कलगी बाजरे की कविता का भावार्थ व्याख्या अज्ञेय कविता कलगी बाजरे की कविता की सप्रसंग व्याख्या कलगी बाजरे की कविता समीक्षा कविता का अर्थ काव्य सौंदर्य
कलगी बाजरे की कविता का भावार्थ व्याख्या
कलगी बाजरे की
हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ अज्ञेय द्वारा रचित 'कलगी बाजरे की' शीर्षक कविता से उद्धृत है।
प्रसंग - इन पंक्तियों में कवि स्वप्रियतमा को सम्बोधित करते हुए इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया है कि वह उसकी सुन्दरता की प्रशंसा करते हुए परम्परागत उपमानों का प्रयोग करने के स्थान पर ऐसे नूतन उपमानों का प्रयोग क्यों किया करता है, जो सामान्यतः साधारण प्रतीत होते हैं ।
व्याख्या- कवि अपनी प्रियतमा के सौन्दर्य का चित्रण करने के लिए एकदम नये और अछूते उपमानों का प्रयोग कर रहा है। वह सौन्दर्यांकन के लिए परम्परागत पुराने उपमानों के प्रयोग का स्पष्ट निषेध करता है। सायंकाल जब आकाश पश्चिम दिशा में लाल हो जाता है तब सर्वप्रथम जो तारा टिमटिमाता हुआ दिखता है, कवियों ने अपनी प्रियतमा के सौन्दर्य को प्राय: उसी से उपमित किया है अथवा शरद ऋतु में प्रातः काल ओस कणों से भीगी हुई कुमुदिनी या चम्पे की कली को प्रिया के सौन्दर्य का उपमान बनाया है। अज्ञेय उन सभी परम्परागत उपमानों को तिरस्कृत कर अपनी प्रियतमा के सौन्दर्य को हरी मुलायम घास और हवा के हल्के झोंकों से हिलती बाजरे की लम्बी-पतली बालों से उपमित किया है।
वे कहते हैं कि हरी मुलायम घास और बाजरे की लम्बी पतली बालों को अरुणिम आकाश में उदित चमचमाते तारों तथा ओस से भीगी कुमुदिनी और चम्पे की कलियों की तुलना में साधारण मानकर यह समझने की भूल नहीं करना चाहिए कि कवि का प्यार पूर्ववर्तियों के प्यार की तुलना में ओछा, अपवित्र अथवा अगम्भीर है। नवीन उपमानों से अपनी प्रिया के सौन्दर्य को उपमित करने का कारण यह है कि परम्परागत उपमानों में अब सौन्दर्य को सम्प्रेषित करने की शक्ति नहीं रह गयी है। जिस प्रकार धातु के बर्तन को बार-बार घिसने से उसके ऊपर की चमकदार परत समाप्त हो जाती है और बर्तन का रंग फीका पड़ जाता है, उसी प्रकार उपमानों का पुनः पुनः प्रयोग करने से उनमें सौन्दर्य को सम्प्रेषित करने की क्षमता समाप्त हो जाती है। इसीलिए कवि ने परम्परागत उपमानों के स्थान पर नये और अछूते उपमानों के प्रयोग पर विशेष बल दिया है।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
- अज्ञेय ने परम्परागत उपमानों के स्थान पर नये उपमान करने की जो यह कारण दिया है कि उनकी असलियत गायब हो गयी है वह उचित ही है।
- यहाँ उल्लेख अलंकार है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादु के-
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-
अगर मैं यह कहूं-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?
आज हम शहरातियों को
पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से
सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक बिछली घास है,
या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकान्त होता हूं समर्पित
शब्द जादु हैं-
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?
सन्दर्भ- प्रस्तुत 'कलगी बाजरे की' शीर्षक कविता कविवर अज्ञेय द्वारा रचित है।
प्रसंग-स्वप्रियतम के लिए परम्परागत उपमानों के स्थान पर नवीन उपमानों का प्रयोग करने का औचित्य सिद्ध करता हुआ कवि कहता है ।
व्याख्या- कवि पुनः अपनी प्रियतमा से प्रश्न करता है कि क्या नवीन उपमानों से उसके सौन्दर्य को उपमित करने के कारण वह अपने रूप तथा उस रूप के प्रति कवि के असाधारण प्रेम को पहचानने में भूल कर बैठेगी ? क्या उसे अपने रूप और कवि के प्रेम की असाधारणता में सन्देह उपन्न हो जायेगा ? ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि परम्परागत उपमानों के साथ हृदय का जैसा सामंजस्य स्थापित हो जाता है वैसा नवीन उपमानों के साथ नहीं हो पाता। फिर भी कवि को विश्वास है कि नवीन उपमानों की सहायता से चित्रित किये गये सौन्दर्य और उस सौन्दर्य के प्रति कवि के गहरे प्रेम को हृदयंगम करने में उसकी प्रिया से कोई चूक नहीं होगी।
आगे की पंक्तियों में कवि ने नवीन उपमानों के प्रयोग के औचित्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है। एक तर्क वह पहले ही प्रस्तुत कर चुका है। वह यह कि पुराने परम्परागत उपमानों के स्थान पर नवीन अछूते उपमानों से सौन्दर्य को अधिक सफलतापूर्वक सम्प्रेषित किया जा सकता है। अब वह दूसरा तर्क प्रस्तुत कर रहा है। वह कहता है कि आजकल के शहरी कवियों का गमले में पालपोष कर बड़े किए गए जुही आदि के फूलों से ही विशेष परिचय रहता है। वे प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में स्वतन्त्र रूप से विकसित वनस्पतियों और फूल-पौधों के सौन्दर्य से अपने हृदय का तादात्म्य नहीं स्थापित कर पाते। इसलिए कवि यह आवश्यक समझता है कि सृष्टि के वास्तविक एवं स्वाभाविक सौन्दर्य का बोध कराने के लिए प्रयत्नपूर्वक कृत्रिम रूप से उगाए गये फूल-पौधों की जगह खेतों, जंगलों, मैदानों में स्वत: उगने वाले फूल-पौधों, वनस्पतियों से सौन्दर्य को उपमित किया जाए। इसीलिए उसने अपनी प्रिया के सौन्दर्य को हरी मुलायम घास तथा बाजरे की कलगी से उपमित किया है।
कवि कहता है कि उसने जो कुछ कहा है वह केवल कहने के लिए नहीं। वह उसका अपने हृदय की गहराइयों में अनुभव कर रहा है। गमले में उगाए गए फूलों की अपेक्षा हरी घास है और उन्हें देखकर कवि को प्रकृति के स्वाभाविक सौन्दर्य का कहीं अधिक वास्तविक और और बाजरे की कलगी सचमुच उसके हृदय में प्रकृति के प्रति अधिक आकर्षण उत्पन्न करती हैं और उन्हे देखकर कवि को प्रकृति के स्वाभाविक सौंदर्य का कहीं अधिक वास्तविक और गहरा बोध होता है। यह सच है कि शब्दों में बड़ी शक्ति होती है और भारी-भरकम अलंकृत शब्द विधान से अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक सम्प्रेषणीय बन जाती है, लेकिन कभी-कभी इसका अपवाद भी देखने को मिलता है। हम शब्दों से जो नहीं व्यक्त कर पाते उसे मौन रहकर व्यक्त कर देते हैं। कभी-कभी मौन समर्पण मुखर अभिव्यक्ति से अधिक मूल्यवान हो जाता है।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों मे निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
- तार सप्तक की भूमिका तथा अपने अन्य लेखों में अज्ञेय जी ने नवीन उपमानों के प्रयोग की वकालत की है।
- 'या शरद .....अकेली' में दृश्य-बिम्ब है।
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