मेरा प्रथम पुरुष मित्र | हिंदी कहानी

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मेरा प्रथम पुरुष मित्र हिंदी कहानी साहित्य के बड़े-बड़े दिग्गजों का जमावड़ा है, बस कुछ नहीं है तो ये कि आज यहाँ कौतुभ नहीं है, उनकी जगह पर उनकी तस्वीर है

मेरा प्रथम पुरुष मित्र


ब से कला की समझ पैदा हुई अमूमन तब से ही कूची हाथ में पकड़ कैनवास पर अपनी कल्पनाओं को आकार देना मेरी सबसे बड़ी हॉबी बन गया। मुझे लगता कि चित्रकार का कूची से रंग भरना और पेंटिंग को जीवंत बना देना बिलकुल वैसा ही है जैसे कोई कहानीकार किसी कथानक को अपनी संवाद कला से मुकम्मल बना देता है। हाँ! कौतुभ भी तो कहानीकार ही था- कहानियाँ लिखना, उन्हें अमरत्व तक ले जाना उसका शगल था, कहानियाँ लिखते-लिखते  वह उन्हें जीने लगता था, उसकी कहानियाँ मस्तिष्क को इतना उद्वेलित कर देती हैं कि उन्हें पढ़ खुद-ब-खुद कोई नया पोर्ट्रेट बनने लगता, मुझे लगता जैसे उसका कहानी लिखना और मेरा कूची चलाना दोनों ही प्रकृति द्वारा तय था, उसकी कलम और मेरे ब्रश का जैसे कोई पुराना नाता था। वह अपनी कहानियों में प्रेम को जीता, मेरे रंग भी प्रेम को ही उकेरते प्रतीत होते, जब कभी कोई प्रदर्शनी होती, पेंटिंग को चाहने वाले, दार्शनिक उनमें प्रेम को ही व्याख्यायित कर रहे होते, तब मुझे सुनकर अच्छा लगता, कौतुभ भी तो कितनी ही बार मेरी पेंटिंग की प्रदर्शनी में आता, मुझे एक संबल मिलता उसके उपस्थित होने मात्र से।

जब कभी कौतुभ को याद करती हूँ, तब उसके चेहरे की रंगिनीयत, उसके बेतरतीब बिखरे घुँघराले बाल, और उसके सुर्ख गहरे गुलाबी मुस्कान से भरपूर होंठ मेरे जहन में एक आकृति से घूमने लगते हैं और अनायास ही मेरे होंठो पर मुस्कान फ़ेल जाती है, कभी-कभी वह मुस्कान कानों तक को छूने लगती है।

आज फिर उसका चेहरा आँखों के सामने हैं, मानो कल ही की बात है, जब वह मेरे शहर झाँसी आया था। झाँसी यूँ तो कोई बड़ा शहर नहीं है लेकिन साहित्य-प्रेमी इस नगरी में इतने हैं कि महानगर से तुलना करें तो इधर की संख्या कहीं अधिक होगी। झाँसी की चर्चित लेखिका निधि जयसवाल की नयी किताब की रिलीज़ पर कौतुभ मुख्य वक्ता था। कार्यक्रम कक्ष के मंच के ठीक पीछे लगे पोस्टर पर कौतुभ की तस्वीर को देख कोई भी अंदाज नहीं लगा सकता था कि चिरयुवा दिखने वाला शख्स कोई गंभीर चिंतक भी हो सकता है, चित्र से ही उसका आभामंडल किसी को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था, मैंने खुद को किसी भी पूर्वाग्रह से अलग करने की कोशिश की। अभी मंच खाली था, उद्घोषक ने अतिथियों के स्वागत के लिए माइक से घोषणा करनी शुरू की, मेरे हृदय की गति सामान्य से कुछ अधिक थी, शायद आँखें उस शख्स को देखने को लालायित हुई, मैंने खुद को नियंत्रित करने की कोशिश की, मेरे होंठ उस पल बुदबुदाये थे, “दीपशिखा! तुममे तो ये उतावलापन कभी नहीं रहा फिर आज .....?” 

कुछ सोच पाती उससे पहले ही उद्घोषक ने कहा- “हमारे समय के बड़े आलोचक, कथाकार कौतुभ हमारे बीच उपस्थित हैं, हम उनका हृदय की अतल गहराइयों से स्वागत करते हैं।“

सबकी निगाहें कौतुभ को देखने को हाल में घूमने लगी, दायी तरफ की तीसरी पंक्ति से एक सख्श उठा, हाथ में छड़ी लिए, शायद सहारे के लिए छड़ी को लिए हो, एक बारगी मन में आया- “कौन है ये सख्श?” अगले ही पल मन में विचार उठा- “कहीं ये कौतुभ तो नहीं?” मेरा मन एक अजीब सी आशंका से घिर गया, कुछ पल पहले मन में बनी कितनी ही आकृतियाँ ध्वस्त होने लगी। वह मंच की ओर बढ़ रहे थे, मन में विचार आया- “खड़ी होकर उनके पास जाकर उन्हें सहारा दूँ, अगले ही पल खुद के विचार को खुद ही ध्वस्त भी कर दिया- “नहीं, शिखा, इस मुकाम तक पहुँचने वाला व्यक्ति कितना स्वाभिमानी रहा होगा, तुम कैसे उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँचा सकती हो?”

कौतुभ छड़ी के सहारे धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ रहे थे, इतने आदर-सत्कार से शायद उनका मन भी रोमांचित हो, ऐसा मैंने सोचा, अगले ही पल लगा- ऐसे मौके तो उनकी ज़िंदगी में अक्सर आते होंगे। अब वे मंच पर अपनी निर्धारित सीट पर बैठ गए। उनकी बारी आने तक मैं टकटकी लगाए उन्हें देखती रही थी। इस बीच मैंने भी एक रचना पढ़ी थी। कौतुभ ने अपने वक्तव्य में मेरे रचना पाठ का जिक्र करते हुए कहा-“ मंच पर कैसे पढ़ा जाता है ये दीपशिखा से सीखा जाना चाहिए।“ सुनकर मेरी आँखों से आँसू ही टपक गए, आँसू पोछ्ते हुए मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी। इतनी महान शख्सियत से खुद की तारीफ सुन मैं गदगद हुई थी। लगा कि मजाक कर रहे होंगे, लेकिन कोई ऐसे मंच पर भला क्योंकर मज़ाक करेगा और वो भी तब जब कोई औपचारिक परिचय भी न हो। हृदय की धड़कने भी कुछ तेज अवशय ही हुई थी। मैं उनके हर शब्द को ध्यान से सुनती रही थी। कोई मुझसे पूछता तो कह देती- “पूरे कार्यक्रम को एक पलड़े में रखूँ और दूसरे में कौतुभ सर को, दूसरा पलड़ा ही भरी होगा।“

कार्यक्रम खत्म हुआ, कौतुभ मंच से उतरे, एक भीड़ उनके गिर्द जमा हो गयी, औटोग्राफ लेने में लगभग नए लोग थे तो कुछ पुराने से पुराने लेखक भी उन्हें किताबें भेंट कर रहे थे, मेरे कानो में श्बद पड़े- “सर, आप बड़े आलोचक हैं, कुछ मेरी किताब पर भी लिखिएयगा।“ कौतुभ सिर्फ मुस्कुरा रहे थे, उनका सेक्रेटरी किताबें उनके हाथ से पकड़ लेता और डिनर हाल तक जाने के लिए रास्ता बनाने की कोशिश करता।

अगले पल सब डिनर हाल में जमा थे, अब सबका ध्यान खाने पर था, कौतुभ के पास इक्का-दुक्का लोग अभी भी थे, मन मे ख्याल आया- अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जाये, मेरे कदम उनकी तरफ चल दिये।

“सर, कुछ लाऊँ आपके लिए?”-बिना औपचारिक हुए मैंने कहा।

“ओह, दीपशिखा, तुम!”

उनका नाम से सम्बोधन मन के कोर छू गया।

“जी, क्या लेना पसंद करेंगे आप?”

“सेक्रेटरी है साथ में, यूँ तो उसे मेरी चॉइस का अंदाजा है लेकिन अगर आप चाहती ही हैं कुछ खिलना, तो आपकी प्लेट काफी है,इजाजत दो तो इसमें भी खा ही सकते हैं।“

उनका सादगी में बोला वाक्य सुन मुझे महसूस हुआ कि कुछ वेव हैं जिनमें मैं उडी चली जाती हूँ, मैं कुछ सोच पाती या रिप्लाई कर पाती, उन्होने सलाद के दो पीस प्लेट से उठा लिए। बड़े लोग दिल से भी बड़े होते होते हैं, विचारों से भी, यह कथन मुझे सच होता प्रतीत हुआ।

कौतुभ को देख मेरी जुबान तालु से चिपक गयी, कुछ पल मौन रहा, उन्होने चुप्पी को तोड़ा- “दीपशिखा! तुम्हारी आवाज़ में एक खनक है, एक रवानगी है, तुम कुछ अच्छी कहानियाँ रिसाइट कीजिये, किसी बड़े प्लेटफॉर्म के लिए।“

मैं मौन हो गयी थी। उस दिन घर आकर मैंने डायरी में लिखा था- “आज एक कार्यक्रम में एक सख्शियत से मिली, जिसके शब्दों में सम्मोहन था, जिसने मेरे खुद की ज़िंदगी के लिए बनाए मेरे ही नियमों को ध्वस्त कर दिया, जिसकी बातों से मन में एक अजीब सी बेचैनी है। वह शख्स बड़ा अजीब है, बोलता है तो उसका प्रवाह भावुक से भावुक और दृढ़ से दृढ़ इंसान को अपने ही रॉ बहा ले जाए, जो चिराग की तरह दैदीप्यवान है।“ उस दिन घण्टों मैं कौतुभ के बारे में ही सोचती रही थी, मैंने डायरी के एक कोने में लिखा -“मेरे प्रथम पुरुष मित्र”।

संयोग से दो दिन बाद आर्ट गैलरी में मेरी पेंटिंग्स की एग्जीबिशन थी, मैं गेट पर ही कुछ मित्रों के आने का इंतज़ार करते हुए टहल रही थी, किसी स्टिक की ठक-ठक से मैं चौंक उठी- “कौतुभ!”

हाँ ये कौतुभ ही थे, कदम उनकी ओर चल पड़े, उन तक पहुँची भी नहीं थी कि उन्होने ही आवाज लगाई - “दीपशिक्षा! तुम यहाँ, आर्ट गैलरी में?”

“जी, आज मेरी पेंटिंग्स की एग्जीबिशन है, आओ! मैं आपको दिखाती हूँ।“ हम दोनों हॉल की ओर बढ़ गए, मैंने कहा- “आपसे यहाँ दोबारा मुलाक़ात होगी, सोचा भी न था।“

मेरा प्रथम पुरुष मित्र | हिंदी कहानी
कौतुभ पेंटिंग्स को बड़े ध्यान से देख रहे थे, एक पेंटिंग पर जाकर उनकी निगाह थम गयी। कुछ देर ध्यानमग्न से देखते रहे, फिर बोले- “दीप! ये इस पेंटिंग में तुमने जो रंग इस्तेमाल किए हैं, ऐसे ही रंग  लिओनार्दो दा विंची भी इस्तेमाल किया करते थे, मोना लिसा या ला गियोकोंडा बनाते हुए उन्होने ऐसे ही रंगों को इस्तेमाल किया था।“ कहते हुए वे आगे बढ़ गए। एक और पेंटिंग पर आकर फिर रुके, बड़े ध्यान से निरीक्षण करते हुए बोले- “यह जो विचारमग्न स्त्री का चित्रण तुमने किया है, इसकी अत्यन्त हल्की मुस्कान इसे जीवंत करती है, इसकी तुलना पोट्रेट ऑफ मैडम रेकमेयर से की जा सकती है। वह भी संसार की सम्भवत:  प्रसिद्ध पेंटिंग्स में से एक  है, जिसे दृष्य-कला की पर्याय कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस पेंटिंग में जैक्स ने जूलियट को नोकलोसिस फैशन में बैठे हुए दिखाया था, जिसके छोटे बाल पेंटिंग में चार चाँद लगा रहे थे, इस पेंटिंग में भी वैसा ही आकर्षण है, वैसा ही सम्मोहन है। क्रिमज़न लहराते दुपट्टे और साथ में सिएना की जरी की किनारी ने इसे और बेहतरीन बना दिया।“

पेंटिंग बनाते हुए मेरा अपना नजरिया था लेकिन आज कौतुभ के नजरिए से देखा तो महसूस हुआ कि वाकई कोई पेंटिंग तब तक मौन ही रहती है जब तक कि कोई कौतुभ जैसा पारखी उससे रूबरू हो गुफ्तगू न करे। मुझे हैरानी भी हुई कि साहित्य का एक आलोचक पेंटिंग्स पर भी कितनी गहरी समझ रखता है। कौतुभ रंगो के समायोजन, सेड्स, कलर एफ़ेक्ट्स, सब तरह की गहरी समझ रखते हैं, ये मुझे धीरे-धीरे पता चल रहा था।

“रंगों में हमें सम्मोहित करने की अद्भुद क्षमता होती है, स्केच का अपना महत्व है, लेकिन रंग हर आकृति को शब्द देते हैं, रंगो के समायोजन से पेंटिंग्स जीवंत हो उठती है, एक उपन्यास, कहानी, कविता, नज़्म सब कुछ उसमें समाहित होता जाता है, मानो रंग खुद एक-एक हिस्से की व्याख्या कर उठते हों।“

मैं मंत्रमुग्ध हो कौतुभ को सुन रही थी, मुझे लगा मानो चित्रकार मैं नहीं, स्वयं वे हैं जो पेंटिंग की व्याख्या कर रहे हैं, मुझे अहसास हुआ, साहित्य, कला, इतिहास, प्रकृति, कोई विषय भी तो उनसे अछूता नहीं था।

 पेंटिंग्स देखने के बाद हम आर्ट गैलरी के दाहिने ओर बने कैफीटेरिया में आ गए। ग्रिल्ड संडविच और कॉफी के साथ बातचीत का एक और दौर शुरू हुआ।

“उस दिन और फिर आज, अच्छा लगा आपसे मिलकर।“ -मैंने औपचारिकतावश कहा।

“कार्यक्रमो की अच्छी बात होती है नए मित्रों से मिलना और खराब ये कि कम बात हो पाना।“

“जी, अच्छा ही देखें, संचार क्रांति चरम पर है, पूरी दुनिया एक पटल पर सिमट आई है, बातें तो कभी भी कहीं भी हो सकती हैं, उस कार्यक्र्म में आप बहुत अच्छा बोले, मैं हर शब्द को बड़ी तन्मय हो सुन रही थी, गुण रही थी।“

“मेरे शहर के लोगो ने मुझे सुना, स्टेज के बाद मुझे सराहा। अच्छा अनुभव मिला।“

“मेरे पास शब्द नहीं आपकी प्रशंसा में, आपकी निष्पक्षता की तो कायम हूँ ही, लेकिन इधर सब लोगों को मीठे की लत लग गयी, भले ही मधुमेह क्यों न हुई हो, वैसे  मुझे नीम पसंद है।“


“वही समस्या है। इससे साहित्य और आलोचना विधा दोनो का नुकसान है। आपने उस दिन सुना- कैसे कीर्तिसुमन ने मेरी बात के उलट बात कहनी चाही, कि पुस्तकों पर चर्चा में आलोचनात्मक बात न हो, उनकी बातों से मैं रत्तीभर सहमत नहीं हो सकता। आलोचक किसी लेखक को कैफे में ले जाकर तो नहीं कहेगा कि किताब में इन-इन बातों पर विचार करना, सब कुछ अच्छा कहा जायेगा तो दुर्बल पक्ष से नवलेखक कैसे आत्मसात होंगे?”

“निंदक नियरे रखने का माद्दा ही न रह गया, आत्ममुग्धता का युग है।“

“कहानी कविता से अधिक मुश्किल विधा है। मैं अक्सर कहता हूँ- हर घटना कहानी नहीं हो सकती। बतौर आलोचक मैं आलोचना के दायित्व का निर्वहन भी करता हूँ। हमें दूसरो के कारण अपना निज नहीं छोड़ना चाहिए। मैं तो अपने मूल स्वभाव में रहता हूँ।“

कॉफी की गर्माहट और बातों में साम्य ने मुझे कुछ ज्यादा ही रोमांचित कर दिया था। कौतुभ एक पल मेरे चेहरे पर टकटकी लगाए हुए विषयांतर हुए- “हाँ, एक बात है एक फोटो साथ मे होनी चाहिये थी उस दिन यादगार के लिए।“

“कोई नहीं..., ये आखिरी बार तो न था, फिर आ जाइएगा कभी, दिल्ली दूर तो नहीं।“

“अभी गया ही कहाँ हूँ, यहीं तो हूँ- आपके शहर में, अपने शहर में।“- मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, चेहरे पर झेंप को कौतुभ पढ़ पा रहे थे।

“जब-जब आप लोग बुलागयेंगे। मैं चला आऊँगा, अपना मुल्क (शहर) पुकारता है तो कदम खुद-ब-खुद चल पड़ते हैं।“ -कौतुभ ने मेरी गलती को नजरंदाज करते हुए कहा। 

“जी, अवश्य, यूँ भी माटी की पुकार मूक होती है। झाँसी की माटी ने ख़ूब दिया है देश को... स्वतंत्रता सेनानी भी, साहित्यकार भी।“

“और बातों का मिठास भी...।“ -कौतुभ ने मेरा चेहरा निहारा।

“जी, वो तो आपके शब्दों में भरपूर हैं, मानो मिश्री घोलकर चलते हैं आप।“

“आप मेरी आत्मकथा ‘कुछ दर्द कुछ मिठास’ पढ़ें। आपको एक नया फ्लेवर मिलेगा और आप सहज ही जान पाएँगी- इस मिश्री घुले शब्दों के जादूगर की ज़िंदगी में कितनी कड़वाहट है?” -कौतुभ कुछ गम्भीर हो गए थे। उन्होने कॉफी का अंतिम घूंट ऐसे भरा मानो जीवन की सब कड़वाहट एक ही घूंट में नीचे ले जाना चाहते हों।

कौतुभ को जाना था, मैं उन्हें आर्ट गैलरी के बाहर तक छोडने साथ में जाना चाहती थी, उनका सेक्रेटरी हाथ में दो-तीन पैक्ड पेंटिंग्स लिए आ गया था। मैंने औपचारिक अभिवादन कर उन्हें विदा किया।

कौतुभ के व्यक्तित्व का आकर्षण ही था कि उन्हें हर सोशल साइटस पर खोजने लगी, उनके व्यक्तित्व के हर पहलू को जानने की आकांक्षा मन में पल रही थी, फेसबुक, इन्स्टा, सब जगह उन्हें खोजकर पढ़ने की, जानने की, समझने की कोशिश की। इतमीनान हुआ कि जिसे पहले पुरुष मित्र होने का दर्जा दिया, वह उसके बेहद उपयुक्त हैं। अभी इन्स्टा पर कौतुभ की तस्वीरें देख ही रही थी, मोबाइल पर उनका नाम डिस्प्ले हुआ, ये व्हाट्सप मैसेज था-“कल का वार्तालाप अपने आप में कुछ नए साहित्य की दस्तक था।“

“आपको बधाई, हमारा सौभाग्य है कि इतनी नामीगिरामी हस्ती यूँ हौसला बढ़ाए।“

सन्दीप तोमर
“एक चित्रकार के पहले पुरूष मित्र होने का लाभ भी सौभाग्य ही है।“

“जान लेकर रहेंगे... आप भी और मेरी सहेलियाँ भी...।“

“नहीं, लम्बा चलना है, मीलों लम्बा..., जान ले ली तो हत्या का पाप और आरोप दोनों हमारे माथे का कलंक न बन जाएंगे?”

“.....”

“हर पल का आनन्द लेना ही जिंदगी का फ़लसफ़ा हो। कौन क्या करेगा उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। इतनी छोटी सी जिंदगी में लोगों की ही परवाह कर हम अपनी जिंदगी जीना अक्सर भूल जाते हैं। कहाँ, क्या और कितना छूटा इसकी भी क्यों परवाह करना?

“कितना, कहाँ छूटे...?”- मैंने चुटकी ली।

“बात ज़िंदगी का सफ़र कम करने की है, अपना मन पॉकेट में रहता है तो कहीं छूट नहीं पाया। वरना तो बहुत कुछ छूट जाता।“- मालूम हुआ कि कौतुभ हास्य, विनोद में भी निपुण हैं। अब कौतुभ से बातों का सिलसिला आम हो गया। झाँसी से लौटने तक कुल जमा तीन मुलाकातें हुई। उनके बारे में जितना जान पाई उसे शब्दों में कहूँ तो कहना होगा- “आदि, अनादि से अनंत अंत तक तारीखों के भंवर में है..., चल रहे हैं लक्षित, अलक्षित... बस सफ़र में है।“

कौतुभ की छड़ी की ठकठक कभी भी कानों मे गूंज उठती। ऐसा ही उस शाम हुआ था, ये भी एक इत्तेफाक की रात थी, मैं खाना बनाने में व्यस्त थी, खीर बनाते हुए कौतुभ की याद आई, कौतुभ को खीर पसंद है, ऐसा उन्होने कई मर्तबा बताया। पिस्ता डालते हुए याद आया उन्हें पिस्ते के साथ केसर का स्वाद भी चाहिए होता है, मन से एक आवाज आई- “काश! कौतुभ यहाँ होते, उन्हें खीर खिलाती। ख्यालों में खोई थी कि डोरबेल बजी, दरवाजा खोलने गयी तो देखा- कौतुभ ही थे, एकदम वही, मेरे प्रथम पुरुष मित्र, मेरे सखा- कौतुभ। आश्चर्य इतना कि उन्हें अंदर आने तक को न कह पाई, वे ही बोले- “दीप! दरवाजे से हटो तो अंदर आऊँ।“

“मैं दरवाजे से साइड हुई तो वह छड़ी की ठकठक के साथ अंदर कदम रखते हुए बोले-“वाह! केसर की खुशबू! लगता है आज केसर, पिस्ता की खीर बनी है।“ -मैं सोचती रही-“प्रकृति आखिर कैसे-कैसे संयोग करती है, इधर मन से उन्हें याद किया और वो इधर हाजिर?” 

कौतुभ को मैंने मीठे के साथ पानी दिया और उनके नाश्ते की प्लेट सजाने किचेन में चली गयी। नाश्ता करते हुए वे शांत थे, मानों किसी सरोवर का जल हों, जिसमें हवा का झोका ही हलचल कर सकता है। उस पल मेरे पास भी मानो शब्द शब्द न रहे। उन्हें नाश्ता करते देखती रही थी एकटक। कई बार बस एक मौन... एक चुप्पी बहुत कुछ कहने को पर्याप्त होती है। मौन अच्छा है... जीवन के उद्देश्य की ओर ले जाने वाला...।

कौतुभ ने कहा- “दीप! आज ही ट्रेन से वापिस दिल्ली जाना है, चाहता तो था कुछ दिन यहाँ रुकना लेकिन कल एक छोटी सी सर्जरी है, पहले से डॉक्टर से एप्पोइंटमेंट फिक्स है।“

सर्जरी के नाम से थोड़ी घबराहट हुई लेकिन कौतुभ ने बताया- “एक माइनर सा ऑपरेशन है, ये चश्मा बहुत तंग करता था, अब इससे हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा। जाते-जाते वे मेरे हाथ में अपनी आत्मकथा “कुछ दर्द कुछ मिठास” की प्रति दे गए। जाते हुए बोले, जब कभी इस दोस्त की याद आए- इसके पन्ने खोलकर पढ़ लिया करना। लगेगा- मुझसे ही बतिया रही हो।

कौतुभ चले गए, जाते हुए भी उनकी छड़ी की आवाज मेरे कानों में देर तक गूँजती रही थी। मन था कि उनसे कहूँ- “कर दिए हैं, मोह के सब दरवाजे बंद, दिल ने, दु:खों के सिवा देते भी क्या थे!” अगले पल लगा कि अपने दुखों से नहीं बल्कि दोस्ती को सुखों से सींचना होता है।

जाने क्यों कौतुभ के जाने के बाद मेरा मन अजीब से अवसाद में घिरने लगा, रात के करीब ग्यारह बजने को थे। मैं सुबह जल्दी उठने के चलते रोज ही जल्दी सो जाती, आज आँखों से नींद कोसो दूर थी, आँखें बरबस ही गीलेपन का अहसास दे रही थी, मुझे लगा, ज्यादा मोबाइल के प्रयोग से भी ऐसा होता है। मोबाइल को साइलेंट मोड पर करके सोने की कोशिश करने लगी। जाने कब आँख लगी। सुबह उठी तो हर रोज की तरह मोबाइल हाथ में उठाया, देखा- कौतुभ की कई मिस्सड काल्स थी, इधर से कॉल की तो मोबाइल स्विच ऑफ था। मुझे लगा शायद बैटरी खत्म हुई हो। व्हाट्स्सप खोला तो कौतुभ का मैसेज था। पढ़ने से अंदाजा हुआ, ये मैसेज कौतुभ ने नहीं भेजा, किसी और ने लिखा था। पढ़कर मेरी आँखों से आँसू बह निकले।

अस्त-व्यस्त हालत में मैं बिना बालों को कंघा किए, सड़क पर आई। छोटे शहरों में सुबह के वक़्त ऑटो भी कम ही मिलते हैं, जैसे-तैसे एक रिक्शा मिला, मैंने रिक्शे वाले को कहा-“जिला अस्पताल।“ 

रिक्शा जिला अस्पताल पहुँचा तो मैं रिश्ता से उतर पैसे चुकता कर पूछताछ काउंटर पहुँची। कौतुभ को ऑपरेशन थियेटर ले जाया जा चुका था। यहाँ आकर पता चला कि मोबाइल से स्थानीय नंबर देखकर अस्पताल से ही मुझे कॉल और मैसेज किए गए थे। सड़क एक्सिडेंट में कौतुभ को काफी चोट आई थी।

ऑपरेशन थियेटर के बाहर बैठ इंतजार के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था। चित्त एकदम अशांत... मानसिक रूप से खुद को नितंत्रित करना भी जरूरी था, उनकी टाइमलाइन पर उन्हें पढ़ने लगी। उनके फोटोज देखते हुए एक फोटो पर निगाह टिक गयी- ये एक दाढ़ी वाली  फोटो थी, कौतुभ के बाल बेतरतीब बढ़ें और बिखरे थे, उस पर सुंदर औरतों के कमेंट्स भी थे, कौतुभ उसमें बहुत ही मासूम और प्यारे लग रहे हैं। इस प्यारी सी फोटो के साथ दिये कैप्शन पर निगाह गयी- प्रेम की गलियां थी / बहुत संकरी / रास्ता भी मगर था कठिन / यात्री तो न थका / सहयात्री मगर हो लिया वापिस  / बीच रास्ते...

एक एक फोटो के साथ कैप्शन था- रिश्ते यहाँ निभाता कौन है? मेरी अंगुलियाँ लगातार स्क्रीन को स्क्रोल करने लगी। एक फोटो में कौतुभ नेवी ब्लू कलर के कोट में खड़े थे, छड़ी हाथ में लिए, ये पहली फोटो थी, जिसमें उनकी पूरी तस्वीर थी, कैप्शन था- वह किसी विकलांग से प्रेम तो कर सकती हैं लेकिन पति रूप में वह प्रेमी उसे स्वीकार नहीं। पागल ही हैं वे जो कहते हैं- शरीर से विकलांग होना कोई अपराध तो नहीं। पढ़कर मेरा सिर घूम गया। कितना दर्द छुपाकर दुनिया के दर्द मिटाता फिरता है मेरा प्यारा दोस्त, आज वह ऑपरेशन थियेटर में टेबल पर ज़िंदगी और मौत की जंग लड़ रहा है। मुझे उनके साथ हुई बातें याद आ रही थी, मैंने उनसे निजी ज़िंदगी के बारें में पूछा था, उन्होने -लंबी दास्तान है ये... फिर कभी सुनाऊँगा... फुर्सत के पलों में, कहकर टाल दिया था। उनका कहना था- जीवन वह जो निर्बाध बहता है… कह लें, किश्तों में ही  सही लेकिन बहता निर्बाध ही है।

कौतुभ की टाइमलाइन पर एक नोट पर निगाहें टिक ज्ञाई, तारीख वही लिखी थी, जिस दिन पहली बार वे झाँसी आए थे- आज एक कार्यक्रम में बोलना था, वहाँ लंच के समय किसी ने मुझे कहा था कि कैसे विश्व गुरु हैं हम, जहाँ विकलांगो के लिये कोई सुविधा नहीं। दिल मे जगह नहीं, मैंने तब इस विषय पर बात करना उचित नहीं समझा, लेकिन ये सत्य है कि ये जीवन भी एक भंवर ही है जहाँ सब सपने धूमिल होने लगते हैं, इस भंवर से बाहर आना ही होगा... हरेक विकलांग को, खुद को साबित करना होगा, जैसे मैंने किया है, अब मेरे जीवन में कोई भवंर नहीं।, बस अलग-अलग मंजिलें हैं और बढ़ते जाना ही मकसद है। ऐसे जीवन को मैं नीरस समझता हूँ संघर्ष के अभाव में। मुझे लगा कौतुभ की बातों में एक मैगनेट है। लेकिन अध्रुवीय मग्नेटिज़्म। मानों वे एक सर्कुलर मैगनेट हों, महान लेखक जो ठहरे, कोई सामान्य व्यक्ति कहाँ ऐसी गूढ बातें लिख सकता है? 

कौतुभ के साथ बैठकर की गयी बातें एक-एक कर याद आती रही, उन्होने खूब कहानियाँ, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, रेखाचित्र लिखे, उन्हें लगातर बुलंदियों पर जाते देख मैंने एक बार कहा था- कितने कीर्तिमान स्थापित करेंगे...? अगली पीढ़ी के लिए भी कुछ रहने दीजिए।“

“दीप! जानती हो, जो आज लिखा, कल उसे पीढ़ियाँ पढ़ेंगी, पीढ़ियाँ उससे सीखेंगी। वह सब ही तो पीढ़ियों के लिए सहेजा जाएगा।“

“कौतुभ! पहली बार किसी से तर्क में हार स्वीकार करती हूँ।“

“मित्रता हार-जीत से ऊपर की अवधारणा है। फिर वो जीत भी तो जीत नहीं जिसमें किसी मित्र की हार छुपी हो। ऐसी जीत से तो मेरा हारना बेहतर।“ और ये कहकर उन्होने  फिर से मेरा दिल जीत लिया था।

क्या-क्या नहीं याद आया उस पल- एक समय कौतुभ भी झाँसी रहकर गुजर-बसर कर रहे थे, साहित्य का लगाव उन्हें झाँसी से दिल्ली ले गया। उनका कहना था- दिल्ली में एक फायदा है, यहाँ बड़े रचनाकारों से मिलना आसान है, अब दिल्ली साहित्य का केंद्र है, जो कभी इलाहबाद था, वह सब अब दिल्ली है, कह सकते हैं- दिल्ली अब इलाहबाद हुआ जाता है। कौतुभ ने एक बार बोला था- “दिल्ली के लेखक बहुत सहज हैं, अब देखो न ये कौतुभ भी तो आसानी से उपलब्ध है।“

कितना कुछ सीखा था मैंने कौतुभ से, वे न होते, उनकी मुलाकातें न होती तो पेंटिंग्स के साथ-साथ मेरा साहित्य में पदार्पण न होता। मेरी कितनी ही टूटी-फूटी रचनाएँ उन्होने सुधारी, जिन्हें बाद में सराहना और प्रतिष्ठा दोनों मिली। मैं जब कभी आभार व्यक्त करती तो वे कहते-“शब्द वहीं हैं, बस कीमियागिरी की है थोड़ी सी, शब्दानुक्रम ही तो बदला है। मुझे लगता- शब्दानुक्रम ही तो कविता है, तब मेरे पास उनकी तारीफ में कहने को कुछ नहीं बचता, मानो सब शब्द बौने हो जाते।  उनके बारें में जब भी सोचती शब्द कुछ इस तरह बनते-

शांत, प्रशांत पोखर में

फेंक पत्थर

चुप हो देखना हलचल

हो तुम्हारे लिए

बालसुलभ क्रीड़ा कोई, 

शांति भंग हुई है पोखर की

दर्ज होगा यह अपराध भी

अपराध की श्रेणी में

शांति को पढ़िए और शीतल रहिए...। कौतुभ तब इतना भर कहते- “मेरी सखी की कलम में कहीं गहरे शब्द क्रीडारत हैं।“

मैं खुद के जीवन और कौतुभ के साथ अंतरंगता को देखती तो कई बार सिहर जाती, दिमाग कहता -“एक ही मन है मेरे  पास!” कौतुभ से जो रिश्ता बन रहा था, उसे किसी नाम, किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता था। वह बस मेरे लिए कौतुभ है, मेरा पहला पुरुष मित्र और शायद अंतिम भी।

मेरी नजरों के सामने एक-एक दृश्य चलचित्र की तरह आ-जा रहा है।

ऑपरेशन थियेटर के सामने बैठे-बैठे मुझसे अब इंतजार करना मुश्किल होने लगा। दरवाजा खुला तो डॉ. बाहर निकले, मैंने पूछा-" क्या हुआ कौतुभ को?"

"देखिये, हमने उनका ऑपरेशन कर दिया है सिर में चोट थी, होश में आने पर ही असल स्थिति पता चलेगी।"-कहकर डॉ अपने केबिन की ओर बढ़ गए।

शुक्र था कि कौतुभ जल्दी भी स्वस्थ हो गए थे, उनके स्वस्थ होने तक उन्हें अपने यहाँ से जाने ही कब दिया मैंने, वे कहते-“ दीप! बोझ बन गया हूँ मैं।“

मैं इतना भर कहती,”भगवान ने मुझे आपके साथ रहने का मौका दिया है, ताकि मैं सीख सकूँ, यह सीख सकूँ कि संघर्ष में जीने वाले कैसे हर मुश्किल को आसान बना लेते हैं।

कौतुभ को उस हादसे से निकलने में जितना वक़्त लगा उनकी तस्वीर बनाने में मुझे भी उतना ही वक़्त लगा। कौतुभ को अस्पताल से अपने घर तक लौटा लाना भी तो कम मुश्किल नहीं था, वह विवाह की अनुमति ही नहीं दे रहे थे, कहते-“दीप! तुम्हें मेरी छड़ी की ठकठक क्योकर पसंद है, जबकि लोग तो इसे भी जीवन का एक कलंक ही समझते हैं।“

अस्सी वर्ष की इस उम्र तक के सफर में कितने बसंत आए, कितने पतझड़ कुछ अंदाज भी नहीं लगा सकती हूँ।

आज फिर साहित्यिक मंच है, साहित्य के बड़े-बड़े दिग्गजों का जमावड़ा है, बस कुछ नहीं है तो ये कि आज यहाँ कौतुभ नहीं है, उनकी जगह पर उनकी तस्वीर है। हवा के झोंकों से उड़ते कौतुभ के बेतरतीब बिखरे घुँघराले बाल उसकी तस्वीर में देखकर लगता है मानों तस्वीर बोल उठेगी, और वह कहेंगे- “हर कहानी एक अनुभव होती है, लेखक पूरे समाज का विश्लेषण करता है, नोट्स लेता है, कुछ मिटाता है, कुछ ऐड करता है, तब जाकर एक रचना जन्म लेती है, पाठक लेखक के टूटने-जुड़ने, गिरने-उठने के उपक्रम से कभी बावस्ता नहीं हो पाता।“-

उद्घोषिका मेरा नाम पुकार रही है, मेरी आँखें नम हैं उतनी ही नम जितनी ऑपरेशन थियेटर के सामने थी। माइक पर मैंने इतना ही कहा-“कौतुभ के जीवन पर सबसे शानदार कृति मेरे कौतुभ, मेरे प्रथम पुरुष मित्र। मेरे जीवन की अनूठी कृति। कौतुभ जितने शानदार लेखक थे, आलोचक थे, उससे कहीं शानदार एक पति, एक पिता थे। काश आज कौतुभ इस नायाब कृति का विमोचन करने के लिए यहाँ खुद उपस्थित होते, लेकिन हाँ, कौतुभ हम सबके बीच न होकर भी यहाँ मौजूद हैं।"

मेरी नजरों के सामने एक-एक दृश्य चलचित्र की तरह आ-जा रहा है। मैंने कहा-“आज मेरा सपना पूरा हुआ, कौतुभ भी तो यही चाहते थे कि उनका प्रेम इतिहास में दर्ज हो, वे हमेशा कहते थे-दीप, इस वैवाहिक जीवन में तुमने मुझे दिया ही दिया है, लिया कुछ भी नहीं, तब मैं कहती- कौतुभ, आप मेरे बच्चों के पिता ही नहीं, मेरे गुरु भी हैं, लिखने का हुनर मैंने आपसे ही सीखा है।“- कहते हुए मेरी निगाहें कौतुभ की तस्वीर पर टिक गयी हैं। मानो वे कह रहे हों-दीप! बधाई हो, इस प्रेम-उपन्यास के लिए।“ अश्रुधारा लुढ़क कर गालों को गीला किए है, उनको रोकने का मन नहीं है। 



सन्दीप तोमर 
जन्म : 7 जून 1975
जन्म स्थान: खतौली, जिला- मुज़फ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम एस सी (गणित), एम ए (समाजशास्त्र, भूगोल), एम फिल (शिक्षाशास्त्र)
सम्प्रति : अध्यापन
साहित्य:
सच के आस पास(कविता संग्रह 2003), शब्दशिल्पी प्रकाशन, मौजपुर, दिल्ली
टुकड़ा टुकड़ा परछाई(कहानी संग्रह 2005), नवोदित प्रकाशन, निहाल बिहार, दिल्ली
शिक्षा और समाज (आलेखों का संग्रह 2010), निहाल पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन, गोकलपुरी, दिल्ली
महक अभी बाकी है (संपादन, कविता संकलन 2016), मुरली प्रकाशन, दिल्ली
थ्री गर्लफ्रेंड्स (उपन्यास 2017), वीएल मिडिया सलूशन, उत्तम नगर, दिल्ली
एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा 2018), निहाल पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन, गोकलपुरी, दिल्ली
यंगर्स लव (कहानी संग्रह 2019), किताबगंज प्रकाशन, गंगानगर, राजस्थान
समय पर दस्तक (लघुकथा संग्रह 2020), इंडिया नेटबुक, नॉएडा
एस फ़ॉर सिद्धि (उपन्यास 2021),  डायमण्ड बुक्स, दिल्ली
कुछ आँसू, कुछ मुस्कानें (यात्रा- अन्तर्यात्रा की स्मृतियों का अनुपम शब्दांकन, 2021) इंडिया नेटबुक, नॉएडा 


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मेरा प्रथम पुरुष मित्र | हिंदी कहानी
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