देवनागरी लिपि का उद्भव और विकास नागरी लिपि का प्रचार प्रसार भारतीय आर्य भाषा लिपि देवनागरी लिपि का नामकरण देवनागरी लिपि का इतिहास संस्कृत से हिंदी
देवनागरी लिपि का उद्भव और विकास
देवनागरी लिपि का उद्भव ८वी और ९वीं शताब्दी के मध्य कुटिल लिपि से हुआ। इस लिपि का उद्भव तो उत्तरी भारत में हुआ ,परन्तु उसके प्राचीनतम नमूनों को प्रस्तुत करने वाले अभिलेख दक्षिण भारत में प्राप्त हुए। इस तथ्य से स्पष्ट है कि देवनागरी लिपि अपने उद्भव काल से ही उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक प्रचलित हो गयी थी। नागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के गुर्जरवंशी राजा जयभद्र तृतीय के दानपत्र में देखने को मिलता है ,तो दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में है। इस पर राजा जयभट के हस्ताक्षर भी नागरी लिपि में ही है। आठवीं शताब्दी में राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने नागरी लिपि का प्रचार किया। राष्ट्रकूट वंश के राजा दन्तिदुर्ग के सामनगढ़ से प्राप्त ७५४ ई. के दानपत्र में नागरी लिपि का ही उपयोग किया गया है। इसके बाद तो राष्ट्रकूट वंश के अनेक राजाओं ने अपने दानपत्रों में नागरी लिपि का प्रयोग किया। इसी प्रकार देवगिरी के यादवों एवं विजयनगर ने राजाओं के दानपत्रों में भी इस लिपि का प्रयोग मिलता है। दक्षिण भारत ने नागरी लिपि नंदिनागरी के नाम से प्रचलित रही तथा उसमें संस्कृत के ग्रंथों का लेखन कार्य निरंतर चलता रहा।महाराष्ट्र में इसी लिपि को बालबोध के नाम से पुकारा जाता है। बालबोध लिपि के कुछ वर्ण अब व्यापक रूप में देवनागरी लिपि के अंग बन गए हैं।
देवनागरी लिपि का इतिहास व प्रचार प्रसार
वास्तव में दक्षिणी भारत की भाँती उत्तर भारत में भी नागरी लिपि का प्रचार प्रसार व्यापक स्तर पर हुआ। ईसा की ८वी शताब्दी के से १८वीं शताब्दी तक देवनागरी लिपि मेवाड़ के गुहेलवंशी ,मारवाड़ के परिहार राजा ,मध्य प्रदेश के हय्वंशी ,राठौर और कल्चुरी नरेशों ,कन्नौज के गाहरवार और गुजरात के सोलंकी राजाओं में अत्यंत लोकप्रिय रही। उत्तर भारत में देवनागरी का सबसे प्राचीन रूप कन्नौज के प्रतिहार वंशी राजा महेन्द्रपाल प्रथम के दिघवा दवौली के ८९८ ई.के दानपत्र में प्राप्त होता है। इसके बाद तो अनेक शिलालेखों और दानपत्रों में देवनागरीलिपि के प्रमाण मिलते हैं। १०वी शताब्दी की उत्तरी भारत की देवनागरीलिपि की कुटिल लिपि का प्रभाव स्पष्ट रूप में परिलक्षित होता है। वास्तव में १०वी शताब्दी की नागरी लिपि के अनेक वर्ण आधुनिक नागरी के वर्णों में बहुत भिन्न थे तथा अनेक वर्ण पुरानी कुटिल लिपि के वर्णों से अधिक साम्य रखते हैं। उदाहरण के लिए ,तत्कालीन देवनागरी लिपि के अ ,आ ,ध ,प ,म ,य ,ष और स की शिरोरेखा कुटिल लिपि के उन चरणों की भाँती दो अंशों में विभाजित थी ,किन्तु ११ वीं शताब्दी में आकर शिरोरेखा के ये दोनों अंश मिलकर एक हो गए। उससे स्पष्ट है कि १०वीं शताब्दी की नागरी लिपि की अपेक्षा ११ वीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी लिपि के कहीं अधिक निकट है तथा १२ वीं शताब्दी में आकर इसने वर्तमान नागरी लिपि का रूप ग्रहण कर लिया। केवल इ और घ में ही कुछ पुरानापन दिखाई पड़ता है। १२ वीं शताब्दी से लेकर अब तक नागरी लिपि प्रायः एक रूप में ही चलती रही।
भारतीय आर्य भाषा लिपि
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक नागरी लिपि दसवीं शताब्दी की प्राचीन नागरी का ही विकसित रूप है। वास्तव में ,इसे वर्तमान रूप १२ वीं शताब्दी में ही प्राप्त होना प्रारंभ हो गया था। भारत में भाषा और लिपि का विकास समानांतर रूप में हुआ है। जिस प्रकार संस्कृत से हिंदी के विकास में प्राकृत और अपभ्रंश के दो प्रमुख सोपान रहे हैं ,उसी प्रकार ब्राह्मी से नागरी के विकास में भी गुप्त लिपि और कुटिल लिपि दो महत्वपूर्ण सोपान रहे हैं , उस तथ्य के आलोक में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय आर्य भाषा और भारतीय आर्य लिपि का विकास साथ साथ समानांतर रूप में हुआ है।
देवनागरी लिपि का नामकरण
देवनागरी लिपि के नामकरण के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख मत प्रस्तुत हैं -
- कुछ विद्वानों का अभिमत है कि नागर ब्राह्मणों से सम्बंधित होने के कारण इस लिपि का नाम नागरी अथवा देवनागरी पड़ा ,किन्तु इस मान्यता की पुष्टि के लिए ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
- अनेक विद्वानों की मान्यता है कि देववाणी संस्कृत इस लिपि में लिखी जाती थी। इसीलिए इसका नाम देवनागरी पड़ा। इस अवधारणा से देव शब्द के औचित्य पर तो कुछ प्रकाश पड़ता है ,किन्तु इससे नागरी शब्द की सार्थकता सिद्ध नहीं होती है।
- एक अन्य मत के अनुसार प्रारंभ में इस लिपि का प्रयोग विशेषतः नगरों में ही प्रचलित था।अतः नगर की लिपि होने के कारण इसका नाम नागरी लिपि पड़ गया। यह मत प्रथम दृष्टि में तो तर्कसम्मत प्रतीत होता है ,किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।
- कई विद्वानों की धारणा है कि प्राचीन काल में काशी को ही देवनगर कहा जाता था। उस समय इसी लिपि का विशेष प्रचलन होने के कारण इस लिपि को देवनागरी कहा जाने लगा ,किन्तु पुष्ट प्रमाणों के अभाव में नामकरण का यह आधार भी संदिग्ध है।
- राधेश्याम शास्त्री का मत है कि देवताओं की मूर्तियाँ बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकेतिक चिन्हों द्वारा होती थी ,जो कई त्रिकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए यंत्र के ,जो देवनागरी कहलाता था ,मध्य में लिखे जाते थे। देवनगर के मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में उन उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगा और देवनगर के मध्य उनका स्थान होने के कारण उनका नाम देवनागरी हुआ। किन्तु इस मत की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
- कुछ विद्वानों ने बौद्धों के ग्रन्थ ललित विस्तार में लिखित नाग लिपि को नागरी से अभिन्न मानकर यह मत प्रकट किया है कि नागलिपि शब्द से ही नागरी लिपि शब्द बना होगा ,किन्तु नागलिपि शब्द से नागरीलिपि शब्द के विकास के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
उपयुक्त मतों पर विचार करने के उपरांत डॉ.धीरेन्द्र वर्मा इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि इस लिपि के लिए देवनागरी या नागरी नाम पड़ने के कारण वास्तव में अनिश्चित है। डॉ.बाबूराम सक्सेना का अभिमत है कि नागरी नाम की व्युत्पत्ति का अभी तक निश्चय नहीं हो सका है।
इस लेख के लिए धन्यवाद। देवनागरी के नाम की उत्पत्ति मेरे लिए हमेशा प्रश्न रही। देवनागरी और हिंदी में हो रहे बदलावों को डॉ. धवन का अनुसंधान सिद्ध करता हैं, जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं : https://zenodo.org/records/13293041
जवाब देंहटाएंइस लेख के लिए धन्यवाद। देवनागरी के नाम की उत्पत्ति मेरे लिए हमेशा प्रश्न रही। देवनागरी और हिंदी में हो रहे बदलावों को डॉ. धवन का अनुसंधान सिद्ध करता है, जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं : https://zenodo.org/records/13293041
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