भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में भक्ति भावना भारतेन्दु की रचनाओं में भक्ति भारतेंदु हरिश्चंद्र जी वैष्णव धर्म के तन, मन और वचन से प्रबल समर्थक थे जीव
भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में भक्ति भावना
भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में भक्ति भावना भारतेन्दु की रचनाओं में भक्ति - भारतेंदु हरिश्चंद्र जी वैष्णव धर्म के तन, मन और वचन से प्रबल समर्थक थे। उनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि वैष्णव धर्म ही भारतवर्ष की आत्मा के अनुकूल धर्म है, वही यहाँ का वास्तविक धर्म है तथा वही सनातन धर्म है। उसने भारत के जन-मन को प्रभावित करने के अतिरिक्त विदेश के धर्मों को भी गम्भीर रूप से प्रभावित किया है। 'वैष्णवता और भारतवर्ष' शीर्षक निबंध के अन्तर्गत उन्होंने अपनी इस मान्यता को स्पष्टतः व्यक्त किया है, यथा- "वैष्णव मत ही भारतवर्ष का प्रकृत मत है और वह भारत की हड्डी-लहू में मिल गया है। वह दृढ़ भित्ति पर स्थापित है और वह कैसे सार्वजनिक उदार भाव से परिपूर्ण है। "
भारतेन्दु धर्म का मूल तत्त्व प्रेम मानते थे। भारतेन्दु जी को भक्तकवियों से सबसे बड़ी शिक्षा यही मिली थी कि समस्त धर्म, संस्कृति और साहित्य का मूल तत्त्व प्रेम है। प्रेम के बिना सब फीका है। भारतेन्दु के निबन्धों में पारस्परिक ऐक्य, सहयोग, धार्मिक सहिष्णुता, उदारता, जनवादी संस्कृति आदि की जो इतनी सशक्त चर्चा मिलती है, उसके मूल में यह प्रेम का ही स्वर तो है। उनकी वाणी का मूल स्वर प्रेम है। इस प्रेम के आधार पर उन्होंने जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआ-छूत, सामाजिक विषमता आदि का विरोध किया था। उनका देश-प्रेम भी वस्तुतः प्रेम का ही एक अंग था। 'तदीय सर्वस्व' शीर्षक निबन्ध के उपक्रम के अन्तर्गत भारतेन्दु ने लिखा है कि- “निश्चय रखें कि परमेश्वर को पाने का पथ केवल प्रेम है। और बात चाहे धर्म की हों या लोक की, दोनों बेड़ी ही हैं। बिना शुद्ध प्रेम के न लोक है, न परलोक। जिस संसार में परमेश्वर ने उत्पन्न किया है, जिस जाति या कुटुम्ब से तुम्हारा सम्बन्ध है और जिस देश में तुम हो उससे सहज सरल प्रेम करो और अपने परम पूज्य परमात्मा प्रियतम को केवल प्रेम में ढूँढ़ो। बस और कोई साधन नहीं है।"
भारतेन्दु जी वल्लभ-सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे। वल्लभ सम्प्रदायान्तर्गत पुष्टिमार्गी थे। इसकी भक्ति रागानुगा प्रेमलक्षणा भक्ति कही जाती है। वल्लभ-सम्प्रदाय की शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए भारतेन्दु जी ने तदीय समाज की स्थापना की थी। इससे सम्बन्धित बातें उन्होंने अपने लेख 'तदीय सर्वस्व' में लिपिबद्ध की है। उन्होंने धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर प्रचलित बाह्याचारों के प्रति अपना विरोध प्रकट किया है।
भारतेन्दु ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि, “सखा प्यारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के।" इसके अनुसार भारतेन्दु जी उस वैष्णव सम्प्रदाय को स्वीकार करते थे, जिसके अन्तर्गत राधा को ठकुरानी जू माना जाता है। 'चन्द्रावली' नाटिका में इनके इन विचारों की सफल अभिव्यक्ति हुई है। 'चन्द्रावली' नाटिका में हरिश्चन्द्र ने राधा के लिए 'स्वामिनी जू' शब्द का प्रयोग किया है।
'चन्दावली' नाटिका के 'समर्पण' वाले अंश के द्वारा श्रीकृष्ण के प्रति भारतेन्दु का भक्तिभाव प्रकट होता है यथा- "लो तुम्हारी चन्द्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है, इस पुस्तक को भी उन्हीं के बहाने अंगीकार करो। इसमें तुम्हारे प्रेम का वर्णन है, उस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है।"
भारतेन्दु ने वल्लभ-सम्प्रदाय में दीक्षा प्राप्त की थी। 'वल्लभ-सम्प्रदाय' का भक्तिमार्ग पुष्टिमार्ग कहा जाता है, जिसके अनुसार प्रभू की कृपा साधन-साध्य न होकर केवल उसके अनुग्रह पर ही अवलम्बित रहती है। कोई नहीं जानता है कि भगवान् कब और किस पर द्रवीभूत हो जायेंगे। इसी भाव को लक्षित करके भारतेन्दु ने अपना यह प्रसिद्ध पद लिखा था- "हम तो मोल लिये या पर के।" भारतेन्दु को जड़-चेतन, समस्त विश्व कृष्णमय ही दिखायी देता था-
राधा चन्द्रावली-कृष्ण-ब्रज जमुना-गिरिवर मुखहि कहौ री।
जनम-जनम यह कठिन प्रेम-व्रत हरीचन्द इकरस निबहौ री।।
भारतेन्दु ने 'तदीय सर्वस्व' में 'नारदीय-सूत्र' की व्याख्या करते हुए, आनन्दकन्द भगवान् कृष्णचन्द्र के प्रति अपनी अनन्य भक्ति प्रकट करते हुए लिखा है कि, "जीवन का परम फल तुम्हारा अमृतमय प्रेम है, यदि वही नहीं, तो फिर यह क्यों ?"
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