भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्यगत विशेषताएं bhartendu yug bhartendu harishchandra bhartendu harishchandra ki kavyagat visheshtaenआधुनिक हिंदी साहित्य
भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्यगत विशेषताएं
भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्यगत विशेषताएं bhartendu yug bhartendu harishchandra bhartendu harishchandra ki kavyagat visheshtaen आधुनिक हिंदी साहित्य - भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवर्तक माना जाता है। आधुनिक हिंदी काव्य धारा का प्रादुर्भाव भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र से होता है। हिंदी साहित्य के आधुनिक काम में नवयुग की चेतना का विकास और भारतेंदु जी का रचनाकाल दोनों ही घटनाएँ एक दूसरे से इतनी घुली-मिली हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। उनकी रचनाएँ नवयुग की चेतना की सूचना देती है।
नवयुग की चेतना का सबसे प्रमुख रूप श्रृंगारकाल की सामंती संस्कृति का बहिष्कार करके जनवादी चेतना को अपनाना है। कविता राज्याश्रम से हटकर जनता के आश्रय में आई हैं। नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु ने अपने साहित्य के माध्यम ससे जनता की चेतना को उद्बुद्ध किया। उनके साहित्य ने उत्तर भारत के जनजीवन में नवजागरण की स्थिति उत्पन्न की। उन्होंने दरबारी कवियों की श्रृंगार एवं विलासितापूर्ण रचनाओं से जनता का ध्यान हटाकर उन्हें देश प्रेम ,समाज सुधार और देश उपकार की प्रेरणा दी है। इसीलिए भारतेंदु युग को नवजागरण युग कहा जाता है।
भारतेंदु और हिन्दी नवजागरण
भारतेंदु जी ने मुख्यतः स्वदेश प्रेम ,देशउद्धार ,अतीत गौरव ,सामाजिक विसंगतियों के प्रति दुःख प्रकाश ,समाज सुधार एवं सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति ,विधवा अवनति ,बाल -विवाह ,रूढ़ियों का खंडन ,नए सामाजिक आंदोलनों एवं स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधरता ,समाज में स्वस्थ एवं प्रगतिशील परम्पराओं पर बल ,आर्थिक अवनति के प्रति विक्षोभ ,अंग्रेजों द्वारा भारतीय धन का विदेश ले जाना ,प्रकृति चित्रण आदि -इत्यादि विषयों पर कविताएँ सृजित की हैं।
प्यारी जू के तिल पर बलि बलिहारी।
जा मिस बसत कपोल न अनुछिन लघु बनि पिय गिरधारी॥
पिय की दीठ चीन्ह मनु सोहत लागत अति ही प्यारी।
‘हरीचंद’ सिंगार तत्तव सी लखि मोहन मनवारी॥
भारतेंदु संधिकाल के कवि थे। अतः इनकी रचनाओं में प्राचीन तथा नवीन का संगमस्थल है। प्राचीन के अंतर्गत इन्होने भक्तिकालीन एवं श्रृंगारकालीन प्रवृतियों को स्थान दिया और नवीन के अंतर्गत देश की आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को। इस प्रकार ,इनकी रचनाओं को हम पाँच भागों में विभक्त कर सकते हैं -
- भक्तिप्रधान रचनाएँ
- श्रृंगारप्रधान रचनाएँ
- देशप्रेमप्रधान रचनाएँ
- सामाजिक समस्याप्रधान रचनाएँ
- प्रकृतिचित्रण रचनाएँ
भारतेंदु पुष्टि संप्रदाय में दीक्षित थे। इससे इनकी रचनाएँ कृष्णकाव्य के अंतर्गत आती हैं। भारतेंदु का समस्त कृष्ण काव्य सूर के कृष्ण काव्य पर आधृत है -
प्रभु हो ! कबलौं नाच नचैहो ?
अपने जन के निलज तमासे कबलौं जगहि दिखैहो।।
भारतेंदु की श्रृंगारप्रधान रचनाएँ कवित्त एवं सवैयों में निर्मित प्रेम की गहन अनुभूति से आपूरित हैं। प्रेमफुलवारी एवं प्रेमतरंग में प्रेम की उदात्त वृत्तियों का निरूपण है। प्रेम के संयोग तथा वियोग दोनों रूपों का चित्रण इनके काव्यों में मिलता है -
बिछुरे पिय के जग सूनो भयों ,अब का करिए कहि पेखिये का।
सुख छाडी के संगम को तुम्हरे ,इन तुच्छन को अब लिखिये का।
भारतेंदु में देश प्रेम की भावना कूट कूटकर भरी हुई है। इनकी राष्ट्रीय भावना देशप्रेम के कारण चरम सीमा पर पहुँची हुई है। भारत दुर्दशा में इनके देशप्रेम का चित्र देखिये -
'हरिचंद जू' हीरन को व्यवहार कै काँचन को लै परेखिए का।
जिन आँखिन में तुव रूप बस्यो, उन आँखिन सों अब देखिए का ॥
भारतेंदु हरिश्चंद्र की राष्ट्रीय भावना
भारतेंदु ने सामाजिक विषयों को भी अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाया है। धार्मिक पाखण्ड ,छुआछूत की दूषित प्रणाली ,विधवाविवाह ,बाल विवाह ,अंधविश्वास आदि समस्याएँ इनके सामने थी और इन्होने इन समस्याओं का समाधान अपने दृष्टिकोण के अनुसार किया है। सामाजिक दोषों की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट कराते हुए इन्होने कहा है -
अंगरेज राज सुख साज साजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।
ताहू पै महंगी काल रोग बिस्तारी।
दिन दिन दूने दुःख ईस देत हा हा री॥
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रकृति चित्रण
प्रकृति के सुन्दर चित्र भी भारतेंदु द्वारा चित्रित किये गए हैं। इन्होने भी सर्वप्रथम हिंदी में स्वतंत्र प्रकृति वर्णन की ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया है। श्रृंगारकाल में स्वतंत्र प्रकृतिचित्रण का पूर्णत: अभाव था ,पर भारतेंदु ने प्राकृतिक सौन्दर्य के चित्रण की ओर लोगों को प्रेरित किया है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा शैली
भारतेंदु की भाषा शैली के दो रूप हैं -
- जो इनके लेखों में मिलता है।
- जो इनके काव्य में मिलता है।
लेख में इनकी भाषा शैली के चार रूप मिलते हैं -
- परिचयात्मक
- भावात्मक
- गवेषणात्मक
- व्यंगात्मक
भारतेंदु ने खड़ी बोली को गद्य भाषा का रूप दिया ,पर उसे काव्यभाषा न बना सके। काव्य में इन्होने ब्रजभाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। उर्दू ,फ़ारसी ,बंगला ,मराठी ,गुजराती ,संस्कृत आदि भाषाओँ का ज्ञान होने पर भी भारतेंदु ने यथाशक्ति परिनिष्ठित हिंदी के शब्दों का ही प्रयोग किया है।
भारतेंदु ने प्रबंधमुक्तक से अधिक भावपुक्तक की रचना की है। भावमुक्तक में इन्होने कवित्त ,सवैया ,दोहा ,छप्पय ,कुण्डलियाँ ,हरिगीतिका आदि छंदों का प्रयोग किया है। लोकगीत के छंदों में लावनी ,ठुमरी ,चौताल ,होली आदि का प्रयोग हुआ है। अलंकारों की छटा भी भारतेंदु के काव्य में देखी जा सकती है। उपमा ,रुमक ,उत्प्रेक्षा ,यमक ,स्लेष आदि अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग भारतेंदु में मिलता है। रसों में श्रृंगार ,शांत और हास्य इनके प्रिय रस हैं ,पर इनके अतिरिक्त इन्होने अन्य रसों का भी प्रयोग किया है।
Gangavatran ki kavygat visesta
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