चूहों और खरगोशों पर भी कर लिया था। इतना ही नहीं, मैंने साथ-साथ उस दवा की प्रतिकारी दवा भी बना ली जिसे पीते ही व्यक्ति पुनः अपने साकार स्वरूप में आ जाए। अर्थात मैंने दो दवाओं का आविष्कार किया, पहली वाली अदृश्य होने के लिए और दूसरी वाली पुनः दृश्य होने के लिए। लेकिन शर्त यह थी कि दूसरी दवा तभी काम करती थी जब वो पहली वाली दवा लेने के एक घंटे के अंदर ही ली जाए, अन्यथा की स्थिति में व्यक्ति के हमेशा के लिए अदृश्य हो जाने की आशंका थी। अनु, बस यहीं मुझसे चूक हो गई ।" धड़कते दिल से अनुपमा, आलोक की अविश्वसनीय बातों को बहुत ध्यान से सुन रही थी। आलोक ने आगे कहा," अनु, अपने शोध को कामयाब जानकर मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। आनंद और उत्साह के अतिरेक में मैंने स्वयं ही अदृश्य होने वाली पहली दवा को लेने का निश्चय किया था। दवा लेकर मैं घर से बाहर निकल पड़ा, बाज़ार और मॉल घूमता रहा, लोगों को मैं बिल्कुल भी दिखाई नहीं दे रहा था, मेरी खुशी का ठिकाना न था, मैं जाने कितनी ही देर तक यूँ ही मजे लेता रहा। मैं भूल गया कि दूसरी दवा एक घंटे के अंदर ही लेना है। जब तक मुझे ये बात याद आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके बाद मैंने कई बार दूसरी दवा ली लेकिन मेरे साथ अनहोनी हो चुकी थी। उस दिन जब तुम मुझे ढ़ूँढ़ते हुए मेरे घर आई थी, तभी मैं तुम्हें सब कुछ बता देता, लेकिन तुम्हें अत्यधिक डरा हुआ देखकर मेरी हिम्मत नहीं हुई। उसके बाद मैंने खुद को दृश्य रूप में लाने के लिए बहुत से शोध और बहुत प्रयास किए लेकिन सफल नहीं हो पाया। अब शायद मैं जीवन भर ऐसा ही रहूँगा।" कहते कहते आलोक की आवाज भर्रा उठी।
अनुपमा भी अपने आँसू नहीं रोक पाई। "अनु पूरी दुनिया मुझे भूत समझकर मुझसे डरती है, कोई बात नहीं। लेकिन तुम तो मेरी दोस्त बनी रहोगी ना? मुझसे डरना मत अनु, वर्ना मैं तो जीते जी मर जाऊँगा। अनु, तुम्हारे अलावा कोई भी मेरा अपना नहीं है।" आलोक फफक कर रो पड़ा। संवेदनशील अनुपमा कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं थी, फिर भी रुँधे गले से कहा, "मैं तुम्हारे साथ हूँ आलोक, अपने दोस्त से भला कोई डरता है।" "अनु मैंने इन आविष्कारों पर दो शोधपत्र लिखे हैं। अब इस दुनिया के लिए मैं तो मर चुका हूँ, इसलिए अब ये तुम्हारे ही नाम से छपेंगे, इनमें फिजिक्स का उपयोग भी किया गया है, मैं तुम्हें नोट्स दे रहा हूँ, पढ़ लेना। विज्ञान की दुनिया में ये शोधपत्र तहलका मचा देंगे। मैं चाहता हूँ तुम्हारा खूब नाम हो। मैं तुमसे बात करने अक्सर आता रहूँगा।" कहकर आलोक चला गया था। करूणा से भरे हुए अपने भावुक मन के साथ अनुपमा बहुत देर यूँ ही चुपचाप बैठी रही। आज उसने अपना खोया हुआ दोस्त पुनः पा लिया था।
- डॉ. सुकृति घोष
प्राध्यापक, भौतिक शास्त्र
शा. के. आर. जी. कॉलेज
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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