तुलसी की रामभक्ति की क्या विशेषता है सगुण उपासक रामभक्त तुलसीदास ने भगवान् श्रीराम को अपने इष्टदेव के रूप में स्वीकार किया है राम से बड़ा राम का नाम
तुलसीदास के राम
सगुणउपासक रामभक्त तुलसीदास ने भगवान् श्रीराम को अपने इष्टदेव के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस में प्रभु श्रीराम के मर्यादापुरषोत्तम रूप की प्रतिष्ठता की है। तुलसीदास ने युग धर्म को पहचाना और गुण की आवश्यकतानुसार राम भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया है। वे लोक कल्याण के अभिलाषी थे। वे निर्गुण ,निराकार ब्रह्म की उपासना के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने यह अनुभव किया है कि संसार में ऐसे ईश्वर की आवश्यकता है ,जो दिन दुखियों की आर्त पुकार सुन सके ,उनकी रक्षा हेतु वहाँ पहुँच सके ,अधर्म का विनाश करके धर्म की स्थापना कर सके।
राम से बड़ा राम का नाम
तुलसीदास ने अपनी अधिकाँश कृतियों में श्रीराम के अनुपम गुणों का गान किया है। उनके प्रभु राम शील ,शक्ति एवं सौन्दर्य के भंडार हैं। वे अपना सम्पूर्ण जीवन उन्ही के गुणगान में लगा देना चाहते हैं। उन्होंने अपना प्रभु का चित्रण शील ,शक्ति एवं सौन्दर्य के रूप में किया है। तुलसीदास ने अपने काव्य में प्रभु श्रीराम के अनुपम सौन्दर्य का अनूठा चित्रण किया है। उन्होंने राम के बाल्यकालीन ,किशोरकालीन तथा युगकालीन सौन्दर्य की विभिन्न झाँकियाँ प्रस्तुत की है। प्रभु श्रीराम के सौन्दर्य के विषय में डॉ.सुरेशचन्द्र निर्मल ने लिखा है कि तुलसी के राम अनंत सौन्दर्य संपन्न है। करोड़ों कामदेवों को लज्जित करने वाले उनके असाधारण एवं अनंत रूप सौन्दर्य का अवलोकन कर अबाल वृद्ध वनिता ,सभी विस्मय विमुग्ध हो जाते हैं। उनकी रूप माधुरी का तुलसी पर इतना अधिक प्रभाव है कि अनेकानेक बार उसकी अभिव्यक्ति करते हुए उनको पुनरुक्ति का भी मान नहीं होता है। तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीराम के बाल्यकालीन सौन्दर्य का वर्णन करते हुए लिखा है -
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा।अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना।पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥
नील कंज लोचन भव मोचन।भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए।कुंचित कच मेचक छबि छाए॥
कवि तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीराम के लोकरक्षक रूप की प्रतिष्ठा अपने काव्य में की है। उनके ईष्ट देव राम भक्तों की आर्त पुकार सुनकर उनकी रक्षा हेतु तुरंत वहाँ पहुँचते हैं। किशोरावस्था में ही प्रभु श्रीराम एवं लक्ष्मण विश्वामित्र के यज्ञशाला की रक्षा के लिए राक्षसों से युद्ध किया और ताड़का ,मारीच ,सुबाहु जैसे भंयकर राक्षसों का वध कर यज्ञशाला की रक्षा की है। कवि लिखते हैं -
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम
कवि ने प्रभु श्रीराम को शील संपन्न गुणों से युक्त दर्शाया है। शील ह्रदय की वह स्थायी स्थिति है ,जो सत आचरण की प्रेरणा स्वयं करती है। शीलयुक्त वह व्यवहार ही ज्यादा उपयुक्त होता है ,जो आनंदपूर्वक हर्ष पुलक के साथ हो। मर्यादापुरषोत्तम राम के शीलत्व में तुलसीदास ने यही स्थापित किया है। सुनु सीतापति शील सुभाऊ जैसे पदों में उनके शील स्वभाव का आजीवन निर्वाह किया गया है। बाल्यकाल से ही राम वही करते हैं ,जो लोकहित साधक होता है -
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तुलसीदास ने रामशील ,शक्ति एवं सौन्दर्य के गुणों से युक्त है। उन्होंने अपने विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस में प्रभु राम के चरित्र का विधिवत अंकन किया है। रामचरित्र प्रकृत्या मंगलमय है और प्राणिमात्र के लिए मंगल का विधायक है।
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