keshav das hindi sahitya केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत Hindi sahitya ka itihas keshav kathin kavya ke pret रीतिकाल keshav hridyahin kavi रामचंद्र
केशवदास को कठिन काव्य के प्रेत कहा जाता है
केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कहा है keshav das hindi sahitya केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत क्यों कहा जाता है Hindi sahitya ka itihas keshav kathin kavya ke pret रीतिकाल keshav hridyahin kavi - केशवदास जी कठिन काव्य के प्रेत माने जाते हैं। केशव अलंकारवादी कवि हैं। अतः चमत्कार प्रदर्शन के कारण उनके काव्य में कलापक्ष अधिक मुखर दिखाई पड़ता है। ह्रदय पक्ष का प्रायः अभाव ही लक्षित होता है और न्यूनाधिक है भी तो उस पर अलंकारों का पूर्ण प्रभाव दिखाई पड़ता है। अलंकारप्रियता के कारण ही केशव के काव्य में कृत्रिमता के दर्शन होते हैं। अलंकारों की चकाचौंध के कारण भाव पक्ष के साथ वे स्वयं न्याय नहीं कर पाए हैं। हाँ ,उनका पांडित्य अवश्य ही मुखरित हुआ है। भगवानदीन की स्थापना है कि आचार्यत्व और पांडित्य के फेर में पड़कर केशव ने सरलता का ध्यान नहीं रखा। पिंगल और अलंकारशाश्त्र का विशेष ध्यान रखकर छंद लिखे हैं। श्लेष ,परिसंख्या ,विरोधाभास ,संदेह ,श्लेश्मय उपमा,उत्प्रेक्षा इत्यादि अलंकारों की भरमार से केशव इनके बादशाह तो अवश्य मालूम होते हैं ,पर इसी कारण इनकी कविता सर्वसाधारण के पढ़ने और समझने की वस्तु नहीं रह गयी है ,केवल अच्छे साहित्य मर्मज्ञ ही उसकी कदर कर सकते हैं। छंदों में शीघ्रअति शीघ्र हेर - फेर के कारण रस परिपाक में बड़ी बाधा पड़ती है। इस प्रकार से कहा जा सकता है कि केशव की कविता में रस - परिपाक का अभाव सा है। करुणा या विरह के अवसरों पर केशव कहीं भी पाठक के नेत्रों में आँसू नहीं निकलवा सके। "
इस प्रकार केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहने के पीछे उनके काव्य में संस्कृत शब्दों की बहुलता जो कि उनके संस्कृतमय पारिवारिक जीवन के कारण दरबारी कवि होने कारण चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति अथवा आचार्यत्व था। यही कारण है कि उनके विषय में यह उक्ति प्रचलित हो गयी है कि
कवि कौ देन न चहै विदाई। पूछे केशव की कविताई।।
अतः केशव कठिन काव्य के प्रेत हैं का मूल्यांकन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत करना समाचीन होगा -
क्लिष्ट कल्पनायुक्त वर्णन
केशव की क्लिष्टता की समानता लोग जॉन मिल्टन से किया करते हैं। बडथ्वाल जी का मत मिल्टन से उनकी इतनी और समानता है कि उन्होंने भी प्रकृति का परिचय काव्य परंपरा से पाया है। प्रकृति के दर्शन के उपरान्त एक प्रकृति कवि की भाँती उनका ह्रदय आनंदित नहीं होता है। प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर उनका ह्रदय द्रवित नहीं होता है। उनके ह्रदय का विस्तार नहीं है जो प्रकृति में भी मनुष्य के सुख दुःख के लिए सहानुभूति ढूँढ सकता है। बेर उन्हें भयानक प्रतीत होती है ,वर्षा काली का स्वरुप उपस्थित करती है और उदीयमान अरुणाभ सूर्य कापालिक भरे खप्पर का स्वरुप उपस्थित करता है -
अरुन गात अतिप्रात पद्मिनी-प्राननाथ मय।
मानहु "केसवदास' कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरन सिंदूर पूर कैघौं मंगलघट।
किघौं सुक्र को छत्र मढ्यो मानिकमयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह, किल कापालिक काल को।
यह ललित लाल कैघौं लसत दिग्भामिनि के भाल को।।
स्वाभाविक विरह वेदना से विरक्ति
केशव द्वारा वर्णित राम के विरह वर्णन के प्रसंग का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि वह कोरे चमत्कार का नमूना है और केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहने के लिए बाध्य करता है। निम्नलिखित पंक्तियाँ अवलोकनीय है -
दीरघ दरीन बसे केसोदास केसरी ज्यों ,
केसरी को देखि बनखरी ज्यों कंपत हैं।
बासर की संपत्ति उलूक ज्यों न चितवत ,
चकवा ज्यों चंद चिते चौगुनी चम्पत है।
उपयुक्त प्रसंग में इतनी मार्मिकता भरी है कि किन्तु केशवदास ने अपने पांडित्य प्रदर्शन के चक्कर में पड़कर उसे कठोरता का जामा पहना दिया।
प्रकृति का मनोरम स्थल काठिन्य की प्रतिमूर्ति
पंचवटी के रमणीय वातावरण का चित्रण करते समय केशव की चमत्कारप्रियता के प्रति मोह तो लक्षित होता है ,परन्तु उसमें प्रकृति के मनोरम रूप की झाँकी नहीं मिलती है। प्रकृति की रम्यता तो एकदम नष्ट सी हो गयी है ,उसके स्थान पर मात्र चमत्कार ही दिखाई पड़ता है -
सब जाति फटी दु:ख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटी हूँ घटी जगजीव जतीन को छूटी तटी।
अघ ओघ की बेरी कटी विकटी निकटी प्रकटी गुरु ज्ञान गटी।
चहुँ ओरन नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी वन पंचवटी॥
कविता का सहज रस बौद्धिकता से धूमिल
केशव की कविता में बौद्धिकता के कारण सहज रस दब सा गया है। निम्नलिखित छंद को केशव उत्प्रेक्षा का चमत्कार दिखाने के चक्कर में दुर्बोध बना डाले हैं -
सोभिजै सखि सुदरी जनु दामिनी वपु मंडिकै ।
घन स्याम को जनु सेवहीं जड मेघ-अोधन छडिकै ॥
इक अ ग चर्चित चारु न दन चद्रिका, तजि चद को।
जनु राहु के भय सेवहीं रघुनाथ आनंदकंद को ॥
मुख एक है नत, लोकलोचन लोल लोचन को हरे।
जनु जानकी सँग सोभिजै सुभ लाज देहन को धरे ॥
"तहँ एक फूलन के बिभूखन एक मोतिन के किये ।
जनु छीरसागर देवता तन छीर छीटनि को छिये
उपमाओं की झड़ी
केशव को कठिन काव्य का प्रेत कहने के पीछे एक कारण यह भी है कि उन्होंने अपने काव्य में उपमाओं की झड़ी लगा दी है। अशोक वाटिका में सीता जी के बैठने का एक दृश्य अवलोक्य है -
ग्रसी बुद्धि सी चित्त चिंतामणि मानों। किधो जीव दन्तावली में बखानों।
किधौं घोरी के राहु नारी न लीनी। कलाचंद्र की चारु पीयूष भीनी।
अप्रस्तुत की योजना से काठिन्य
केशव के काव्य में अप्रस्तुतों की योजना के कारण भी क्लिष्टता के दर्शन होते हैं। रावण के हाथ में पड़ी हुई तथा निरीहावस्था में अशोक वाटिका में वन्दिनी सीता के हेतु केशव ने अप्रस्तुतों की जो योजना की है उसमें पर्याप्त दुरुहता उपस्थित हो गयी है -
धूमपुर के निकेत मानों धूमकेतु की ,
शिखा के धूमयोनी मध्य रेखा सुखधाम की।
चित्रका सी पुत्रिका के रूरे बगरुरे माहि ,
शम्बर छडाई लई कामिनी कै काम की।
उपयुक्त पंक्ति में तो इस प्रकार की हृदयहीनता लक्षित होती है कि इसे काव्य की परिधि से निकालने की बात भी सोची जाय तो अनुचित नहीं होगी। केशव के काव्य में सहज आनंद के स्थान पर बुद्धि कसरत करती हुई प्रतीत होती है। पांडित्य प्रदर्शन ,अतिशय बौद्धिकता तथा छंदों का अजायबघर तैयार करने के लोभ से भी उनकी कवित्व शक्ति का ठीक -ठीक अंतर्भाव नहीं हो सका। परिणामतः उनका काव्य दुरूह एवं क्लिष्ट हो गया है।
स्पष्ट है कि केशव की सम्पूर्ण रामचंद्रिका एक दुर्बोध चमत्कारी काव्य है।केशव में सरसता ,सरलता एवं स्वाभाविकता उतनी नहीं ,जितनी की चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति है। यही कारण है कि केशव हिंदी काव्य जगत में कठिन काव्य के प्रेत के नाम से प्रख्यात हैं।
Keshav kathin Kavya ke Pret Hain
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