पता नहीं प्रेम है या नहीं ? पर चाहता हूँ तुम्हारी बाहों में गिर कर पूरी रात तारे गिनता रहूँ… प्रेम यदि अनंत है अपने आप में तो प्रेम उस व्यक्ति को भी
प्रेम
पता नहीं प्रेम है या नहीं ?
पर चाहता हूँ
तुम्हारी बाहों में गिर कर
पूरी रात
तारे गिनता रहूँ…
प्रेम यदि अनंत है अपने आप में
तो
प्रेम
उस व्यक्ति को भी अनंत करने की संभावना रखता है
जो प्रेम में है
जानते है अनंतता को गिन नहीं सकते
पर गिन तो सकते है अनंत तक !
प्रेम अनंत है
और प्रेम करते रहना
प्रेम की
एक अनंत संभावना
पता नहीं प्रेम है या नहीं ?
पर चाहता हूँ
तुम्हारी बाहों में गिर कर
पूरी रात
तारे गिनता रहूँ…
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(२)
अंधेरे माँजने से
दाग नहीं उतरते सायों के
सूरज रगड़ना पड़ता है
तब होता है
आसमाँ साफ़
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(३)
शीर्षक : कंधे
कंधे है कई ऐसे
जो हल्की सी बात भी सुन लेते है
जो सुन सकते है
वो कंधे
उठाते नहीं
बोझ
हल्का करते है
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(४)
शीर्षक : ख़ुदी
अपने ही कंधे पर रोया
ख़ुद ही को भिगोया
ख़ुद ही को हाथ दिया
ख़ुद ही को सहारा भी
ख़ुद ही को मुस्कान दी
ख़ुद ही पर मुस्कुरा भी दिया
ख़ुद ही को बोल दिये
ख़ुद ही को दिया मौन भी
ख़ुद ही को दिल दिया
दिलासा भी ख़ुद ही को दिया
प्रेम
यदि
देने का नाम है तो
आज मुझे ख़ुद से प्रेम हुआ…
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(५)
शीर्षक : ख़ालीपन
एक ख़ालीपन है
घूरता रहता है मुझे हर वक़्त
मैं भी तो ख़ाली हूँ…
बस
यहीं डर बैठा रहता है जी में हरदम
मुझ ही में न भर जायें ये कहीं
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(६)
शीर्षक : हीन भाव
निम्न करते करते
अपने आप को
एक दिन
मैं लुप्त हो गया…
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(७)
शीर्षक : कल्पना की सीमा
सावन के पेड़ से दो-तीन बूँदे तोड़ कर
मैं सिंचना चाहता था
पतझड़ के कुछ सूखें पत्ते
बादलों से चुटकी भर आकाश छान कर
सजाने थे मुझे सूरजमुखी पर
किरणों के सुनहरे रेज़े
शिखरों से हथेली भर बर्फ़ माँग कर
बोना था मुझे सहरा में
शरद का ठंडा चाँद
गली-कूचों से गोद भर उठा लाने थे मुझे
शहर के चौराहे पर
फूल के हँसते-खेलते पौधें
गगनचुंबी इमारतों से फेंक देने थे मुझे
रातों की नींद तोड़ने वाले
टिमटिमाते तारे
पर
मैं
कुछ भी
न
कर सका…
मेरी कल्पनाओं की सीमा
मेरी कविता तक ही सीमित...
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(८)
शीर्षक : अस्तित्व
कई पेड़ गिरें है मुझ पर
तब से मैंने उगना शुरू किया…
उगते उगते
उगना बंध हो जाता है एक दिन
लगता है
ज़िंदगी गुज़र चुकी है
पर उम्र काटनी बाक़ी है अभी भी लम्बी
खोखले साल
लटकने लगते है हवा में
मानो
लटकना
उगने और गिरने के बीच की
सार्थक अवस्था हो कोई
फिर अचानक
एक चिड़ियाँ आती है
मेरे बचे-कूचे सालों से
तिनका तिनका दिन चुन कर ले जाती है
एक घौसला बनाती है
अपना परिवार उगाती है
पेड़ गिरे न होते मुझ पर कभी
तो
परिवार
भी उगा न होता मुझ में शायद
लटकते सालों में
पेड़ ऊँचाई नहीं
कद
पाता है अपना…
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(९)
शीर्षक : अपेक्षाएँ
पहेले बातचीत होती थी
शब्दों का पुल बनता था
मौन उस पर चल कर आता था
अब
गूँगी अपेक्षाएँ बोलती है
मौन की गहरी खाई बनती है
शब्द गिरते है, गूंज बन कर लौट आते है
अपेक्षाएँ !
बोले तो
समाधान
न बोले तो
सावधान…
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(१०)
शीर्षक : दौड़
दौड़ दौड़ी नहीं जाती
दौड़ चली जाती है
क्यूँकि हर दौड़
एक चाल होती है
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(११)
शीर्षक : आँसू
आँसू भी बड़े हो गये है मेरे
…दामन देख कर निकलते है
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(१२)
शीर्षक : मोनालिसा
तुम्हारी एक दबी सी मुस्कान में
मेरी अनगिनत मोनालिसाएँ डूब जाती है !
आज मैंने ख़ुद में अपना राज़ पाया
..तुम में पाया मैंने अपना हम-राज़
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(१३)
शीर्षक : मेरे शब्दों के पूर्वज
तुम्हारी आँखों को छूते ही
गीले हो जाते है
मेरे सारे शब्द
तुम्हारी पलकों पर बैठे बैठे
कितनी नज़्म निचोड़ी है मैंने अपनी !
बूँद बूँद टपकती भगीरथी में
मोक्ष मिला है मेरी सारी कल्पनाओं को…
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(१४)
शीर्षक : महँगाई
सूरज को गठरी में उठाए
बेचता रहता है दिन रात तक
सहा है उसने महँगाई का जलता बोझ
पूरे सूरज के दाम पर
आधा चाँद भी हासिल नहीं उसे…
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(१५)
शीर्षक : पसीना
बाल्टी लाओ
पसीने भरो
उठा लो
जो टपका है
धरा पर सदियों से
निगल गई वापस तो
किसान और मज़दूर ही पैदा करेगी…
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- भाविक देसाई (मेहेर),
संयुक्त राज्य अमेरिका
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