हिंदी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान खड़ी बोली आंदोलन में महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान हिंदी गद्य साहित्य की उन्नति द्विवेदी मंडल
हिंदी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान
हिंदी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है। आपका जन्म दौलतपुर ( जिला रायबरेली ) में सन १८७० ई.में और देवावसान १९२९ ई. में हुआ। भारतेंदु ने हिंदी गद्य के जिस रूप का परिवर्तन किया ,आचार्य द्विवेदी ने उस रूप को परिमार्जित करने में अपना योगदान दिया। इनका प्रभाव इस काल के अधिकाँश कवियों पर पड़ा,जिसके कारण इस काम का नाम ही द्विवेदी युग में पड़ गया। द्विवेदी जी संस्कृत तथा मराठी साहित्य से विशेष प्रभावित थे। इनकी रचनाओं में इनका प्रभाव परिलक्षित होता है। हिंदी गद्य साहित्य की उन्नति के लिए इन्होने सरस्वती पत्रिका का संपादन किया।
सरस्वती पत्रिका का सम्पादन
सरस्वती के संपादन में द्विवेदी जी ने हिंदी में भाषा तथा व्याकरण से सम्बद्ध त्रुटियों दूर की। गद्य लेखकों के लिए इन्होने मार्गप्रदर्शक का ही काम नहीं किया ,अपितु उनका मार्ग भी प्रशस्त किया। भारतेंदु हरिश्चंद की तरह इन्होने भी अपना एक मंडल निर्मित किया ,जो द्विवेदी मंडल नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपनी आलोचनाओं के माध्यम से द्विवेदी जी ने अधकचरे साहित्यकारों की बुराइयों दूर की तथा उन्हें स्वस्थ साहित्य की रचना के लिए प्रेरित भी किया।
भाषा को शिष्ट रूप प्रदान करने में द्विवेदी सदैव प्रयत्नशील रहे। भाषा के पारखी होने कारण कठिन से कठिन विषयों को भी सरल भाषा में व्यक्त करने की इनमें अद्भूत क्षमता थी। संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव शब्दों का समवेश इनके निबंधों में दृष्टिगोचर होता है। विदेशी शब्द अपनाकर हिंदी बनाने का कार्य भी इन्होने किया। अंग्रेजी ,अरबी ,फ़ारसी एवं उर्दू शब्दों का प्रयोग भी यत्न - तंत्र उपलब्ध है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख रचनाएँ
द्विवेदी जी की रचनाएँ संख्या में पचास के लगभग है। साहित्य ,पुरातत्व ,आलोचना ,विज्ञान ,नीति आदि विषयों पर इनके अनेक लेख प्रकाशित है। विचार विमर्श नामक ग्रन्थ में इनके लेख संगृहीत हैं। नैषधचरितचर्या ,नाट्यशास्त्र ,रसज्ञरंजन ,सुकविकीर्तन ,प्राचीन पंडित एवं कवि ,विचार विमर्श आदि इनकी श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। काव्यों में देवस्तुतिशतक ,नागरीकाव्यमंजूषा ,कविता कलाप ,कान्यकुब्जलीलाव्रतम ,संपादकस्तव: आदि प्रसिद्ध है। इनकी मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त द्विवेदी ने दर्जनों अनूदित ग्रंथों की भी रचना की है। अनूदित ग्रंथों में भी इनकी मौलिकता स्पष्ट झलकती है।
इतिवृत्तात्मक शैली
द्विवेदीजी ने काव्य के क्षेत्र में इतिवृत्तात्मक शैली को अपनाया है। काव्य मंजूषा तथा सुमन में इनकी सहृदयता कूट - कूटकर भरी है। ह्रदय की विशिष्ट भावनाओं का समावेश मार्मिकता एवं सरसता के साथ हुआ है। इनकी कविता का एक उदाहरण देखिये -
मूल्यवान मंजुल शैया पर पहले निशा बिताता था।
सुयश और सुन्दर गीतों से प्रात जगाया जाता था।
वही आज तू कुश कासों से युक्त भूमि पर सोता है।
अतिकर्कश श्रृगाल - शब्दों से हा ! हा ! निंद्रा खोता है।
द्विवेदी जी कवि होने के साथ साथ उत्कृष्ट निबंधकार एवं समालोचक भी थे। इन्होने अधिकाँश विचार - प्रधान निबंधों की रचना की है। पाठकों को अपने विचारों से अवगत कराने के लिए ये एक बात को कई - कई बार दुहराते हैं। व्याकरण की अशुद्धियों ,वाक्य विन्यास की त्रुटियों तथा विराम आदि की कमियों पर द्विवेदी का ध्यान सदैव केन्द्रित किया है। भाषा के परिष्करण तथा व्याकरण के शुद्धिकरण पर इन्होने विशेष ध्यान दिया है। इनके निबंधों में अधिकतर बातों का संग्रह है ,फिर भी उनमें चिंतन एवं विचार का प्राधान्य है। इनके निबंधों का श्रेणी विभाजन साहित्यिक निबंध ,उद्योग शिल्प ,भूगोल ,इतिहास आदि के रूप में किया जा सकता है।
मौलिक आलोचना के जनक
आलोचना के क्षेत्र में द्विवेदीजी सर्वप्रथम मौलिक आलोचक स्वीकार किये जा सकते हैं। इन्होने आधुनिक आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होने सर्वप्रथम कालिदास की निरंकुशता नामक पुस्तक आलोचनात्मक अध्ययन के रूप में प्रस्तुत की है। इसके पश्चात विक्रमांकदेवचरितचर्चा तथा नैषधचरितचर्चा नामक आलोचनापुस्तकें लिखकर नवीन आलोचना शैली का सूत्रपात किया।
द्विवेदीजी ने विचारात्मक ,आलोचनात्मक ,परिचर्यात्मकं एवं भावात्मक शैली अपनाते हैं। विचारात्मक शैली में गंभीर विषयों की रचना की गयी हैं। आलोचनात्मक शैली में व्यंग्य का निरूपण किया गया है। भावात्मक शैली मार्मिक ,सरस ,प्रवाहपूर्ण एवं कोमलकांत पदावली युक्त है। परिचयात्मक शैली भावों के स्पष्टीकरण के लिए अपनाई गयी है। अतः छोटे छोटे वाक्यों का प्रयोग किया है।
युग प्रतिनिधि
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने आधुनिक साहित्य में महावीरप्रसाद द्विवेदी के विषय में लिखा है - जो कार्य द्विवेदी ने किया ,वह अनुवाद का हो ,काव्य रचना का हो ,आलोचना का हो अथवा भाषा संस्कार का हो या केवल साहित्य प्रतिनिधित्व का ही हो ,स्थायी महत्व का हो या अस्थायी ,हिंदी के युगविशेष के प्रवर्तन एवं निर्माण में सहायक हुआ है।उसका ऐतिहासिक महत्व है। उसी के आधार पर नवीन युग का साहित्य प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। उनकी समस्त कृतियों युग का प्रतिनिधि होने का गौरव रखती है।
Nice 👍 Jo khoz rahe the vo yaha per mil gya
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