तुलसीदास के साहित्य को, ख़ासकर रामचरितमानस को प्रतिबंधित करने की माँग की थी। अभी कल हनुमान जयंती के अवसर पर तथाकथित साधु-संतों ने रामचरितमानस को राष्ट
बेचारे तुलसीदास !
राजनीति की यह कला अनोखी है कि हर चीज़ को विवादास्पद बना दो। यदि कोई चीज़ लोकप्रिय है तो उसके पक्ष या विपक्ष में होकर उसे इतना विवादास्पद बना दो कि उसका अपना मूल्य ओझल हो जाय। तुलसीदास के साथ इन दिनों यही हो रहा है।
कुछ दिन पहले एक सनकी राजनीतिज्ञ ने अपने असंस्कृत होने का परिचय देते हुए तुलसीदास के साहित्य को, ख़ासकर रामचरितमानस को प्रतिबंधित करने की माँग की थी। अभी कल हनुमान जयंती के अवसर पर तथाकथित साधु-संतों ने रामचरितमानस को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की माँग की है।
दोनों माँगें एक जैसी जहालत का परिचय देती हैं।
अपने विरोधियों को तुलसीदास जानते थे। इसलिए मानस के आरंभ में खल वंदना से लेकर ‘काक कहहिं कलि कंठ कठोरा’ तक उन्होंने इन विरोधियों का बारंबार स्मरण किया है। मज़ेदार बात यह है कि तुलसीदास इन साधु-संतों को भी भलीभाँति जानते थे—
नारि मुई घर संपति नासी।
मूड़ मुड़ाय भये संन्यासी ॥
हमारे समाज में अभी तीस-पैंतीस साल पहले तक लोगबाग इन संन्यासियों के पाखंड को खूब पहचानते थे। लेकिन जिस धर्म की राजनीति पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने नसीहत दी थी उसके चलते ऐसा धर्मोन्माद फैला है कि सारे बलात्कारी, स्मगलर, अपराधी अगर राजनीति में नहीं घुस पाते तो आसानी से संन्यासी बन जाते हैं। इन्हें श्रद्धा के अलावा संपन्नता भी मुफ़्त मिलती है। सत्ता का संरक्षण मिलता है सो अलग।
इन अपराधियों में कई तो महामण्डलेश्वर बन जाते हैं। राजनीति ने धर्म में इतनी पैठ बना ली है कि अब दोनों मिलकर काम करने लगे हैं। ऐसे संतों की यह मजाल हो गयी है कि वे लोगों के राजनीतिक फ़ैसलों को प्रभावित करें, उनकी जीवन शैली का नियंत्रण करें और अब साहित्य-संस्कृति के प्रश्नों का भी निर्धारण करें!
तुलसीदास को मैं विश्व के श्रेष्ठतम कवियों में मानता हूँ। उनपर किसी को भी छिछली बात कहकर निकल जाने नहीं देता। लेकिन हमारे पुरखे हैं। पाखंडी राजनीतिक संन्यासियों को यह कहकर बिना प्रतिवाद के निकल जाने की इजाज़त नहीं है कि उनके महान ग्रंथ रामचरितमानस को “राष्ट्रीय काव्य” घोषित किया जाय!
क्यों किया जाय? यदि किया जाना है तो इसका निर्णय साहित्यकार करेंगे। साधु-संत कौन होते हैं यह माँग करने वाले? क्या कोई अखाड़ा परिषद लेखकों से पूछती है कि अमुक व्यक्ति को महामण्डलेश्वर बनाया जाय कि नहीं? अपराधी पृष्ठभूमि के लोग नेता बन जाते हैं और महामण्डलेश्वर भी बन जाते हैं। इसमें साहित्यकारों का कोई दखल नहीं है। यह राजनीति का मामला है या धर्म का मामला है। इन मामलों में साहित्यकारों की कोई आवाज़ नहीं है। न उनकी राय लेने की ज़हमत उठायी जाती है।
तो कृपया आप भी साहित्य में टाँग न अड़ायें। जिस राजनीतिज्ञ को चाकू-पिस्तौल पकड़ने का हुनर मालूम है, घूस लेने के तरीक़े पता हैं, कलम पकड़ने का नहीं, उसे यह निर्णय करने का क्या अधिकार है कि किस रचना को पढ़ाया जाय और किसे प्रतिबंधित किया जाय? जिन संन्यासियों को कर्मकाण्ड पता है, नफ़रत और विद्वेष के स्रोत पता हैं, वे क्या जानें कि साहित्यिक मूल्य क्या होते हैं? तुलसीदास की रामचरितमानस को ही क्यों राष्ट्रीय ग्रंथ बनाया जाय, विनय पत्रिका को क्यों नहीं? कवितावली को क्यों नहीं?
कवितावली में इसी तुलसीदास ने ललकारा था कि—
मेरे जाति-पाँति न चहौं काहू की जाति-पाँति,
कोई मेरे काम को न हौं काहू के काम को।
अथवा,
माँगि के खैबो मसीत को सोइबो,
लेबे को एक न देबे को दोऊ॥
तुलसीदास पर बहस न ख़त्म हुई है न अभी ख़त्म होगी। लेकिन उनके पक्ष-विपक्ष के बहाने अपने कुत्सित उद्देश्य सिद्ध करने वाले बाज नहीं आयेंगे हम साहित्यकारों का कर्तव्य है कि साहित्यिकता की रक्षा के लिए, अपने पुरखों के सम्मान के लिए इन स्वार्थी राजनीतिज्ञों और पाखंडी साधुओं से तार्किक मुक़ाबला करें। इनके आगे झुकने की जगह इन्हें उनकी जगह बताएँ .
- अजय तिवारी
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