घनानंद प्रेम के पीर के कवि है घनानंद के काव्य में प्रेम निरूपण घनानंद की विरह वेदना घनानंद की प्रेम व्यंजना घनानंद और सुजान की कहानी प्रेम को विषम
घनानंद प्रेम के पीर के कवि है
कविवर घनानंद को उनके प्रेम चित्रण की विशिष्टता के कारण प्रेम के पीर कहा जाता है। वैसे तो ,अधिकांश रीतिबद्ध कवि तत्त्वतः स्वयं प्रेमी नहीं थे ,इसीलिए व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें प्रेम के पीर का साक्षात अनुभव नहीं था। उनका प्रेमचित्रण अधिकांशत काव्य एवं काव्य शास्त्रीय परंपरा से अर्जित अवबोध पर आधारित था। रीतिमुक्त कवियों में प्रायः सबकों प्रेम के संयोग एवं वियोग पक्ष का व्यक्तिगत अनुभव था। इस तरह उनका प्रेम भी अंततः उभयनिष्ठ बना और अंततः संयोग में ही उनका पर्यवसान हुआ। घनानंद की स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। उनकों अत्यल्प कालिक संयोग के अनंतर आजीवन वियोग झेलना पड़ा। घनानंद की प्रेम भावना वेदना की विलासपूर्ण कल्पना न होकर अधिकांशत उनके निजी जीवनानुभाव पर आधारित है ,इसीलिए उसमें एक विशेष प्रकार की सहजता एवं ह्रदयस्पर्शिता मिलती है।
घनानंद का कवि प्रेम को जीवन का वैभव मानता है और यह तो सर्वविदित तथ्य है कि -
"जीवन का वैभव
प्यार किया जाना ,नहीं ,करना है
पाना नहीं ,देना है ,
जो इसे समझता है ,
वह जीवन के वैभव को समझता है। "
हाँ ,इतना जरूर है कि उनके प्रेम को वही समझ सकता है ,जिसने हिय आँखिन नेह की पीर को देखा हो। उनके प्रेम के मार्ग अत्यंत सीधा -सरल है -
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥
घनानंद के काव्य में प्रेम निरूपण
प्रिय के अद्भुत रूप का दर्शन न पाने पर घनानंद का मन उघ-चूभ करने लगता है। वे विरह विष की मारकता के निवारण हेतु सुजान की ओर टकटकी बाँधकर निहारना ही सर्वोत्तम उपाय मानते हैं - बिनु जान सजीवन कौन हरे ,सजनी विरहा विष की लहरें।
ऐसी प्राण प्रिय प्रिया का वियोग दुखदायक तो होगा ही। वियोग की स्थिति में घनानंद उस प्रिय को खोजने में घरती आकाश एक कर देते हैं। वे उस घरी (समय ) को भी नहीं छोड़ते हैं ,जिसने उनकी प्रिया को उनसे दूर कर दिया है -
कौन घरी बिछुरे हौ सुजान ,जु एक घरी मन ते न बिछोहों।
मोह की बात तिहारी असूझ ,पे मों हिय को तो अमोहियों मोहो।
वास्तव में ,विरोधाभास को घनानंद की निजी विशेषता माना जा सकता है ,किन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि घनानंद की रचनाओं में यह विरोधाभास मात्र लक्षणबद्ध न होकर अधिकांशत : सार्थक और तात्विक विरोध का अन्वेषण करता हुआ नज़र आता है। वे शिकायत करते हुए कहते हैं -
हाय सनेही सनेह सों रूखे,रुखाई सों हवें चिकने अति मोहों।
आपुन पौ अरु आपहूं तें करि हरते हतों घनआनंद को हौं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी घनानंद के प्रेम वर्णन के वैशिष्ट्य को निरुपित करते हुए कहते हैं कि प्रेम की पीर ही लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबांदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ है।
घनानंद की विरह वेदना
कविवर घनानंद ने श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का रुचिर एवं स्वाभाविक निरूपण किया है। हाँ ,इतना अवश्य है कि संयोग की अपेक्षा उनका वियोग श्रृंगार परिणाम और भावानुभूति दोनों में प्रभावी और वजनदार पड़ता है। घनानंद ने संयोग श्रृंगार की तीव्र अनुभूति का वर्णन किया है। उनकी सुरूप सुन्दर नायिका का अंग प्रत्यंग चांचल्य एवं चेष्टाओं से भरा हुआ है। उसकी मधुर मुस्कान से रस वर्षा होती है। उस अन्यन्य रूपशीला को निहारकर कवि बरबस ही कह पड़ता है -
लाजनि लपेटि चितवनि भेद-भाय भरी
लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं।
छबि को सदन गोरो भाल बदन, रुचिर,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानी मैं।
दसन दमक फैलि हमें मोती माल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं।
आनँद की निधि जगमगति छबीली बाल,
अंगनि अनंग-रंग ढुरि मुरि जानि मैं।
रूप सौन्दर्य श्रृंगार का उपकारक तत्व है। घनानंद ने रूप सौन्दर्य का परिपाटी के रूप में चिंत्रण नहीं किया है ,किन्तु श्रृंगार की यात्रा में रूप नगर से तो उन्हें भी गुजरना ही पड़ा। इसीलिए उन्होंने भी रूप सौन्दर्य के रम्योउज्जवल चित्रों का पुष्कल परिणाम में परिचित्रण किया है।
घनानंद की प्रेम व्यंजना
घनानंद की श्रृंगारी कविता में वियोग भावना का ही प्राधान्य है। मार्मिकता एवं मात्रात्म्कता की दृष्टि से भी वियोग को ही वरीयता प्राप्त हुई है। उनका वियोग वर्णन स्वानुभूतिजन्य है। संयोग के सुखप्रद उपादान ,उस समय की सुखद स्मृतियां अब वियोगी के ह्रदय को कचोटती रहती है। महाकवि दिनकर के शब्दों में कहा जा सकता है - दूसरों के लिए किराये पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक कवि ऐसा है,जो सचमुच अपनी पीड़ा में रो रहा है। घनानंद का कवि प्रियतम को अपनी विवशता सुनाता हुआ कहता है -
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू.
निरधार अधार है झार मंझार दई, गहि बाँह न बोरिये जू .
‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू .
रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू .
घनानंद के श्रृंगार वर्णन में चाहे वह संयोगात्मक हो अथवा वियोगात्मक अभिलाष की ही प्रधानता है। यह अभिलाष वियोग की ही भाँती संयोग में प्रेमी को आन्तरिक पीड़ा से व्याकुल किये रहता है। शायद यही कारण है कि घनानंद के संयोग में भी वियोग की पीड़ा का आभास हमेशा बरकार रहता है -
जिनको नित नीके निहारत हीं , तिनको अँखियाँ अब रोवति हैं .
पल पाँवरे पाइनि चाइनि सों , अंसुवनि की धारनिधोवति हैं .
‘घनआनन्द’ जान सजीवनि कों , सपने बिन पायेइ खोवति हैं .
न खुली मूँदी जानि परैं दुख ये , कछु हाइ जगे पर सोवति हैं .
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