हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा prithviraj raso bisaldev raso raso kavya, raso sahitya prithviraj raso poem raso kavya parampara bisaldev raso k
हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा
हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा prithviraj raso bisaldev raso raso kavya, raso sahitya prithviraj raso poem raso kavya parampara bisaldev raso ke rachnakar raso sahitya ka prichay dalpati vijay krit khumam raso raso sahitya ki viseshta रासो साहित्य आदिकाल में रासो साहित्य रासो काव्यधारा पिंगल भाषा डिंगल भाषा - हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा में वीर रसात्मक एवं प्रशस्ति-मूलक चरित-काव्य आते हैं। सभी रासोग्रन्थ प्रशस्ति-परक एवं वीर-भावों से भरे पड़े हैं; यथा- पृथ्वीराजरासो, खुमान रासो, हम्मीर रासो, बीसलदेव रासो, विजयपाल रासो, परमाल रासो आदि इसी वर्ग में आते हैं। इन सभी रासो काव्यों के विषय में डॉ. नगेन्द्र का मत है कि- “रासो काव्यों को देखने से पता चलता है कि उनके रचयिता जिस राजा के चरित का वर्णन करते थे, उसके उत्तराधिकारी राजागण अपने आश्रित अन्य कवियों से उसमें अपने चरित्र भी सम्मिलित करा देते थे। यही कारण है कि इन ग्रन्थों में मध्य-कालीन राजाओं का भी वर्णन मिलता है तथा भाषा में भी उत्तरवर्ती भाषारूपों की झलक पायी जाती है।"
हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा का वर्णन निम्नलिखित है -
पृथ्वीराज रासो
चन्दवरदायी कृत 'पृथ्वीराज रासो ' हिन्दी का प्रथम विकसनशील जातीय चेतना का महाकाव्य है। इसमें 69 सर्ग हैं और उस समय प्रचलित सभी छन्दों-कवित्त, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा, आर्या, पद्धरि आदि का प्रयोग है। पृथ्वीराज रासो में क्षत्रियों की उत्पत्ति, दिल्ली नरेश अनंगपाल की पुत्री कमला का, अजमेर के सीमेश्वर की पुत्री सुन्दरी का, कन्नौज के राठौर विजयपाल के साथ विवाह, पृथ्वीराज और जयचन्द का द्वेष, संयोगिता हरण, गोरी के आक्रमण, पृथ्वीराज के अनेक विवाह और युद्ध आदि की कथा है।
पृथ्वीराज रासो की तिथियाँ और घटनाओं की ऐतिहासिकता का विवेचन करने पर विद्वानों को इसकी प्रामाणिकता पर संदेह होता है, फिर भी पृथ्वीराज रासो अनेक घटनाओं से सम्पृक्त ग्रंथ है, जिसमें श्रृंगार एवं वीर रस की प्रधानता है। वस्तु-वर्णन की दृष्टि से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। नगरों, वनों, सरोवरों, किलों आदि का इसमें सुन्दर वर्णन मिलता है। युद्ध के वर्णन अत्यन्त सजीव हैं। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में- “विषय- वस्तु, भाव-व्यंजना एवं शैली, तीनों की दृष्टि से यह काव्य अपने आदर्शों, भावों एवं परम्पराओं का ऐसा सरस, कलात्मक इतिहास' कहा जा सकता है, जिसमें सन्-संवतों की अंक गणना भले ही असत्य हो, किन्तु भावनाओं की सूक्ष्म रेखाएँ निश्चित ही न्यायार्थ और सत्य हैं।" निष्कर्षतः, यही कहा जा सकता है कि पृथ्वीराजरासो की तुलना इतिहास से नहीं होनी चाहिए। वह एक चरित-काव्य है, न कि पृथ्वीराज का ऐतिहासिक जीवन-ग्रंथ। साहित्य में नामों-तिथियों का महत्त्व नहीं होता।"
खुमान रासो
शुक्ल जी के अनुसार इसके रचयिता का नाम दलपति विजय है। इस ग्रंथ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें छन्द- संख्या लगभग 5000 है। राजाओं के युद्धों, विवाहों और विलास के भव्य चित्रण किये गये हैं। नायिका-भेद, राजप्रशंसा और षड्-ऋतु का भी सुन्दर चित्रण इसमें हुआ है। ग्रंथ में दोहा, सवैय्या और कवित्त छन्दों का प्रयोग किया गया है। भाषा राजस्थानी हिन्दी है। ग्रंथ में वीररस की प्रधानता है और कवित्व की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यन्त सरल है। यथा-
'पिउ चित्तौड़ न आबिउ, सावण पहिली तीज ।
जोवे बाट रति बिरहिणी, खिंण खिंण अणवै खीज ।।'
बीसलदेव रासो
नरपति नाल्ह का यह ग्रन्थ अपने समकालीन राजा विग्रहराज चतुर्थ 'बीसलदेव' के चरितांश को लेकर लिखा गया है, जिसमें बीसलदेव का राजा भोज परमार की पुत्री राजमती से विवाह, कलह, वियोग और मिलन का रसात्मक वर्णन है। यह शृंगार-प्रधान ग्रन्थ काव्य वीर-हृदय की संवेदनशील, कोमल व सरस भावनाओं का प्रतिबिम्ब है, जिसमें श्रृंगार के वियोग पक्ष का सुन्दर रस-परिपाक हुआ है। ग्रंथ की भाषा राजस्थानी (पिंगल) है, तथापि अपभ्रंश की झलक के साथ ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूपों तथा अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग पाया जाता है। डॉ. रामकुमार वर्मा के शब्दों में- "लोकरंजन के लिए बीसलदेव रासो में काव्य का सौन्दर्य मनोवैज्ञानिक ढंग से अनेक प्रसंगों में सजाया गया है। उसमें जीवन के स्वाभाविक विचार, गृहस्थ जीवन के सरल विश्वास, शकुन, संस्कार, बारहमासा आदि बड़ी सरसता के साथ चित्रित किये गये हैं।” एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
'माणिक मोती चउक पुराय । पाँव पखाल्या राव का, राजमती देई बीसलराय । । '
काव्यत्व की दृष्टि से यह ग्रंथ अच्छा है।
हम्मीर रासो
शारंगधर रचित 'हम्मीर रसो' एक नोटिस मात्र है। 'प्राकृत पैंगलम्' में संग्रहीत कुछ पद्यों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने 'हम्मीर रासो' का रचयिता शारगंधर को माना है, किन्तु ‘जज्जल भणह' वाक्यांश को देखकर राहुल सांकृत्यायन ने इसके कवि का नाम 'जज्जल' बताया है।
विजयपाल रासो
हम्मीर रासो की तरह एक अन्य संदिग्ध रचना में नल्ह सिंह भाट द्वारा रचित 'विजयपाल रासो' का नाम आता है, जिसमें विजयपाल सिंह और पंग राजा के युद्ध का वर्णन है। शुक्ल जी ने इसे अपभ्रंश शैली की कृति माना है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और मोतीलाल मेनारिया के मतानुसार भाषा और शैली की दृष्टि से यह परवर्ती काल का ग्रंथ ठहरता है।
परमाल रासो (आल्हा-खण्ड)
आल्हा खण्ड के नाम से प्रसिद्ध रचना ही परमाल रासो है। इसका वर्तमान स्वरूप लोकगीत शैली में है। इसके रचयिता जगनिक नामक कवि हैं। डॉ. वीरेन्द्रकुमार अग्रवाल के शब्दों में- 'महोबा के राजा परमर्दिदेव (परमार) का जीवन-चरित इसमें है। आल्हा ऊदल नामक दो शूरवीर भाइयों की शौर्य- गाथा बड़े भाव-सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत की गयी है। ध्वन्यात्मकता इसका विशिष्ट गुण है। छन्द-विधान की दृष्टि से इसे 'आल्हा' छन्द की शैली का काव्य कहा गया है।' आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस कृति को अर्द्ध-प्रामाणिक मानते हैं। अनेक परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होते हुए भी इस रचना में कवि जगनिक की हृदयस्पर्शी भावधारा एवं दर्पोक्ति-पूर्ण वाणी अजस्र गति से प्रवाहित होकर आज तक रसिकों के मन को आप्लावित करती आयी है- कवि के लिए यह कम महत्त्व की बात नहीं है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
बारह बरिस लै कुकुर जीवै, तेरह बरिस लै जियै सियार ।
बरिस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवन को धिक्कार ।
अस्तु, यह एक वीररस-युक्त गीतात्मक काव्य है। वीर-भावना का जितना प्रभावी रूप इसमें मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है।
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