रीतिमुक्त काव्यधारा की प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ हिंदी साहित्य का इतिहास रीतिमुक्त काव्यधारा साहित्यिक दृष्टि से रीतिकालीन कविता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण
रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ
रीतिमुक्त काव्यधारा की प्रवृत्तियाँ विशेषताएँ हिंदी साहित्य का इतिहास - रीतिमुक्त काव्यधारा साहित्यिक दृष्टि से रीतिकालीन कविता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा है। इस काव्यधारा में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति परम्परा के साहित्यिक बन्धनों और रूढ़ियों को अनदेखा कर के अपने मनोभावों को स्वच्छन्द ढंग से व्यक्त किया है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने इस काव्यधारा को स्वच्छन्द काव्यधारा भी कहा हैं। ये वे कवि हैं जिन्होंने लक्षण ग्रन्थों की रचना न करके अपनी सहज अनुभूमित्त को प्रवाहमय अभिव्यक्ति दी है। ये स्वानुभूति के उन्मुक्त गायक हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इन कवियों को प्रेमोन्मत्त कवि कहा है। इस धारा के कवियों में घनानन्द, ठाकुर बोधा, आलम, द्विजदेव और सम्मन के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। इस धारा की महत्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं -
वैयक्तिकता
रीतिमुक्त कवियों ने रीतिबद्ध कवियों की भाँति प्रेमी-प्रेमिकाओं और नायक-नायिकाओं के प्रेम का वर्णन न करने अपनी निजी प्रेमानुभूति को आत्मपरक शैली में व्यक्त किया है। ये कविताएँ लौकिक प्रेम से प्रेरित हैं। इन सभी कवियों ने अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रेम किया था और अपनी इसी भोगी हुई प्रेम-व्यथा को काव्य में व्यक्त करके शान्ति महसूस की थी। इन कवियों ने चमत्कार प्रदर्शन के लिए या शौकिया काव्य-रचना नहीं की थी बल्कि इनके हृदय की घनीभूत वेदना स्वयं कविता बन गयी थी। घनानन्द के विषय में कही गयी यह उक्ति इस धारा के सभी कवियों पर चरितार्थ होती है :
समुझे कविता घनआनँद की हिय-आँखिन नेह की पीर तकी।
अर्थात घनानन्द की कविता को वही समझ सकता है जिसने हृदय की आँखों से प्रेम की पीड़ा को देखा हो अर्थात जिसने स्वयं प्रेम की पीड़ा को भोगा हो ।
परम्परागत रूढ़ियों का निषेध
रीतिमुक्त कवियों ने परम्परागत कवियों की रूढ़ियों को स्वीकार नहीं किया है। वे रूढ़ियाँ काव्य के अन्तर्वस्तु से सम्बन्धित रही हों या वाह्य रूप से। काव्य के समस्त उपादान इनकी कविताओं में सहज ही आ गये हैं, इन्होंने अलंकार आदि को सायास लाने की कोशिश नहीं की है। इनकी कविता इनकी अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति है। इनका कवि-कर्म किसी राजा के सुख के लिए न होकर स्वान्तः सुखाय और अपने अन्तर्मन का प्रकाशन है। इस सन्दर्भ में घनानन्द ने लिखा है कि :
लोग हैं लागि कवित्त बनावत,
मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत ।
अर्थात् दूसरे कवि लग कर या कोशिश कर के कविता करते हैं, लेकिन मेरे कवि व्यक्तित्व का निर्माण मेरी कविता स्वयं करती है। दिन-रात प्रयास करके कविता लिखनेवालों पर व्यंग्य करते हुए ठाकुर ने लिखा है कि :
सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन, सीख लीन्हों जस औ प्रताप को कहानी है ।
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामनि सीखि लीन्हों मेरु औ कुबेर गिरि आनो है ।
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात, याको नहिं भूलि कहूँ बाँधित बानो है ।
अनुभूति की अनिर्वचनीयता
ये सभी कवि गहन अनुभूति और संवेदना से भरे हुए हैं इनकी अनुभूतियाँ इतनी सशक्त और सघन हैं कि वे कविता में व्यक्त ही नहीं हो पातीं। अभिव्यक्ति के समस्त उपादान इनकी संवेदनाओं को व्यक्त करने में असमर्थ हो जाते हैं। घनानन्द इस बात को बार-बार कहते हैं कि मैं अपनी पीड़ा को व्यक्त नहीं की है जो उनकी कुछ काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
जो दुख देखत हौं घनआनन्द रैन दिना बिन जान सुतंतर ।
जानें बेई दिन-रात बखाने ते जानि परै दिन-रात को अन्तर ।।
कहिये केहि भाँति दसा सजनी अति ताती कथा रसनानि दहै।
अरु जो हिय ही मधि घूँटि रहौं तो दुखी जिय क्यों कवि ताहि सहै ।।
इस विषय में बोधा का एक छन्द बहुत चर्चित है :
कबहूँ मिलिबो कबहूँ मिलिबो, यह धीरज ही में धरैबो करै।
उरते काढ़ आवै गरे ते फिरे, मन की मन ही में सिरैबो करै ।
कवि बोध न चाँड़ सरी कबहूँ, नित ही हरवा सो हिरैबो करै ।
सहते ही बनै कहते न बने, मन ही मन पीर पिरैबो करै ।।
संयोग की अपेक्षा वियोग की प्रधानता
रीतिमुक्त कवियों की कविताओं में संयोग वर्णन की तुलना में वियोग वर्णन अधिक दिखायी पड़ता है। इसीलिए आचार्य शुक्त ने घनानन्द पर लिखते हुए यह कहा था कि उनके भाग्य में संयोग का सुख बंदा नहीं था। इन कवियों में जहाँ संयोग के दृश्य आते हैं वहाँ भी वियोग का दुख लगा रहता है। इस कारण इनकी कविताओं में बहुत मार्मिकता भरी हुई है। घनानन्द कहते हैं कि :
यह कैसो संयोग न सूझि परै जो वियोग न क्योंहू विछोहत है।
अन्य रीतिमुक्त कवियों के यहाँ भी वियोग ही उनकी केन्द्रीय अभिव्यक्ति है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :
जा थल कीने बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करें।
जा रसना सो करी बहु बातिन ता रसना सो चरित्र गुन्यो करें।
आलम जौन से कुंजन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करें।
नैन में जो सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करें ।।
- आलम
संयोग वर्णन में सजीवता
वैसे तो रीतिमुक्त कवियों के यहाँ के चित्र बहुत दिखाई देते हैं, किन्तु जहाँ हैं वहाँ बहुत सजीव हैं। इनके संयोग वर्णन में मांसलता और संयोग वर्णन में सजीवता : वैसे तो रीतिमुक्त कवियों के यहाँ के चित्र बहुत कम सम्पूर्णता दिखाई पड़ती है। शायद संयोग की इसी गहनता और हार्दिकता के कारण ही इनका विरह असहय और दारुण हो गया है। संयोग का एक दृश्य देखें -
रस आरस भोय उठी कछु सोय लगी लसैं पीक पगी पलकें ।
घन आनँद ओप बढ़ी मुख और सु फैलि भर्वी सुथरी अलकें ।
अँगराति जँभाति लसैं सब अंग अनंगहि अंग दियै झलकें ।
अधरानि में आधिय बात धरै लड़कानि की आनि परें छलकें ।।
- घनानंद
सौन्दर्य
प्रेम की कविता लिखने वाले सभी कवियों ने अपनी प्रेमिकाओं के सौन्दर्य का वर्णन किया है। यह बात रीतिमुक्त कवियों पर भी लागू होती है। रीतिमुक्त कवियों की विशिष्टता यह है कि उनके रूप वर्णन में बनावटी प्रसाधनों और जबर्दस्ती लाये गये अलंकारों या प्रयोग नहीं किया गया है। उनकी विशेषता यह भी है कि उनकी नायिकाएँ वस्त्राभूषणों ...से सौन्दर्य युक्त नहीं होतीं बल्कि वस्त्राभूषण और सौन्दर्य के साधन उन्हीं के सौन्दर्य से हो जाते हैं। घनानंद के द्वारा रचित कुछ उदाहरण देखें :
रूप की उलझि आनन पै नई-नई, तैसी तरुनई तेह-ओपी अरुनई है।
उलटि अलंग रंग की तरंग अंग-अंग, भूषण बसन भरि आभा फैलि गई है।
आनन की सुघराई कहा कहीं जैसी बिराजति है जेहि अवसर ।
चंद तो मंद मलीन सरोरुह एकहू रंग न दीजिये जो सर ।
नैन अन्यारे तिरछी चितौन में हेरि गिरै रति प्रीतम को सर ।
जान हिये घनआनँद सो हँसी फैलि फबे सु चमेली को चौसर ।।
बोधा ने भी अपनी प्रेमिका सुभान के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए 'इश्कनामा' में लिखा है-
एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।
कैयो सतकेतु की पदवी लुटिये लखि कै मुसकाहट ताको।
प्रेम में एकनिष्ठता और विश्वास
रीतिमुक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनका प्रेम एकनिष्ठ है। रीतिबद्ध कवियों की भाँति इनके प्रेम में सौन्दर्य - लोलुपता, चंचलता और भ्रमरवृत्ति नहीं है। ये हर परिस्थिति में अपने प्रेम के प्रति एकनिष्ठ और ईमानदार बने रहते हैं। इनके प्रेम की शर्तें भी आसान नहीं हैं। इनकी दृष्टि में प्रेम का मार्ग चुनौती और मुश्किलों से भरा होता है। प्रेम के लिए एकनिष्ठ समर्पण और साहस की भी आवश्यकता होती है। यह बराबर का लेन-देन होता है। यहाँ कोई छोटा बड़ा नहीं होता। सच्चे प्रेम में कुटिलता और चालाकी काम नहीं करती। प्रेम के रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। इस सन्दर्भ में दो प्रसिद्ध उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं-
अति सूधो सनेह मारग हैं जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं । तहाँ साँचे चलें तजि आनुनपो झझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनँद प्यारे सुजान सुनो यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं ।
तुम कौन धौ पाटी पढ़े हो कही मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं। -घनानन्द
अति खीन मृनाल के तारहु ते तेहि ऊपर पाँव दे आवनो है।
सुई बेह ते द्वार सकीन तहाँ परतीहि की टाँड़ो लदावनो है
कवि बोधा अनी धनी नेजहु ते, चढ़ि तापै न चित्त डरावनी है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तलवार की धार पे धावनो है।। - बोधा
इनके प्रेम में ऐन्द्रिय वासना नहीं है। प्रेमी वियोग की व्यथा सह कर भी प्रिय की कुशल चाहता है और अन्तिम साँस तक उसी का स्मरण करता रहता है। साथ ही उसे अपने प्रिय और उसके प्रेम पर प्रगाढ़ विश्वास भी रहता है -
रूई दिये रहोगे कहाँ लौ बहरायबे को,
कबहूँ तो मेरी ये पुकार कान खोलि है।
-घनानन्द
उदात्तता और उल्लास
रीतिमुक्त कविता में प्रेम प्रसंगों में प्रिय के प्रति उदास भाव दिखलाई पड़ता है। साथ ही ये कवि अपने प्रेम में निरन्तर तल्लीन दिखाई पड़ते हैं। हर समय इनके भीतर का अनुराग इन्हें उत्साहित और उल्लसित रखता है। यह तल्लीनता इन्हें इतना सराबोर कर देती है कि प्रिय का रूप-रंग इन्हें प्रकृति के विविध रूपों में दिखाई पड़ने लगता है और प्रकृति भी जैसे इनके मनोभावों को समझती हुई इनका साथ देती है.
अपने-अपने सुठि गेहन में चढ़े दोऊ सनेह की नाव पै री।
अँगनान में भीजत प्रेम भरे समयो लखि मैं बलि जायँ पैरी ।
कहैं ठाकुर दोउन की रुचि सों रंग ह्वै उमड़े दोऊ ठाँव पै री।
सखि कारी घटा बरसे बरसाने पै, गोरी घटा नन्द गाँव पै री।। - ठाकुर
भाषा का नूतन प्रयोग
इन कवियों ने भाषा का नये ढंग से प्रयोग किया है। रीतिबद्ध कवियों की भाषा जहाँ आचार्यत्व और अलंकरण के कारण दबी तथा तमाम बन्धनों से बँधी हुई और जीवन से कटी हुई सी लगती है वहीं रीतिमुक्त कवियों की भाषा में जीवन की सहज प्रवाह है। यहाँ किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं है। इनकी भाषा में लोकभाषा के मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग से एक नये ढंग की जीवन्तता और स्फूर्ति आ गयी है। यहाँ भाषा का लक्षणा और व्यंजना प्रधान रूप दिखाई पड़ता है। घनानन्द की कविताओं में विरोध की वक्रता भी दर्शनीय है :
बदरा बरसें रितु में घिरि के नित ही अँखियाँ उघरी बरसें ।
सोवत भाग जगै सजनी दिन कोटिक वा रजनी पर वारे।
इस प्रकार रीतिमुक्त कविता में हमें जीवन की सहज, उन्मुक्त और निश्छल प्रवाह दिखाई पड़ा है।
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