विश्व भाषा के रूप में हिंदी का प्रचार-प्रसार विश्व मे हिंदी हिंदी का स्थान hindi hindu hindustan hindi pathsala हिंदी की पहुंच हिंदी की पहचान
हिंदी प्रचार प्रसार से आगे
भारत में भाषा का प्रश्न भयावह रूप से विभाजनकारी है. झगड़ा एक अनेक ‘राष्ट्रों’ वाले देश में, एक भाषा को देश की अकेली राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने के आग्रह से शुरू होता है. ‘राष्ट्रीयता’ का प्रश्न सीधे व्यक्ति अपनी अस्मिता से जोड़ता है और भाषा राष्ट्रीयता और व्यक्ति की विविध आयामी अस्मिता दोनों से गहरे रूप से जुड़ी हुई है. भारत की संविधान-सभा में इस विषय पर गहन मंथन हो चुका था और एक भाषा को सर्वस्वीकृति से देश की राष्ट्रभाषा मानने की असाध्यता सामने आ चुकी थी. इस तथ्य की स्वीकृति-स्वरूप संविधान में किसी भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारा नहीं गया. आज देवनागरी में लिखी गई हिंदी, और अंग्रेज़ी, केंद्रीय सरकार के प्रशासन और न्यायपालिका के कार्य के लिए स्वीकृत दो ऑफ़िशल भाषाएँ हैं. यह उल्लेखनीय है कि संविधान के आठवें शेड्यूल में 22 भाषाएं दर्ज हैं, जिनमें हिंदी है, अंग्रेज़ी नहीं. यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि इस लेख का मंतव्य इस या उस भारतीय भाषा का समर्थन या विरोध करना नहीं है. हमारी चर्चा इस बात पर केंद्रित रहेगी कि हिंदी, अपनी साहित्यिक समृद्धि के बावजूद, वैश्विक स्तर पर अपना सही स्थान बना पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रही है?
लेख में आगे बढ़ने से पहले एक अत्यंत संवेदनशील विषय को स्पर्श करना विषय-निर्वाह के लिए आवश्यक है. यह है: भारत में अंग्रेज़ी का स्थान. लेख में उन सुझावों की चर्चा अनिवार्य होगी जो विश्व में हिंदी की स्वीकार्यता को उस स्तर तक ले जाने में शायद उपयोगी हों, जहाँ आज अंग्रेज़ी है. आज अंग्रेज़ी को विश्व में अपना प्रचार करने की आवश्यकता नहीं है. ऐतिहासिक और परिस्थिति-जन्य कारणों से अंग्रेज़ी आज उस जगह है जहाँ विश्व भर में लोग विविध कारणों से सोत्साह अंग्रेज़ी की ओर स्वयं खिंच रहे हैं. इनमें वे देश शामिल हैं जो कुछ दशक पहले तक अंग्रेजी की ओर से न केवल उदासीन थे, बल्कि उनमें कुछ तो उस के प्रति विद्वेष और अमैत्री के भाव से भरे हुए थे. अंग्रेज़ी-विमर्ष का एक दिलचस्प पहलू यह है कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्यास्त होते ही अंग्रेज़ दुनिया में सिमटते गए पर अंग्रेज़ी पूरी दुनिया पर छाती चली गई.
अंग्रेज़ी के प्रति दृष्टिकोण
अंग्रेज़ी के प्रति दृष्टिकोण का यह अर्थ निकालना सही नहीं होगा कि अपनी भाषाओं के प्रति हमारी निष्ठा में कोई कमी है या हम विदेशी शासन की क्रूरताओं और अन्यायों को भूल चुके हैं. हम स्वतंत्र भारत की हीरक-जयंती (पचहत्तर वर्ष) भी अब मना रहे हैं. इस समय हम यह समझने के लिए बेहतर स्थिति में हैं कि उपनिवेश काल की विरासत में क्या हमें ऐसा कुछ मिला जो हमारे लिए उपयोगी रहा. आज हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, प्रशासन और न्याय पद्धति, शैक्षिक-पद्धति, प्रमुख चिकित्सा पद्धति, आदि अपने वर्तमान रूप में इस विरासत का अंग हैं, (इतिहास की दृष्टि से वैशाली आदि राज्यों में गणराज्य की उद्भावना देखी जा सकती है, पर उनमें और आज के लोकतंत्र में समानता को लेकर हम बहुत आगे तक नहीं जा सकते.) उसी तरह बहुत हद तक हमारी जीवन-शैली, विशेषकर नगरों में, पाश्चात्य-संस्कृति के अनेक पक्षों को अपना बना चुकी है, जैसे हमारा पहनावा, काफ़ी हद तक खान-पान, जयंतियाँ मनाने का तरीक़ा, और शासन तथा अन्य जनकार्यों को निष्पादित करने के तरीक़े (आधुनिक कार्यालय और उनकी कार्य शैली), आदि. क्या आज हम इनमें से किसी को सिर्फ़ इसलिए त्यागना चाहेंगे कि वे विदेशी मूल की हैं? इन्हीं मूल्यवान् चीज़ों में अंग्रेज़ी भी है, जो अंग्रेज़ों की देन होते हुए भी हमारे लिए वैश्वीकरण के युग में, जब विभिन्न समाजों-संस्कृतियों से आए व्यक्तियों का विविध कारणों से परस्पर मिलना जुलना अवश्यंभावी हो गया है, बहुत उपयोगी है. आज अपने ग्रामीण क्षेत्रों में भी किसान , मज़दूर अपने बच्चों को अपनी हैसियत से बाहर की फ़ीस देकर भी अंग्रेज़ी मीडियम से पढ़ाना चाहता है, चाहे स्कूलों में अंग्रज़ी पढ़ा सकने वाले शिक्षक और अन्य सुविधाएं हों या नहीं. विश्व में अंग्रेज़ी की स्वीकार्यता को देखते हुए अब हमें यह स्वीकार कर लेने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि हमारे लिए अंग्रेज़ी विदेशी होते हुए भी पराई नहीं है. आज अंग्रेज़ी से हमारा अंतरंग परिचय हमें अंतरराष्ट्रीय विमर्ष, शिक्षा, अनुसंधान, विनिमय, वित्त, व्यापार सभी क्षेत्रों में एक स्वाभाविक वरीयता देता है.
वैश्विक भाषा के अनिवार्य तत्व
मुख्यत: किसी भाषा को स्वत: स्वीकार्य वैश्विक भाषा बनने के लिए जिन अंगों की ओर ध्यान देना होता है, उनमें प्रमुख ये हैं : पहला, अपने साहित्य और साहित्येतर वाङमय की उत्कृष्टता, साथ ही कला की अन्य विधाओं जैसे नृत्य,नाटक, संगीत, सिनेमा, आदि में वैशिष्ट्य की छाप और सृजनात्मक उच्चता ; दूसरा, पर्यटन-विकास के लिए सुरक्षा के साथ सरल, सुविधाजनक नियम जिनसे विश्व के अन्य भागों के निवासी स्वत: उस भाषा के क्षेत्र की ओर खिच सकें. इसके लिए प्राकृतिक स्थलों एवं मानव-निर्मित स्मारकों, संग्राहलयों, आदि की पर्याप्तसंख्या में उपलब्धि और उनके आकर्षक रख-रखाव की आवश्यकता है; इसके साथ ही अनेक कलाओं जैसे चित्रकला, शिल्पकला, पाक कला आदि में अपना वैशिष्ट्य एवं आकर्षण सहायक होता है ; तीसरा, आर्थिक संपन्नता तथा वाणिज्य एवं व्यापार का उत्कर्ष और तद्विषयक सुविधाएं तथा सरल एवं आकर्षक नियम; चौथा, भाषा में उन सभी कार्यों के डिजिटल स्वरूप में निष्पादन की क्षमता और सुविधाएं जो उदाहरणत: आज अंग्रेज़ी माध्यम से संभव हैं.
यहाँ हमारा प्रतिपाद्य विषय सर्वाग-संपन्न वाङमय एवं हिंदी में डिजिटल माध्यम के प्रयोग तक ही सीमित रहेगा क्यों कि अन्य विषयों ( वित्तीयप्रबंधन-कौशल, व्यापारिक संपन्नता तथा पर्यटन-वृद्धि ) में भारत ऑटोपाइलट मोड (स्वत:चालित अंदाज़) में आ चुका दीखता है.
आज हिदी साहित्य अपनी अनेक विधाओं, विशेषकर कहानी, उपन्यास, कविता में विश्व के श्रेष्ठतम सृजन के समकक्ष है. हमारे यहाँ न मौलिकता की कमी है, न अध्ययनशीलता की, न अनुभव की प्रामाणिकता की, न भावप्रवणता और अनुभूति की प्रखरता की, और न ही चिंतन की तेजस्विता की. तो सृजन की उत्कृष्टता को लेकर समस्या नहीं है. पर प्रतिभा को यथासंभव शीघ्र पहचान कर उसे विश्व–पटल पर सामने लाने की दिशा में संगठित प्रयत्नों की आवश्यकता है. प्रतिभा को यथासंभव शीघ्र ही पहचानना और फिर उसका पोषण आवश्यक है. इसके लिए कल्पनाशीलता एवं आवश्यक संसाधनों की आवश्यकता है ताकि कवि/लेखक को वैसी निर्धनता में साँस न लेनी पड़े जैसी अनेक साहित्यकार अपने जीवन में भोगते आए हैं और अकाल काल-कवलित हो गए हैं-- यहाँ गजानन माधव मुक्तिबोध का ध्यान आता है. ऐसा नहीं है कि अन्य देशों में सभी साहित्यकार धन्नासेठ रहे हों पर हमारी विपन्नता अमानवीय हो सकती है. साहित्यकारों को सहायता की अनेक योजनाएं हैं. क्या उन्हें परिचालित करने वालों को अपने दायित्त्व के प्रति और सचेत किया जा सकता है, जिस से अभाव की समय रहते यथासंभव पूर्ति की जा सके और उद्देश्य की महत्तम प्राप्ति हो सके? इसमें प्रतिभा को समय रहते पहचान पाने की समस्या हमारे यहाँ अधिक दुष्कर लगती है पर तार-सप्तक के प्रयोग से यह आशा तो बँध ही सकती है कि यह कार्य एकदम असाध्य नहीं है. हमारे यहाँ योग्य और पक्षपातरहित चयनकर्ताओं का अभाव तो नहीं हो सकता पर यह भी सच है कि गुण न हिरानो गुण-गाहक हिरानो है.
न्यूनतम भौतिक अभावों की पूर्ति और गुणवत्ता को बढ़ाने से भी अधिक बड़ी आवश्यकता है अपनी साहित्यिक समृद्धि को विश्व के सामने लाने की ताकि वह हिंदी साहित्य की श्रेष्ठता से रू-ब-रू हो सके. हम इसे चाहें या न चाहें, इसके लिए यह अनिवार्य है कि हमारा श्रेष्ठतम साहित्य कम-से-कम उस भाषा में अनुवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाए जो विश्व में अधिकतम पढ़ी-पढ़ाई-समझी जाती हो. आज यह भाषा अंग्रेज़ी है. हमें अपना साहित्यिक वैभव अंग्रेज़ी में विश्व के सामने लाना चाहिए. केवल अनुवाद तक ही सीमित रह जाने से काम नहीं चल पाएगा यह भी आवश्यक है कि हिंदी में प्रकाशित श्रेष्ठतम पुस्तकों की चर्चा विश्व की भाषाओं की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं विचार विमर्ष के डिजिटल माध्यमों में होनी चाहिए, जिस से यहाँ के साहित्य के बारे में विदेशी पाठक अनजान न रहें. यों तो श्रेष्ठता को किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं होती. अगर महात्मा गाँधी को शांति का या लेओ तॉल्सतॉय को साहित्य का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला तो हानि नोबेल पुरस्कार की ही हुई. यह भी सही है कि अब तक दो व्यक्ति स्वेच्छा से नोबेल पुरस्कार लेने के लिए राज़ी नहीं हुए हैं -- ज्याँ-पॉल सार्त्र (साहित्य, 1964) और ल डक थो (शांति, 1973). पर यह भी सही है कि उच्चतम पुरस्कारों का चाहे रचनाकार की दृष्टि में जो स्थान हो, ऐसे पुरस्कारों से, जो विश्व में सर्व-स्वीकृत रूप से उत्कृष्टता के मापदंड माने जाते हैं, न केवल पुरस्कार पाने वाले का अपितु उसके देश और समाज का विश्व में सम्मान बढ़ता है, और उनकी साहित्यिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रतिष्ठा बढ़ती है; रचनाकार और उसके प्रकाशकों के लिए तो यह अत्यंत लाभकारी होता ही है. अपनी सारी कमियों और इन से जुड़े सारे विवादों के बावजूद नोबेल पुरस्कार की विश्व में बहुत प्रतिष्ठा है. इसका सर्वोत्तम उदाहरण यहूदी लोग हैं. विश्व में डेढ़ करोड़ से कम यहूदियों की आबादी है जिनमें लगभग 45% इस्रायल में और 39 प्रतिशत अमेरिका में हैं. आज इस्रायल को विश्व में सामरिक शक्ति की तरह तो देखा ही जाता है, ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में भी उसकी स्पृहणीय प्रतिष्ठा है. अब तक अर्थशास्त्र सहित सारे छ: विषयों में दिए गए नोबेल पुरस्कारों में से लगभग 20 प्रतिशत पुरस्कार यहूदी-वर्ग के हिस्से में आए हैं. विश्व के ज्ञान-भंडार में यह योगदान अप्रतिम है.
विश्व भाषा के रूप में हिंदी का प्रचार-प्रसार |
यह आश्चर्य की बात है कि 1913 में रबीन्द्रनाथ टैगोर को मिले साहित्य के नोबेल पुरस्कार के बाद से आज तक भारत के किसी साहित्यकार को यह पुरस्कार नहीं मिला है. इसमें गुणवत्ता की कमी तो कारण नहीं हो सकती. नोबेल पुरस्कार के लिए यह आवश्यक है कि लेखन अंग्रेज़ी में उपलब्ध हो और पुरस्कृत व्यक्ति जीवित हो (अपवादस्वरूप अभी तक केवल दो नोबेल पुरस्कार मृत्यूपरांत दिए गए हैं – शांति के लिए डाग हैमर्सक्योल्ड को1961 में, और साहित्य के लिए एरिक एक्सेल कार्लफ़ेल्ट को 1931 में). गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर के प्रति पूरी तरह श्रद्धावनत होते हुए भी, इस संयोग को नकारा नहीं जा सकता कि उनकी विश्वव्यापी ख्याति तभी संभव हो सकी, जब उनकी स्वयं-अनूदित कविताओं को पढ़ कर बीसवीं सदी के प्रख्यात आयरिश कवि डब्ल्यू बी येट्स इतने अभिभूत हुए, कि उन्होंने अपनी लिखी भूमिका सहित अंग्रेज़ी में अनूदित काव्य संकलन गीतांजली को पाश्चात्य जगत् के सामने प्रस्तुत किया. यदि रबींद्र-काव्य अंग्रेज़ी में प्रस्तुत न किया गया होता तो नोबेल पुरस्कार भारतीय कवि को मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता. यदि 1913 में गुरुदेव टैगोर को नोबेल मिलने के सौ से अधिक सालों में भारत में साहित्य का नोबेल नही आ पाया तो इसका एक प्रधान कारण यही हो सकता है कि हम भारतीय लेखन में उत्कृष्टता को समय रहते पहचान सकने में असमर्थ रहे हैं और अपनी श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों को विश्वपटल पर विधिवत् प्रस्तुत नहीं कर सके हैं. यह उल्लेखनीय है कि अनेक भारतीय जो मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिख रहे हैं, अनेक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से समादृत हो चुके हैं और नित नए नाम इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं. भारतीय मूल के, ट्रिनिदाद-टोबागो में जन्मे, ब्रिटिश लेखक सर विदिआधर सूरजप्रसाद नाइपॉल बुकर प्राइज़ और नोबेल प्राइज़ दोनों से सम्मानित किए गए थे. भारतीय मूल के सलमान रश्दी की इस समय विश्व के श्रेष्ठतम साहित्यकारों में गिनती है, और वे अपनी असाधारण प्रतिभा और लेखन के कारण अत्यंत प्रशंसित, पुरस्कृत एवं सम्माननीय साहित्यकार और चिंतक हैं.
हिंदी साहित्यिक कृतियों का अनुवाद
यदि विशिष्ट हिंदी साहित्यकारों की कृतियों का समय रहते अंग्रेज़ी अनुवाद विश्व के सामने लाया जा सके तो हिंदी में नोबल पुरस्कार इतनी दूर की चीज़ नहीं रह सकती. गीतांजलिश्री को 2022 के अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार क मिलना इसी बात की पुष्टि करता है. यही बात भारत की अन्य भाषाओं के बारे में कही जा सकती है. खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए हम मिशन ओलिम्पिक फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाएं स्थापित कर चुके हैं, जिसके सुखद परिणाम सामने आए हैं. साहित्य में इस प्रकार ट्रेनिंग या प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं होती पर ‘मिशन नोबेल’ जैसी कोई योजना बनाई जा सकती है, चाहे सरकार के द्वारा या भारतीय ज्ञानपीठ जैसी किसी प्राइवेट संस्था या अनेक संस्थाओं के समवेत प्रयास से, जो भारत में साहित्य के नोबेल के अकाल को दूर कर सकने का प्रयत्न करे. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्वदेशी या प्रवासी भारतीयों के लिए नोबेल पुरस्कार का अकाल नहीं रहा है क्योंकि उन विषयों में किया गया कार्य अंग्रेज़ी में ही मूल रूप से लिखा जाता है और चर्चित होता है. भारतीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य के लिए नियमित रूप से अंग्रेज़ी में अनुवाद की आवश्यकता है ताकि वे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींच सकें और साहित्य में नोबेल तथा इसके समान प्रतिष्ठा वाले अनेक विश्वस्तरीय पुरस्कारों का भारतीय भाषाओं में अकाल न रहे.
भाषा की प्रतिष्ठा के लिए आज केवल साहित्यिक उत्कृष्टता ही काफ़ी नहीं है. विश्वस्तरीय उत्कृष्टता और संपन्नता आज ज्ञान के हर क्षेत्र में होनी चाहिए तभी विश्व का विद्वत्समुदाय भाषा की ओर आकर्षित होता है. यह मौलिकता एवं उत्कृष्टता मानविकी, कला और समाज शास्त्र, गणित, विज्ञान और टैक्नोलॉजी आदि ज्ञान के सभी क्षेत्रों में होनी चाहिए. भारतीय अध्येताओं एवं अनुसंधानकर्ताओं द्वारा अध्ययन के नए क्षेत्रों के द्वार खोले जा सकें तो और भी श्रेयस्कर है. सौभाग्य से इन साहित्येतर विषयों में से अनेक विषयों में भारत का मौलिक अवदान रहा है और उसे विश्व में सम्मान भी मिला है. विश्व को हर विषय में मौलिक अवदान की तलाश है. यह अजीब है कि साहित्येतर विषयों में, जहाँ हमारा मौलिक कार्य हो भी रहा है, वहाँ उसका सर्वप्रथम प्रस्तुतीकरण प्राय: अंग्रेज़ी में ही होता है. भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने पर स्वदेशी विद्वन्मंडली में भी उसे कमतर कर के आंका जाता है. इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि ज्ञान के साहित्येतर क्षेत्र में मौलिक उपलब्धि को हिंदी में अभिव्यक्त कर सकने वाले विद्वान् कम हैं और उसे समझने एवं उसका समीचीन आकलन कर सकने वाले भी कम ही हैं. इसका मूल कारण है हमारी उच्चतर शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी. जिस भाषा में हमारी उच्चतर शिक्षा होती है, मस्तिष्क उसी शब्दावली में सोचने का आदी हो जाता है और अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक सारी अवधारणाएं, मौलिक उद्भावनाएं, वाक्यपद और शब्दावली आदि स्वाभाविक रूप से उसी भाषा में ही दिमाग़ में स्वरूप लेती हैं. इसके अलावा जहाँ यह आवश्यक है कि अनुवाद हिंदी से अग्रेज़ी में हो वहीं यह भी आवश्यक है कि विश्व की अनेक भाषाओं से साहित्य एवं साहित्येतर वाङमय भी नियमित रूप से हिंदी में उपलब्ध होz ताकि हमारे रचनाकारों को विश्व मनीषा की उपलब्धियाँ हिंदी में मिलती रहें.
अनुवाद में एक कठिनाई कॉपीराइट की है. भारतीय भाषाओं से अंग्रेज़ी मे समर्थ अनुवादकर्ताओं का अभाव नहीं है. पर हर समर्थ अनुवादकर्ता कॉपीराइट का प्रबंध नहीं कर पाता. इसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए. यह समस्या तब और बढ़ जाती है जब साहित्येतर विषयों की श्रेष्ठ पुस्तकों का अनुवाद करना होता है क्यों कि उनमें प्राय: विभिन्न स्रोतों से उद्धृत लेखांश, चित्र, फ़ोटो, ग्राफ़ आदि भी होते है जिनमें से प्रत्येक के लिए कॉपीराइट की आवश्यकता होती है. यह अनुवादक के लिए लगभग असंभव सा कार्य है. इस कार्य को सरल और सुलभ बनाया जाना चाहिए. अनेक पत्रिकाओं में लेखों और संपादकीयों में अनुवाद की आवश्यकता पर समय समय पर चिंता व्यक्त की जाती है पर इस से अनुवादकर्ता को बहुत मदद नहीं मिलती.
वाङमय की समृद्धि के लिए हम कुछ और कमियों की ओर भी ध्यान आकर्षित कर सकते हैं. हमें बच्चों को अपनी परंपरा, अपने इतिहास और अपने मिथकों की ओर और अधिक सचेत करना चाहिए. पाश्चात्य देशों में बच्चे अपने सामान्य पाठों और कहानियों के ज़रिये ही अपने ऐतिहासिक-पौराणिक कथाओं और उनके हीरो- हीरोइनों से सहज ही परिचित हो जाते हैं. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन सांस्कृतिक पुराकथाओं को पहुँचाने में दादा-दादी, नाना-नानी की अपूरणीय भूमिका होती थी पर आज कम से कम भारतीय शहरों में तो वे दुर्लभ से ही हो गए हैं और सांस्कृतिक संचरण का एक अद्वितीय स्रोत सूख-सा गया है. यूरोप, अमेरिका आदि विकसित देशों में साहित्य के क्लासिक्स के बच्चों के लिए उपयुक्त, सरल-सुबोध संस्करण आसानी से मिल जाते हैं, शिशुगीतों का मानकीकरण हो गया है और सारी पीढ़ियाँ उन्हीं गीतों/कथाओं को नाचते-गाते, नाटक-प्रस्तुति करते हुए बड़ी होती हैं, जिस से उनकी सांस्कृतिक-राष्ट्रीय पृष्ठभूमि और एकता की भावना अनायास ही सुदृढ़ होती चलती है. बचपन से ही व्यक्ति अपनी साहित्य-परंपरा से, अपने मिथकों, परंपराओं और इतिहास से ख़ासा परिचय प्राप्त कर लेता है. वहाँ अपने साहित्य के प्रमुख चरित्रों के नामों को शब्दकोष में उनके विशेष गुणों के कारण उन गुणों और संदर्भों का बोध कराने वाली संज्ञाओं, क्रियापदों आदि की तरह अपना कर भाषा को समृद्ध बना लिया जाता है, जिस से साहित्य समाज में जीवंत उपस्थिति की तरह बना रहता है. हमारे यहाँ इस तरह के प्रयास कम हैं या नहीं है.
हिंदी की जननी संस्कृत
संस्कृत को हिंदी की जननी का स्थान और गौरव प्राप्त है. हिंदी-भाषी जिनकी संस्कृत में गति अच्छी नहीं है, संस्कृत वाङमय को पढ़ने समझने के लिए लालायित रहते हैं. यद्यपि अनेक ग्रंथ आज इंटरनेट पर अंग्रेज़ी या हिंदी में अर्थ/भावार्थ के साथ मिलते हैं, पर और भी संस्कृत-क्लासिक्स मूल पाठ के साथ हिंदी अनुवाद के साथ उपलब्ध कराए जाने चाहिए, जिस से साहित्य में अपनी जड़ों की समझ गहरी होगी और रचनाकारों की भाषा के प्रति अनुरक्ति एवं उन का भाषा पर अधिकार बढ़ेगा. दुर्भाग्य से हमारे यहाँ दसवीं कक्षा से आगे बढ़ते ही कला या विज्ञान में से एक धारा को चुनने के लिए बच्चों को बाध्य किया जाता है जिस के कारण विभाजित विद्या ही बच्चों के हाथ आती रही है. अब तक कला का विद्यार्थी सामान्यत: विज्ञान की कुछ समझ नहीं रखता था और विज्ञान का विद्यार्थी साहित्य एवं कला-संकाय के विषयों से अपरिचित रहता था इधर हाल ही में शिक्षा में इस अज्ञानवर्धिनी कमी की ओर ध्यान गया है. इसी प्रकार भारतीय भाषाओं में अन्य भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियाँ भी उपलब्ध होनी ही चाहिए. इस से हिंदी के शब्द-भंडार में बड़ी स्वागत योग्य वृद्धि होगी. भारतीय भाषाओं से हिंदी में भारतीय साहित्य उपलब्ध कराने की दिशा में भारतीय साहित्य अकादेमी अच्छा काम कर रही है; नेशनल बुक ट्रस्ट का भी इस दिशा में अच्छा योगदान है. इस कार्य को आगे बढ़ाने की दिशा में और सुनियोजित प्रयत्न अच्छा फल देंगे
विनोद बिहारी लाल |
एक और क्षेत्र है जिस की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए. यह क्षेत्र है हिंदी में विभिन्न प्रकार के कोषों और संग्रहों के अभाव का. अंग्रेज़ी में विविध कोष सरलता से मिल जाते हैं; शब्द कोषों (डिक्शनरीज़) की भरमार है -- लघु छात्रोपयोगी संस्करणों से लेकर बृहत्तम कोष तक. शब्दकोषों में शब्द-व्युत्पत्ति दिए जाने से भाषा की समझ और शब्दों के सही प्रयोग की आदत बढ़ती है. अंग्रेज़ी में अब हर विषय के अपने शब्दकोष हैं. अंग्रेज़ी से अन्य भाषाओं में और अन्य भाषाओं से अंग्रेज़ी में शब्दकोषों की कमी नहीं है. थिसॉरस (पर्यायवाची, या लगभग समानार्थक, शब्दों के कोष ) भी अनेक है. विविध विषयों पर विश्व भर के मनीषियों के विचारों के चुने हुए उद्धरणों के पुस्तकाकार संग्रहों की कोई कमी नहीं है. हिंदी में हम विविध विषयों पर भारतीय/हिंदी मनीषियों की कृतियों से उद्धरणों को ले कर ऐसे सूक्ति-संग्रह प्रकाशित करने की ओर ध्यान दे सकते हैं. प्रचलित कहावतों और मुहावरों के प्रामाणिक कोषों की कमी है, चाहे नितांत अभाव ना भी हो.
भाषा का विकास कंप्यूटर के बिना असंभव
आज बिना कंप्यूटर और इंटरनेट में व्यापक उपयोग किए जाने की क्षमता के कोई भाषा वैश्विक भाषा बनने की सोच भी नहीं सकती. हिंदी ने डिजिटल दुनिया में काफ़ी अच्छी प्रगति की है.2 आज कंप्यूटर के बिना भाषा के विकास की संभावना नहीं है. हिंदी में भी ज्ञान-विज्ञान की समृद्ध परंपरा है जिसको डिजिटल रूप में लाने की दिशा में और हिंदी को कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से विश्व तक पहुँचाने के लिए भी बहुत कार्य हो चुका है और हो रहा है. आज कंप्यूटर और इस परिवार के अनेक उपकरणों जैसे लैपटॉप, टेबलैट, मोबाइल/स्मार्टफ़ोन आदि डिजिटल उपकरणों पर बहुत सारे काम हिंदी में उसी सरलता से किए जा सकते हैं जैसे अंग्रेजी में. अब डेस्कटॉप ऑपरेटिंग सिस्टमों के साथ-साथ मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टम भी व्यापक रूप से उपलब्ध हैं, जो इंडिक यूनीकोड को सहारा देते हैं. अनेक कंप्यूटर ऑफ़िस सुइट भी उपलब्ध हैं. ये तकनीकी विकास हिंदी में कार्य को सरल, सुलभ बनाते हैं. आज कंप्यूटर पर हिंदी केवल टाइप कार्य तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि इंडेक्सिंग, सर्च, मेल-मर्ज, हैडर-फुटर, फुटनोट्स, टिप्पणियाँ, फ़ाइलों को नाम देने आदि अनेक कार्यों के काम आती है. प्रकाशन-उद्योग में तो कंप्यूटरों के उपयोग से क्रांति ही आ गई है. ग्राफिक्स तथा डीटीपी पैकेजों, फोटोशॉप, कोरलड्रॉ तथा इनडिजाइन आदि सारे कार्य कम्प्यूटर और इंटरनेट पर हिन्दी में संभव होने लगे हैं। आज हिंदी में मशीन-अनुवाद, कई भाषाओं से हिंदी में शब्दकोष, वर्तनी की जाँच, फ़ॉन्ट-परिवर्तन, पाठ से वाक् रूपांतरण की दिशा, आदि में भी अच्छी प्रगति हुई है. इंटरनेट पर भी हिदी की अनेक वेबसाइटें और ब्लॉग लोकप्रिय हो रहे हैं, इसी प्रकार, हिंदी में ई-मेल, मैसेजिंग, वार्तालाप (चैट्स) सब की सुविधा है और सब बहुत लोकप्रिय हो रही हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं भी अपने उत्पाद का बाज़ार बढ़ाने में कंप्यूटर का प्रयोग कर रही हैं.
सौभाग्य से साहित्य और वाङमय के अतिरिक्त भारत को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने में भारतीय संस्कृति की प्राचीनता एवं उसका सातत्य तथा भारतीय संस्कृति के तमाम अवयव – धर्म, दर्शन, अध्यात्म, योग, आयुर्वेद, वैचारिक उदारता, सामान्यतया भारतीयों का विश्वसनीय एवं सौम्य आचरण, उन की कार्य-कुशलता और चारित्रिक दृढ़ता की ख्याति, बौद्धिक प्रखरता, कूटनीतिक विश्वसनीयता, कलाएं एवं स्थापत्य, और मनोरंजन की आधुनिक विधाओं, जैसे सिनेमा, की उत्कृष्टता, आदि -- विश्व में भारत को एक अलग पहचान दिलाने और उसे एक विशिष्ट छाप देकर उस की सौम्य-शक्ति (सॉफ़्ट पॉवर) बढ़ाने में कामयाब रहे हैं. इस ओर और भी अधिक ध्यान दिया जा रहा है और विश्व में भारत के प्रति रुचि और आकर्षण निरंतर बढ़ रहे हैं तथा आज भारत की गणना सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, कूटनीतिक, वैज्ञानिक, सभी दृष्टियों से विश्व के महत्त्वपूर्ण देशों में हो रही है. आज सामान्य मौजमस्ती करने वाले पर्यटकों के अतिरिक्त भारत में अधिक गंभीर रुचि लेने वाले पर्यटक भी बड़ी संख्या में देश की ओर आकर्षित हो रहे हैं. नित्यप्रति अधिक विदेशियों को भारत अपनी ओर खींच रहा है और देश की अनेक कमियों -- ग़रीबी, अशिक्षा, बीमारी आदि-- के बावजूद यहाँ आकर सैलानी या अधिक गंभीर उद्देश्य से आया हुआ यात्री निराश नहीं लौटता. भारत की साख बढ़ाने में दो समूहों का बहुत बड़ा योगदान है. एक तो वे लोग जो यहाँ आ पाए हैं, चाहे पर्यटन के लिए या किसी अन्य कारण से, और दूसरे वे भारतीय जो विविध कारणों से यहाँ से दुनिया भर में प्रवास कर गए हैं. ऐसा प्राय: नहीं हुआ है कि यहाँ आकर कोई निराश हुआ हो या प्रवासी भारतीयों ने अपने नए देशों में अपनी प्रिय, गौरवमयी छवि न बनाई हो. आज भारत को अपनी स्वीकार्य छवि को बनाने की आवश्यकता नहीं है और, दो चार अकारण शत्रु बने देशों को छोड़ दें तो, सारे विश्व में भारत के लिए गहरा सद्भाव है. ये सारे लक्षण आश्वस्त करते हैं कि हिंदी विश्व में अपना उचित स्थान शीघ्र ही प्राप्त करने की ओर दृढ़ता से अग्रसर है.
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2.. देखें: फ़ेसबुक पर प्रभात मीडिया क्रिएशंस के श्रीश बेंजवाल शर्मा के ‘ कंप्यूटर की दुनिया मे हंदी का विकास’ शीर्षक से लिखा लेख संदर्भ : https://www.facebook.com/prabhatmediacreations/posts/629993880404205
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- विनोद बिहारी लाल
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