akal aur uske baad kavita ki vyakhya अकाल और उसके बाद कविता की सरल व्याख्या नागार्जुन हिंदी कविता kavita ka bhavarth कविता का सारांश अकाल की दारुण दशा
अकाल और उसके बाद कविता की सरल व्याख्या
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पंक्तियाँ नागार्जुन द्वारा कविता 'अकाल और उसके बाद' से उद्धृत हैं .यह कविता १९५२ में प्रकाशित हुई थी .यह कविता उनके काव्य संग्रह सतरंगे पंखों वाली में संकलित है.
प्रसंग- इस पद्यांश में कवि ने अकाल और उसके बाद के समय की स्थितियों को बड़ी ही सूक्ष्मतापूर्वक उभारते हुए घर में अनाज आने पर घर के मानव सदस्यों को ही नहीं, अपितु कौए, छिपकली, कुतिया और चूहों तक को प्रसन्न होते चित्रित किया है।
व्याख्या- अकाल की दारुण दशा का यथार्थ वर्णन करता हुआ नागार्जुन का कवि ह्रदय कहता है कि कई दिनों तक चूल्हा एक ही दशा में रहकर अपनी हालत पर बिसूरता रहा। जब चूल्हे का उपयोग होता है, उसमें लकड़ी आदि जलाकर उस पर कुछ उबाला - पकाया जाता है तब तो उसकी देखरेख होती है और जब घर में एक भी दाना नहीं है तब चूल्हा जलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। इसीलिए कवि 'चूल्हा रोया' मुहावरे का प्रयोग करता है। अकाल का ही दुष्प्रभाव है कि भोरहरे कहीं जाँत की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। जब घर में अनाज होता था तो जाँत की आवाज़ और जँतसार-गीत की मिलित ध्वनि से एक अपूर्व प्रभावात्मकता की सृष्टि होती थी, पर आज वहाँ उदासी का आलम छाया हुआ है। देख-रेख के अभाव में, प्रयोजनहीनता की दशा के कारण चूल्हे-चक्की और उससे सम्बन्धित क्षेत्र पर अलसायी कानी कुतिया का कब्जा बना रहा।
इसका कारण यह है कि जब तो चूल्हे-चक्की का प्रयोग होता था, उनकी स्वच्छता-सफाई का ध्यान रखा जाता था, पर अब अकाल की मार से पीड़ित - चाहे वहाँ कानी कुतिया सोये या चूहे-नेवले गश्त लगायें- कोई अन्तर नहीं पड़ता। इतना ही नहीं, दीवार पर लगातार छिपकलियाँ भागदौड़ मचाती रहीं और चूहों की दशा भी अत्यधिक खराब रही। स्वाभाविक ही है कि जब घर में एक भी दाना न हो तो चूहों को ही आहार कहाँ से मयस्सर हो। कुल मिलाकर, भाव यह है कि अकाल की मार से पूरा परिवार, घर-द्वार और पशु-पक्षी सभी पीड़ित रहे।
कवि अकाल के बाद की परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए कहता है- कई दिनों के बाद घर में थोड़ी-सी खाद्य सामग्री आयी। अब उसे पकाने के लिए चूल्हा जलाना लाजिमी हो गया। स्वाभाविक रूप से चूल्हा जलने का प्रतीक-आँगन के ऊपर से उड़ता हुआ धुआँ- कई दिनों के बाद आँखों के सामने मूर्तरूप में अवतरित हुआ। खाने-पीने की थोड़ी-सी सामग्री देखकर घर भर की आँखों में चमक आ गयी। भूख क्या बला है, इसे कोई भूखा बता सकता है। भूख से टूट-टूट कर संघर्ष करने के बाद जब कुछ खाने को मिला तब ही स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता की अनुभूति होती है। परिजन ही नहीं- आस-पास-परिवेश के पशु-पक्षी भी यह सोचकर मुदित है कि कुछ खाने को मिलेगा। कौआ भी अपने पंख खुजलाकर - फैलाकर प्रसन्नता की अभिव्यक्ति कर रहा है।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
(i) कवि ने दो बिम्बों के माध्यम से अकाल और उसके बाद की स्थिति का बड़ा ही प्रभावशाली वर्णन किया है।
(ii) पूरे पद में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
विडियो के रूप में देखें -
Lajawab 🙏🙏🙏🙏
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