रंग खेलने की परंपरा समूचे समाज को एक स्वरुप में देखने का प्रयोजन है। एक-दूसरे पर रंग डालने का औचित्य यही है कि सभी एक ही रंग में सराबोर होकर समान दिखे
स्त्री जीवन के रंग बस की खिड़की से
उत्तराखंड की कुनकुनी ठंड पार हो गयी है एक नर्म गर्मी और फगुनाहट का अहसास राजस्थान के सीमांत प्रदेश में पहुंचकर देह को प्रफुल्लित कर रहा है।हमने अपने शाल और स्वेटर बस में उतारकर रख लिये हैं।हरे-भरे कीकर के पेड़, सूखे जर्र-जर्र ताल-तलैयों और कुंओं का सिलसिला अनवरत चल रहा है हमारी आंखों की मिल्कियत तक।
मैं बस की ऊंची वाली बर्थ पर बैठी हूं। बहुत सुखद होता है बस या ट्रेन में बैठकर मन की खिड़की से बाहर जीवन और उससे जुड़े रंगों को महसूस करना। सड़क के किनारे दौड़ लगाते खेतों में गेहूं की विस्तीर्ण अधपकी फसल जिसकी आधी हरी और आधी पीली हो गयी गेहूं की बालियों में अभी कच्चा दूध उतरा ही है। मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक है गेहूं को राजस्थान की जमीन पर हरहराते हुए देखना, ज्वार,बाजरा की पैदावार ही वहां होती है ऐसा मैंने सुना है। इक्का- दुक्का पीली सरसों के खेत भी कहीं-कहीं बिखरे चिथड़ों सी फूली हुई है।भटकैय्या और पौपी के सफेद फूलों से प्रतापगढ़ के खेत लहक रहे हैं। बसंत भी ना..! देखो हर पेड़ और पौधों की फुनगीयों पर बेशुमार लकदक है।
खेत-खलिहान की मेड़ पर दहकते पलाश लाल-लाल से मृगछौनों की मानिंद मेरी मन की गति के साथ ही तीव्र-गति से दौड़ रहे हैं। पलाश के पेड़ों का मुसल्लसल कारवां है कि, खत्म ही नहीं हो रहा है।ऐसा महसूस हो रहा है कि मानो यह पलाशी सिलसिला गंतव्य तक पहुंचने पर मुझे गुलाल कर देगा।होली अभी दूर है किंतु पलाश की झांकियां जैसे बसंत की आहट पर होली की फुसफुसाहट और उससे जुड़े जीवन के रंग मेरे गिर्द स्मृतियों का घेरा बनाकर बैठ गये हैं।
बसंत की घनिष्ठ संगिनी है होली।दोनों का साथ ऐसे ही है जैसे जीवन में रंग और रंग में जीवन। बसंत पैर पसारता है संपूर्ण धरा के वक्ष-स्थल पर और होली उसी बसंत की सुगंध को अपने साथ लेकर मानव के हृदय को ऊर्जा प्रदान करता है।
प्रकृति का बसंतमयी होना ईश्वर प्रदत्त है किंतु स्त्री जीवन के रंग उसके सायास या आत्मप्रवृत्त होने का ही प्रतिफल हैं।दरअसल रंगों का असीम संसार है स्त्रियों के पास। रंगों के सरोकार में स्त्री का वजूद और रंगों से उसका नाता तो हमेशा से ही रहा है। एक स्त्री जब घर अपना संवारती है। ड्राइंगरुम में उसकी पसंद के टंगे हुए पर्दे उसके जीवन के रंगों का ही वितान बुनते हैं।
भोजन बनाते हुए हल्दी से रंग जाते हैं उसके कपोल और हथेलियां ।कुमकुम काढने से सुर्ख लाल हो जाती है उसकी मांग।ओसारे में जब वह अल्पना बनाती है रंग ही रंग छिटक जाते हैं उसकी साड़ी के पल्लू में।यही छिटके हुए रंग उसके बाह्य और अंतर्मन के साथ घुल-मिलकर उसके अस्तित्व को एक आकार देते हैं।।यही नहीं ना जाने कितने कल्पनाओं के अनगिनत रंग वह अपनी रंगोली में भर देती है। प्रेम और परवाह के वशीभूत जब वह पति के कपड़ों पर नील चढाती है आत्मतुष्टि से काशनी हो जाती हैं उसकी हथेलियां।
लेकिन स्त्रियों के जीवन के रंग भी अपना स्वरुप बदलते रहते हैं उत्तरोत्तर। कभी थिरकन है उसके जीवन में,कभी संगीत है, कभी स्वर हैं,कभी आलाप हैं,कभी मौन है, कभी शून्य है,कभी शोर है,कभी एकरसता है कभी विकलता कभी आह्लाद है कभी भाव विहलता है इन सभी के मिश्रण का उत्पाद ही तो हैं उसकी ज़िदगी के रंग।
लिखने वाली स्त्रियों की तासीर भी भिन्न होती है वह जीवन से सरोकार रखते वाले बिंबों के अनुभव द्वारा अपनी ही कलम के साथ होली खेल लेती हैं।अनगिनत रंग हैं लिखने वाली स्त्रियों के जीवन में।बैरागी सूरज, आसमां में पिंघलता सोना, धानी हवा,पीली धूप,सिंदूरी क्षितिज ,सैलाब, कल-कल बहती नदी।ऊषाकाल की छटा में ठिठुरता दीपक।विस्तृत नीला आसमान इत्यादि।
उन्मुक्तता के रंग होने चाहिए स्त्री ज़िंदगी में।इस भरे बसंत में ज़िंदगी की रंगीनीयत से दूर होकर की तरह व्यस्त रहना कितना औचित्यपूर्ण है? त्योहारों की हार-मनुहारी में लगा हुआ पुराने समय की स्त्रियों का बीतता जीवन जैसे खिड़की से चाय की चुस्की भरते हुए सांझ का धीमे से अदृश्य हो जाना।समवेत रूप से अदृश्य व सामाजिक बंधन हैं स्त्री के रंगों के साथ घुलने-मिलने में जिन्हें वह धता बताकर स्वयं के प्रयासों द्वारा अपनी रंगीन दुनिया बनाती है। वास्तविकता यही है कि
जहां रंगों का मधुर प्राचुर्य है वहीं रस है जीवन का।स्त्रीयां रंग का ही तो पर्याय हैं। जहां स्त्री अपने संपूर्ण रूआब में हैं वहां रंग भी सुर्ख़रू ही होंगे यह तो तय है।यह स्त्रियों की दिन-रात तनी हुई कमर पर टिका हुआ त्योहारों के दारोमदार का परिणाम ही है कि पकवानों और आतिथ्य की सौंधी महक घर की किचन से होकर बैठक में सुस्ताकर गली मोहल्ले तक भी अदृश्य रूप में पहुंच जाती है।
मैंने तो मां को बचपन में यही सब करते हुए देखा है।देखा क्या है..! पहले तो सभी मांयें ऐसा ही किया करती थी।पेशानी पर मां के चिंता की कोई लकीरें नहीं दिखती थीं तीज-त्योहारों में।हमेशा उन्हें मैंने त्योहारों में खुशियों के गुलाल में सराबोर हुए ही देखा।कोई भी तीज-त्योहार हो वह हमेशा उल्लसित रहती थीं त्योहारों को पुरातन व वास्तविक स्वरुप दिलाने हेतु। संभवत: यही उन्होंने अपनी मां से सीखा होगा।होली हो या कोई भी त्योहार घर में मेहमानों की आमद का तांता लगा रहता और पिताजी आदतन मेहमानों की आवभगत में तत्पर लगे रहने पर ही अति प्रश्नचित्त होते। और मां..! मां तो घर में होकर भी जैसे कहीं दिखाई नहीं देती थीं। दिखाई भी कैसे देतीं? अकेले ही रसोईघर में पकवान बनाने और बैठक तक पहुंचाने का काम जो करती रहतीं। उस समय मुझे मां का किचन में ही घुसा रहना बिलकुल नहीं भाता था।किंतु अब समय भी मेरे साथ परिपक्व हो चला है। त्योहारों की अब पुराने समय जैसी सिफत तो नहीं है किंतु एक सूक्ष्म जमघट तो हो ही जाता है घर में त्योहारों पर, परिणामस्वरूप मुझे भी पूरा रसोईघर संभालना पड़ता है मां की ही तरह। आज मां के व्यक्तित्व के खांचे में स्वयं को सटीक बिठाने का प्रयास जब करती हूं तो कहीं कुछ अड़ जाता है।सही से बिठा नहीं पाती हूं स्वयं को मां की परिपाटी में।किंतु स्त्री और उसके जीवन में रंगों की महत्ता और उनका किरदार भली-भांति जानने लगी हूं और इस निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि स्त्री जीवन समर्पण,संयम और दायित्व के निर्वाह से ही इन्द्रधनुषी बनता है यही उसके जीवन के रंग हैं जिनमें वह हमेशा सराबोर रहना चाहती है।स्त्री के अभाव में घर जैसे रंग-रंगीले जीवन के बिना ज़िंदगी गुजारती हुई दीवारें।
फागुन की दस्तक जैसे ही देहरी पर होती मां ढेर सारे आलू खरीद लेतीं होलियारों को मट्ठे के साथ पकोड़ियां देने के लिए। आलू भी तो सस्ता हो जाता था उन दिनों।कालोनीयों में रहने का एक हासिल यह भी होता है कि विभिन्न शहरों और नगरों से आमदनी-उपार्जन हेतु आये जन-समुह द्वारा उनकी संस्कृति उनके खान-पान और कौशल-कला का आदान-प्रदान हो जाता है।।इसी प्रक्रम में मां ने ठेठ पहाड़ से शहर में आकर भी गुजिया बनाना सीख लिया था।सीख क्या लिया था सिद्धहस्त हो गयी थीं अब वह गुजिया बनाने में।यही नहीं उन्होंने गुजिया बनाना और स्त्रियों को भी सिखाना शुरू कर दिया था जो नयी-नयी गांव से शहर आयी थीं।
गुजिया ही नहीं स्वेटर बुनने और उन पर तरह-तरह के डिजाइन उकेरने में उन्हें मास्टरी हासिल हो गयी थी।यह विभिन्न प्रांतों की संस्कृतियों का आदान-प्रदान, कालोनी में मजमा लगाकर सर्दियों में धूप सेंकने का हासिल था।
जैसै-जैसे होली करीब आती मां की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती।मां और पिताजी फुर्सत निकाल कर किराने की दुकान में जाते और रंग,पिचकारी,सूजी,खोया,नारियल,जलजीरा,चिप्स इत्यादि होली का सामान राशन में एक-साथ ही लाकर रख देते।मां होली से तीन-चार दिन पहले से ही रसोई की सत्ता संजीदा होकर संभाल लेती थीं क्योंकि रात-दिन तलने का काम चल रहा होता तो हमारा रसोईघर में जाना बिल्कुल बंद हो जाता था।
मां की ही सजगता और तत्परता का परिणाम था कि त्योहार निर्विघ्न और हंसी-खुशी गुजर जाता और हमें पता भी नहीं चलता।दरअसल त्योहारों का अपना कोई वजूद नहीं स्त्री के कांधे पर बैठकर ही त्योहार उन्मुक्तता का परिचय देता है।रंगों का जीवन में महत्त्वपूर्ण प्रभाव है यह शरीर को ही आकर्षक नहीं बनाते अपितु ,मन-मस्तिष्क में भी गहरा प्रभाव डालते हैं। प्रकृति और मानव का अपनी-अपनी धूरी पर अपने-अपने उदेश्य के लिए किये गये प्रयास ही रंगों का आमंत्रण हैं स्त्रियां यहां सर्वोच्च शिखर पर हैं।
रंग खेलने की परंपरा समूचे समाज को एक स्वरुप में देखने का प्रयोजन है। एक-दूसरे पर रंग डालने का औचित्य यही है कि सभी एक ही रंग में सराबोर होकर समान दिखें। सभी का समान रुप से सर्वांगीण विकास हो।
स्त्री जीवन के रंग की विथिकाओं से आप सभी को रंग मुबारक।
- सुनीता भट्ट पैन्यूली
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