जहां के खेतों में बनिहारिन स्त्रियां श्रम की खुरपी से संघर्ष की कुदाली से लिख रही होती हैं घास-सोहनी की कविताएं धान रोपनी की कविताएं चाय टुंगनी क
पूर्वोत्तर की बनिहारिन स्त्रियां
जहां के खेतों में बनिहारिन स्त्रियां
श्रम की खुरपी से
संघर्ष की कुदाली से लिख रही होती हैं
घास-सोहनी की कविताएं
धान रोपनी की कविताएं
चाय टुंगनी की कविताएं-
उनका नाम गेहूं कटनी हो जाता है
उनका नाम चाय बागानो हो जाता है
उनका नाम रोटी बेलनी हो जाता है
वकील लड़कियों, ऐसे नाम धरने वालों को
कठघरे में खड़ा किया जाए)
वहां
चिरई-चुरूँगों का देश
अक्सर
सवाल पूछने लगता है
बाबू साहेब और सरकार और
साहित्य संस्थान से
कि बनिहारिन स्त्रियों की कविताओं पर
क्यों नहीं बहस करते आप?
क्यों क्यों नहीं बात विचार करते आप समाज में?
राज में पंडाल में गद्य पद्य की आवाज में क्यों नहीं?
जिनकी कविताएं खाद,खेती,पानी, चांदनी और ज़मीनी हक़ीक़त की होकर
इतना अप्रसांगिक क्यों लगती हैं आपको ?
जबकि बनिहारिन स्त्रियां
बिहार बंगाल आसाम से लेकर पूरे पंजाब लाहौर में
सदियों सदियों से प्रसांगिक रही हैं
जिन पर उतनी ही बार बात होनी चाहिए
जितनी बार आप मुंह में कौर डालते हैं
दिन के आरंभ से साल के अंत तक
और यह पृथ्वी घूमती रहे तब तक...
हां तब तक।
हम औरत
ऊब और निराशा की उग ही दूब
मोथे के माथे को काटने से भी आता है उग
एक औरत की कहानी में सबसे अधिक जो आता था पुरुष
वह भी कट गया है
हट गया है उस मिहनत से
उस मौलिक मिहनत से
वह औरत कहा करती है मुझसे दिन रात रट लगाए कहा करती है गोरु माल सब भूखन मर जाएंगे
यदि हम औरत न रहें तो
यदि हम औरत न रहें तो सब भूखन मर जाएंगे
कोई नहीं चाहेगा बंटा दूं उसका हाथ
हाथ बंटाने से ही काम का पल्ला हल्का हो जाता है
जानती हूं साथ कुछ नहीं जाएगा फिर भी करती ही रहती हूं क्या करूं
रोने का जब जी करता है
रो लेती हूं कपिली के तीरे चुपचाप
टटोलकर देखती हूं पृथ्वी
पृथ्वी का मोल अभी भी उतना ही है जितना कि कल था
कल भी रहेगा
रहेंगी यदि मेरे जैसी करनी धरनी।
बाबू इस दुनिया जहान में
औरत ही तो काम करते हुए रहने सहने जीने के लायक बनाती है धरती।
बछिया
हम किस गेहूं के खेत में रोएं
हमारी बहनें पूछती हैं
हम कैसी बछिया हैं
कि जिस खूंटी से बंधी रस्सी तुड़ाकर
भागी थीं
उसे पकड़ने वाला पूरा का पूरा गांव जवार था
हमारी बहनें कहती हैं
हम बांध दी गई फिर
उसी पेड़ के नीचे उसी खुंटी में
हम किस गेहूं के खेत में रोएं
प्यास लगी है किस नदी किनारे पानी पिएं
गुलामी की जंजीरें पहिनकर हम कैसे जिएं
क्या करें हम बेटी
मन अकुताए तो कहां जाएं
बर्तन मांजें खाना बनाएं
गोबर फेंकें बकरी देखें कहां कहां झाड़ू लगाएं कैसा रहने लायक घर बनाएं
या खेती में खटें या मर जाएं हम कैसे दुखड़ा दिल सिएं
हम सबसे कम पर पढ़ लिखकर
कैसे बहुत सारे पैसे कमाएं
कि माई बाप खुश हो जाएं
हम सबसे कम पढ़ लिखकर।
स्त्री,नमक और अग्नि
मैंने देखे हैं ऐसे कई कई दिन
जब रसोई घर में नमक नहीं होता था
मैं पड़ोसियों के यहां से
मांगने जाता था।
पड़ोसी की बनिहारिन स्त्रियां भी
आती थीं
मैं उन्हें डिब्बे में रखे हुए नमक को अपनी मुट्ठी से दे देता था।
मिट्टी के चूल्हे में आग लगाने से पहले ख्याल आता था
कि माचिस नहीं है
कहीं नहीं है
पूरे घर भर में माचिस खोजता फिरता
नहीं मिलती।
जब कोई पड़ोसी स्त्री चूल्हे में आगी धराती थीं
तब जली मुठिया का कोयलादार टुकड़ा
कलछुल में लाता था।
तब,तब चूल्हे में
आग लगाता था
और
और धुआं उठाता था
संध्या के समय।
हां,येही जीवन अब तक का
मैंने जिया था
साथी राहुल की तरह
कई कई मांओं का दुध
पीकर जिया था।
मैं तो आज भी कहता हूं
मेरा हाल आसपास की
स्त्रियों से
पूछ लेना
उन स्त्रियों से पूछ लेना
जिन्हें मेरी
हाड़ मांस की काया होने पर
फिक्र थी।
इतनी सारी औरतें काम के रक्तिम सूरज की
इतने सारे आधा आधा बीघा के हकदार
इतने सारे बनिहार,
क्या अगले दिन के लिए
इनके लिए बची होगी
चौधुरियों के यहां
मजदूरी की पृथ्वी
इतनी
सारी औरतें
काम के रक्तिम सूरज की
इंतजार करती इतनी सारी औरतें
क्या कोई इन्हें खेतों पर काम देगा
दो किलो पिसान के रेट पर पगार देगा
महज दो किलो हरी सब्जी के कीमत पर कोई इन्हें
खेतों में,चाय के बागानों में जानबूझकर खटवाएगा
हां,खटवाएगा
खटवाएगा
खटवाएगा
यहां का कोई
सैकड़ों बीघा का मालिक- महाल्दार!
मैं देखते रह जाऊंगा यह सब
मैं चालाक चांद हो जाऊंगा
वहां नहीं जाऊंगा
कभी नहीं जाऊंगा वहां
उसके संपत्ति पर
सांप रेंगे
या बिजुरी गिरे
या बांस उगे
पूरे जांगर का जंगल
चुरा ले लेता है वह।
पूरे देश जैसे मानचित्र को माल की तरह
लूट लेता है वह, लूट लेता है
मेरी जनगणना से लेकर
वोटर आईडी आधार कार्ड
दस्तावेज राशन कार्ड
से लेकर मेरी देह के
देश की श्रम-संपत्ति तक।
मैं और मेरी मां
मेरी मां मछली
पकड़ती हैं
और मैं
भूक पर कविताएं लिखता हूं,नदी किनारे।
मेरी मां
मछली पकड़ती हैं
और मैं
बकरियों को चराता हूं।
मेरी मां मछली पकड़ती है और मैं
बंसी,जाल, काठ की नाव
बनाने के बारे में सोचता हूं।
और आप
आप
क्या पकड़ते हैं
मछली
सांप
गोह
कीड़े
नदी
बालू
या मजदूर आदमी?
स्त्री से प्यार
आप नहीं कर सकते एक स्त्री से प्यार
क्योंकि
उसके मस्तक पर जो भी मन का बोझा है
उसे नम्रता से उठाकर
अपने मस्तक पर ढ़ोते,सहते हुए
घर नहीं ला सकते।
मेरी मां मछली पकड़ती है।।
मेरी मां मछली पकड़ती है
मैं नदी के आसपास कुदाल चला रहा होता हूं।
मेरी बहन नदी की तरह जीती है
मैं बहन की आंखों में आजादी की नाव
बहना देखना चाहता हूं
मेरी मां मछली पकड़ती है
उस मछली का नाम बयकरी कहती है
और खुश होती है
मेरे पिता वहीं कहीं होते हैं
कुमड़ा की खेती की तैयारी में
मैं बांस झाड़ियों पर गिलहरियों की उछल-कूद देखता हूं
और पंछियों की कुर्बानियां
मैं मां को देखता हूं
मां नहाने जाती है नदी में
या नदी नहाती है माँ में
मैं नहीं जानता
लेकिन इतना जानता हूं
मेरी मां मछली पकड़ती है
और मैं कुदाल चलाता हूं
मेरी बहन मछली को देखती है पानी में
मेरी मां वो मछली पकड़ लेती है
आती है उबड़ खाबड़ खाईयां चढ़ते हुए
हांफते हुए
हमसे कहती है यह देखो मछली
नदी की जिंदा मछली
माँ सबसे सुरक्षित बोरी में मछली पकड़ते हुए
लाती है
मुझे दिखाती है
जहां सूरज हर रोज विदा होता है
जहां खेतिहर मजदूर कच्चू बोता है।
एक कविता पृथ्वी के लिए
दरबदर ठोकर खा कर विस्थापन की पीड़ा झेलती वह गर्भवती स्त्री!
जिसके पेट से आने वाला कल का बच्चा
किसी दूसरे देश के दूसरे सीमाओं पर जन्म लेगा
(और जन्म भी लेगा मजदूर की तरह है या अनाथ की तरह या मनुष्य की तरह)
और उस मां के शरीर का आधा हिस्सा
इसी देश में रहेगा और आधा उस मुल्क में -
तो क्या आप उस होने वाले बच्चे का प्रमाण पत्र खोजना चाहेंगे
उस औरत का प्रमाण पत्र
जो इस वक्त पूछ रही है चित्कारते हुए कि कोई है कोई मानुष!
यदि नहीं तो आपसे मुझे क्या कहना चाहिए!
यदि नहीं तो
आप कौन होते हैं पूछने वाले कि
इस औरत के पेट में से जो बच्चा जन्म लेगा कल
उसका बाप कौन है
हिंदू है या मुस्लिम है
उसकी मां सिख है या इसाई है
औरत बताओ फिलहाल अभी बांग्लादेशी
हो या पाकिस्तानी हो या असमी।।
मणिपुर की स्त्रियां
उसके शोक में
मणिपुर की स्त्रियां
निर्वस्त्र
होकर
कैंडल मार्च की थीं
क्या वे नंगी प्रोटेस्ट करती सारी की सारी स्त्रियां
सिर्फ मांस की दुकानें थीं
फिर क्या थीं
कि उनकी
मणिपुरी कविताएं
उनकी नंगी कविताएं
विश्व के चेहरों को शर्मिंदा न कर सकीं।
- चन्द्र मोहन
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