Veer Kunwar Singh Biography in Hindi वीर कुंवर सिंह का जीवन परिचय 1857 में वीर कुंवर सिंह की भूमिका वीर कुंवर सिंह की मृत्यु कैसे हुई कुंवर सिंह लेख
वीर कुंवर सिंह का जीवन परिचय
अस्सी वर्ष की अवस्था, जब शरीर लगभग जर्जर और शिथिल होकर कर आध्यात्मिक भावना से प्रेरित होकर अपनी मुक्ति की कामना करता है, एक ऐसे ही अस्सी वर्षीय शरीर की रक्त-धमनियों में देशभक्ति की रक्त-उबाल और शत्रुमर्दन के लिए उनकी हड्डियों में बारूदी शक्ति एकाकार हो रहे थे, जो घायल अवस्था में भी इतने दृढ़ रहे कि स्वयं अपने एक हाथ में तलवार लहराकर अपने दूसरे हाथ को काट कर बहती गंगा में प्रवाहित कर दिया, जो अपने शासित क्षेत्र से एकासी दिनों तक अंग्रेजी सत्ता को निष्कासित किये रहे । वह वृद्ध, परंतु यौवन शक्ति से परिपूर्ण ‘बाबू साहब’ और तेगवा बहादुर’ जैसे आदर सूचक नामों से प्रसिद्ध बिहार के जगदीशपुर के जमींदार रणबांकुरे बाबू वीर कुंवर सिंह थे । उन्होंने अपने वीरोचित कार्यों तथा मातृभूमि के प्रति समर्पण के भाव से सिद्ध कर दिया कि मनुष्य के मन में कार्य की दृढ़ इच्छाशक्ति और उसे साकार स्वरूप प्रदान करने की चाहत के सम्मुख उसकी उम्र और अवस्था कदापि बाधक नहीं बन सकती हैं । जीवन के उस अंतिम पड़ाव में भी उनके त्याग, बलिदान और संघर्ष की भावना आज भी समस्त युवाओं के लिए प्रेरणा श्रोत रहा है ।
रणबांकुरे बाबू वीर कुँवर सिंह ‘प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ (1857) के दौरान अंग्रेजों के प्रबल विरोधी सिपाही, कुशल सेना नायक और समग्र रूप में अपने समय के एक महानायक थे । इस देदीप्यमान वीरता की प्रतिमूर्ति अप्रतिम योद्धा ने 1857 की क्रांति के संघर्ष के दौरान अंग्रेजी सेना को कई लड़ाइयों में धूल भी चटाई थी ।
माँ भारत के रण बांकुरे सुपुत्र बाबू वीर कुँवर सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1777 को बिहार प्रांत के वर्तमान आरा के जगदीशपुर के एक प्रसिद्ध परमार राजपूत जमींदार परिवार में हुआ था । इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह का संबंध प्रसिद्ध परमार राजपूत शासक राजा भोज के वंशजों से था । उनकी माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था । उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह थे, जबकि बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह इसी खानदान के नामी जागीरदार रहे हैं ।
बाबू वीर कुँवर सिंह की शिक्षा-दीक्षा की सारी व्यवस्था घर पर ही कर दी गई थी । लेकिन यह भी सत्य है कि उनका मन पढ़ने-लिखने की अपेक्षा घुड़सवारी करने, कुश्ती लड़ने, तलवारबाजी करने आदि जैसे शौर्य जनित कार्यों में ही अधिक लगा रहता था । शायद समय अपने भावी योद्धा को अपने ही अनुकूल तैयार कर रहा था । कहा जाता है कि एक दिन मुजरा देखने के क्रम में उनकी मुलाकात धरमन बाई से हुई । दोनों की नजरें परस्पर मिलीं, दोनों में प्रेम पनपी और फिर उन्होंने उससे विवाह कर लिया । कालांतर में उन्हें कुँवर दलभजन सिंह नामक एक पुत्र रत्न भी प्राप्त हुआ था, जिसका निधन बाबू कुँवर सिंह के जीवन काल में ही हो गया था । उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के उपरांत सन् 1827 में अपनी रियासत की जमींदारी-प्रबंधन की समस्त जिम्मेवारियाँ सँभाली । उस समय उनकी जमींदारी में शाहबाद जिले के दो परगना और कई तालुकें शामिल थे । बढ़ते कर्ज़ के बहाने अंग्रेज़ों ने ‘राज्य-हड़प नीति’ के अनुसार उनकी रियासत का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया था । अंग्रेजी एजेंट लगान वसूला करता, सरकारी रकम चुकाता और बाकी रकम से रियासत का कर्ज़ किस्तों में उतारा जाता था । जैसा कि कई अन्य देशी रियासतों के साथ हो रहा था ।
बाबू वीर कुंवर सिंह ने कभी भी अपनी उम्र को खुद पर हावी होने न दिया, बल्कि 80 वर्ष की अवस्था में भी अपनी वीरता का प्रदर्शन किसी 30 वर्षीय योद्धा की भाँति ही किया था । उनको ‘बाबू साहब’ और ‘तेगवा बहादुर’ के नाम से भी संबोधित किया जाता था । जब अंग्रेजी सरकार ‘राज्य हड़प नीति’ बना कर भारतीय प्रांतों को हड़पने लगी, तब कई भारतीय शासकों के अंदर अंग्रेजों के विरूद्ध रोष जागने लगा । जिससे मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह की ज्वाला फुट पड़ी, जो क्रमशः जोर पकड़ने लगी । एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, तो वहीं दूसरी तरफ महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएँ अपने तलवार से अपनी अप्रतिम जौहर दिखाला रही थीं । बाबू वीर कुँवर सिंह की सहानुभूति अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह करने वाले देशी शासकों के साथ थी । उनकी पारखी दृष्टि अंग्रेजों के विरूद्ध अवश्यंभावी संघर्ष को बहुत पहले से ही भाँप ली थी । अतः अंग्रेजी सत्ता से अवश्यंभावी संग्राम की तैयारी उन्होंने भी बहुत पहले से ही शुरू कर दी थी ।
समयानुसार बिहार के बूढ़े शेर रणबांकुरे बाबू वीर कुँवर सिंह की रोष भरी दहाड़ के साथ तलवार की चोटों ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए थे । उन्होंने दानापुर और रामगढ़ कैंट के क्रांतिवीर सिपाहियों का नेतृत्व किया और अंग्रेजों के खिलाफ जहाँ-तहाँ धावा बोल दिया । इस दौरान उन्होंने अपने अद्भुत साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य नेतृत्व शक्ति का परिचय देते हुए अंग्रेजी सरकार को भले ही पूर्ण कालिक न सही, परंतु कुछ काल के लिए घुटनों पर ला ही दिया था । इस देशोत्तम कार्य में उनके दोनों भाई हरे कृष्ण और अमर सिंह तथा एक अन्य मैकु सिंह ने भी उनके सेनापतित्व के दायित्व का निर्वाह कर रहे थे ।
1857 में वीर कुंवर सिंह की भूमिका
प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, अर्थात महान क्रांति 10 मई, 1857 को मेरठ शहर से प्रारंभ हुई, जिसकी लपट बहुत ही द्रुतगति से देश के अन्य भागों में फैल गई । बिहार में भी कई स्थानों पर उस महान क्रांति संबंधित लड़ाइयाँ हुईं, जिनमें दानापुर, आरा, जगदीशपुर, रोहतास, गया, भागलपुर आदि प्रमुख रही थी ।
27 जुलाई, 1857 को दानापुर के सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति का बिगुल बजाय दिया । दानापुर की क्रान्तिकारी सेना आरा मुख्यालय की ओर कूच की । बाबू वीर कुंवर सिंह अपने वीर साथियों के साथ उनका साथ दिया और उनको अपना कुशल नेतृत्व देते हुए आरा मुख्यालय पर आक्रमण कर उसपर अपना अधिकार कर लिया । इस अभियान में उन्होंने आरा के जेल को तोड़ कर भारतीय कैदियों को मुक्ति किया तथा अंग्रेजी खजाने पर अपना अधिकार कर लिया । बहुत सारे अंग्रेजों को भी उन्होंने बंदी बना लिया था ।
आरा में बंदी बनाए गए अंग्रेजों को छुड़ाने तथा आरा मुख्यालय पर अपना पुनर अधिकार करने के लिए 29 जुलाई को कैप्टन डूनबर के नेतृत्व में दानापुर से एक विशाल अंग्रेजी सेना भेजी गई । अंग्रेजी सेना सोन नदी को पार की । पर पहले से ही घात लगा कर बैठे बाबू वीर कुँवर सिंह की सेना गोरिल्ला छापामार पद्धति से अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ी और उन्हें बुरी तरह से पराजित कर दी । फिर एक अन्य अंग्रेजी सेना दल को उन्होंने बिहिया के जंगल में ही घेर कर उन पर आक्रमण कर दिया । उनके योग्य नेतृत्व ने अंग्रेजी सेना को थोड़े ही समय में परास्त कर दिया । इस लड़ाई में कैप्टन डूनबर मार गया और 415 अंग्रेजी सैनिकों में से केवल 50 सैनिक ही जिंदा वापस दानापुर भाग पाए थे ।
कैप्टन डूनबर के मारे जाने की सूचना मिलने पर मेजर विसेंट आयर, जो उस समय प्रयाग जा रहा था, लौट गया और बक्सर से विशाल अंग्रेजी सेना के साथ आरा लौटा । 2 अगस्त को ‘बीबीगंज’ के पास बाबू वीर कुँवर सिंह की सेना ने अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया । दोनों सेनाओं में काफी देर तक मुठभेड़ चलती रही । परंतु इस बार बाबू कुँवर सिंह बहुत देर तक न टिक पाए । आरा पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया । तत्पश्चात अंग्रेजी सेना ने जगदीशपुर पर भी आक्रमण कर दिया और 14 अगस्त, 1857 को जगदीशपुर को अपने अधिकार में ले लिया ।
उसके बाद बाबू वीर कुँवर सिंह अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ाई को मजबूत करने के उद्देश्य से अपने 1200 सैनिकों के साथ देशोत्तम महाभियान पर निकल पड़े । वे रोहतास और रीवा पहुँचे । वहाँ के ज़मींदारों को अंग्रेज़ों के विरूद्ध तैयार किये । कानपुर में अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध में भाग लेने के बाद वे बांदा और ग्वालियर होते हुए दिसंबर, 1857 में लखनऊ पहुँचे । वहाँ के राजा शाही वस्त्रों से उन्हें सम्मानित किया और अपने राज्य में आने वाला आजमगढ़ क्षेत्र को उन्हें जागीर स्वरूप भेंट प्रदान किया । फिर वहाँ से 12 फरवरी को वे अयोध्या पहुँचे । इस महाभियान के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को पराजित कर प्रयागराज एवं बनारस पर आक्रमण करते हुए अपने गढ़ जगदीशपुर पर पुन: अपना अधिकार स्थपित करना था । आजमगढ़ की अंग्रेज सेना बाबू वीर कुँवर सिंह की युद्ध कौशल से भयभीत ही रहती थी । 18 मार्च को उन्होंने आजमगढ़ से करीब ‘अतरौली’ नामक स्थान पर अपना डेरा डाला । फिर 23 मार्च 1858 को एक आकस्मिक हामला कर वहाँ का कर्नल मीलपैन के नेतृत्व वाला अंग्रेजी सेना को वहाँ से खदेड़ दिया ।
रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह ने आजमगढ़ को जीत कर वहाँ के सरकारी ख़ज़ाने पर अपना अधिकार कर लिया । तत्पश्चात उन्होंने बनारस, गाजीपुर एवं गोरखपुर, बलिया आदि पर भी अपना अधिकार कर लिया था । भले ही उनकी विजयी गाथा स्थायी नहीं, बल्कि क्षणिक ही रही थी । उनके पराक्रम के बल पर ही तत्कालीन अंग्रेजी कठोर हुकूमत से आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा था ।
ऐसे में अंग्रेजों ने बाबू वीर कुँवर सिंह को बंदी बनाने के लिए कैप्टन मीलमैन को 22 मार्च, 1858 को अंग्रेजी सेना के साथ आजमगढ़ भेजा । परंतु छापामार युद्ध में निपुण बाबू वीर कुंवर सिंह ने उसी पर आक्रमण कर दिया । ऐसे में कैप्टन मीलमैन की मदद के लिए कर्नल डेम्स भी 28 मार्च 1858 को युद्ध भूमि में पहुँच गया । परंतु मीलमैन और डेम्स की संयुक्त सेना को रणबांकुरे बाबू कुँवर कुंवर सिंह की सेना के हाथों पराजित होना पड़ा । इस पराजय से अपमानित लार्ड कैनिंग ने तब जनरल मार्ककेर को बाबू वीर कुँवर सिंह के विरूद्ध भेजा । फिर मार्ककेर की सहायता हेतु जनरल एडवर्ड लगर्ड को भी आजमगढ़ भेजा गया । लेकिन तमसा नदी के तट पर अंग्रेजों की विशाल संयुक्त सेना एक बार फिर बाबू वीर कुँवर सिंह के हाथों पराजित हुई थी ।
एक के बाद एक लगातार हार से घबराई अंग्रेजी सरकार ने तब अपने सेनापति डगलस को बाबू वीर कुँवर सिंह के खिलाप भेजा । ‘नघई’ नामक गाँव के पास डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में परस्पर मुठभेड़ हुई । यहाँ भी अंग्रेजी सेना पराजित हुई । बाबू वीर कुँवर सिंह को केंद्र कर तत्कालीन गवर्नर जनरल की ओर से 12 अप्रेल, 1858 को एक सरकारी विज्ञप्ति प्रकाशित किया गया था, - ‘बाबू कुंवर सिंह को जीवित अवस्था में किसी ब्रिटिश चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करने वाले व्यक्ति को 25 हजार रुपये पुरस्कार दिया जाएगा ।’- यह घोषणा साबित करती है कि अंग्रेज सरकार रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह से कितना डरी हुई थी । वह उन्हें जीवित तो पकड़ना चाहती थी, पर वह असफल ही रही थी ।
21 अप्रेल 1958 की बात है । बाबू वीर कुँवर सिंह अपनी सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट पहुँचे और वहाँ से गंगा नदी को कश्तियों से पार कर रहे थे । लेकिन किसी देशद्रोही की सूचना पर अंग्रेजी सेना सेनापति डगलस के नेतृत्व में पूर्व से घात लगाए बैठी थी । अंग्रेजी सेना बाबू वीर कुंवर सिंह को घेर कर उनपर गोलीबारी करने लगी । उन्होंने भी उनका वीरोंचित मुकाबला किया । कई अंग्रेज सैनिक ढेर हो गए । पर दुर्भाग्यवश एक गोली बाबू वीर कुँवर सिंह की दाहिनी भुजा में लग गई । गोली का जहर क्रमशः पूरे शरीर में फैलने लगा, जो कभी भी उनको निढाल कर सकता था । जबकि उनका प्रण था कि उनका शरीर जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ न लगे ।
ऐसी स्थिति में बाबू वीर कुँवर सिंह ने ज्यादा सोच-विचार न किया । उनके साथी कुछ समझ ही पाते, कि उनके बाएँ हाथ में नंगी तलवार लहराई और अगले ही पल गोली लगी उनकी भुजा उनके शरीर से अलग होकर कश्ती में गिर पड़ी । साथी भौचक ही रह गए । फिर अगले ही क्षण उन्होंने स्वयं ही अपनी कटी हुई भुजा को बहती गंगा को समर्पित कर दिया । इसके बाद भी वह एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे ।
वीर कुंवर सिंह की मृत्यु कैसे हुई
23 अप्रैल को अंग्रेज की 35 वीं पैदल बटालियन सेना के कैप्टन ली ग्रैन्ड के अत्याधुनिक इंफील्ड राइफल और शक्तिशाली तोपों का सामना रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह ने जगदीशपुर में किया और उसे पराजित कर जगदीशपुर के कीले से अंग्रेजों के झंडे को उतार कर किले में प्रवेश किया । यह 23 अप्रैल 1858 की जगदीशपुर की लड़ाई ही उनके जीवन की अंतिम लड़ाई थी । कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह जी ने लिखा है -
“यही कुंवर सिंह की अंतिम विजय थी और यही अंतिम संग्राम ।
आठ महीने लड़ा शत्रु से बिना किए कुछ भी विश्राम ॥
घायल था वह वृद्ध केसरी, थी सब शक्ति हुई बेकाम ।
अधिक नहीं टिक सका और वह वीर चला थककर सुरधाम। ।।“
लेकिन अधिक रक्तश्राव तथा घाव के लगातार गहराते जाने और उससे संबंधित कोई विशेष उपचार न कर पाने के कारण तीन दिन बाद ही अर्थात 26 अप्रैल 1858 को बूढ़े शेर रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह वीरगति को प्राप्त कर अपनी मातृभूमि की गोद में सदा-सदा के लिए सो गए । उनके वीरगति प्राप्ति के बाद भी उनका छोटा भाई अमर सिंह ने अंग्रेजों के विरूद्ध गोरिल्ला लड़ाई जारी रखा और बाद के बहुत दिनों तक जगदीशपुर की आजादी अक्षुण्ण बनी रही थी ।
रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह की वीरता और आत्मत्याग की भावना को देखते हुए तत्कालीन एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा, - “उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी । यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी । अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता ।”
जगदीशपुर के जमींदार रणबांकुरे बाबू कुँवर सिंह एक सच्चे लोकनायक थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आजीवन संघर्ष किया । उनकी वीरता की कहानी आज भी भोजपुरी अंचल के घर-घर में विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों और लोकगीतों में गूँजती ही रहती है । प्रति वर्ष 23 अप्रेल को वीर रण बांकुरे बाबू कुँवर सिंह द्वारा जगदीशपुर के कीले को अंग्रेजों से छुड़ाने के स्मरण में प्रदेश भर में ‘विजयोत्सव’ के रूप में मनाया जाता है । आज (26 अप्रेल) को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी रण बांकुरे बाबू कुँवर सिंह की पुण्यतिथि पर हम उन्हें सर्वोत्तम श्रद्धांजलि अर्पण करते हैं ।
बाबू वीर कुँवर सिंह पुण्यतिथि, 26 अप्रेल, 1858,
- श्रीराम पुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101, (पश्चिम बंगाल)
संपर्क सूत्र – 902366788,
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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