श्रीमद्भागवत महापुराण और सूरसागर श्रीमद्भागवत महापुराण और सूरसागर में अंतर सूरदास की विवेचना करते हुए श्रीमद्भागवत् सूरसागर भागवत की कथा स्रोत सूर की
श्रीमद्भागवत महापुराण और सूरसागर
आधुनिक युग के विभिन्न आलोचकों ने सूरदास की विवेचना करते हुए' श्रीमद्भागवत् सूरसागर' विषय पर विचार किया है, किन्तु यह विचार साधारण रूप में कथावस्तु की से हुआ है। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने अपने लेख 'सूरसागर और श्रीमद्भागवत्' में कई पक्षों पर प्रकाश डाला है। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा ने भी अपने प्रबन्ध सूरसागर में इस विषय पर विचार किया है।सूर-विषयक अन्य ग्रन्थों में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है, किन्तु वह तुलनात्मक विवेचन सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता। किन्हीं दो ग्रन्थों या लेखकों की तुलना विचार होना चाहिए। द्वादश-स्कन्धात्मक सूरसागर से 'श्रीमद्भागवत् की तुलना करने पर करने के लिए यह आवश्यक है कि उनके विषय के अतिरिक्त काल, सिद्धान्त आदि पर भी निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं -
- दशम् स्कन्ध को छोड़कर अन्य स्कन्धों में भागवतानुसरण की बात मात्र ही दुहराई गयी है, अनुसरण नहीं किया गया है। अन्य स्कन्धों में केवल वे ही स्थल आये हैं, जहाँ भगवान् के यश का वर्णन, हरि भक्ति की महिमा अथवा भक्त गुणगान है। भागवतानुसार वाली बात. वर्णनात्मक प्रसंगों तक ही सीमित है। गेय पदों में उसका अनुसरण नहीं मिलता।
पौराणिक तथा ऐतिहासिक आख्यानों की पूर्ण उपेक्षा की गयी है और कथाओं में पारस्परिक सम्बन्ध भी नहीं है। पद भारती के से प्रतीत होते हैं।- भागवत के दार्शनिक पक्ष को भी 'सूरसागर' में प्रश्रय नहीं दिया गया है। स्त्रोतों और प्रवचनों के रूप में भागवत में दार्शनिक सिद्धान्तों की जैसी विस्तृत व्याख्या मिलती है, उसका लेशमात्र भी सूरसागर में नहीं है।
- सूरसागर में वर्णनात्मक तथा गेय-पद शैली, ये दो प्रकार की शैलियाँ दीख पड़ती हैं। ऐतिहासिक उपाख्यान तथा पौराणिक कथाओं के उल्लेख में कवि ने वर्णनात्मक शैली की ओर हरि-लीला, गान में गेय-पद-शैली को अपनाया है।
- जिस स्थल पर सूरसागर में भागवत के वर्णनों को ज्यों का त्यों अपनाने का प्रयास किया है, वहाँ उसमें शिथिलता आ गयी है और वर्णन में अस्वाभाविकता-सी प्रतीत होती है। ऐसे स्थानों में कहीं तो वर्णनात्मक शैली के दर्शन होते हैं और कहीं ऐसी अस्पष्ट समास शैली मिलती है कि ज्ञात होता है मानो कवि को कथाओं का भार ढोना पड़ रहा है। अनुवाद की तो बात दूर रही, कथाओं का सार भी पदों में नहीं आ पाया।
- सूरसागर में चार प्रकार की हरि-लीलाओं का गान हुआ है-
- वे लीलाएँ, जिनका आधार पूर्णतः श्रीमद्भागवत है। ऐसी लीलाएँ केवल दशम् स्कन्ध में हैं, किन्तु उनका क्रम भागवत से भिन्न है।
- वे लीलाएँ, जिनका सूत्र तो कवि को भागवत से ही प्राप्त हुआ है, किन्तु 'सागर' में कवि ने उनकी विस्तृत व्याख्या की है। उन प्रसंगों के वर्णन में सूर की दृष्टि भागवत पर नहीं जमती, अपितु भावना के विस्तृत प्रांगण में चौकड़ी भरती हुई दीख पड़ती है। ऐसे स्थलों पर कवि भागवत के कथा-स्रोत को केवल मोड़ ही नहीं देता, अपितु एक बाँध बाँधकर स्वतः प्रवाहिनी कल्लोलिनी की ओर उन्मुख कर देता है। ऐसे स्थलों पर कवि की गाम्भीर्य . पूर्ण तन्मयता एवं परिपक्व शैली के दर्शन होते हैं। ये रचनाएँ खण्डकाव्य की कोटि तक पहुँच जाती हैं।
- सूरसागर में कुछ ऐसी लीलाएँ भी हैं, जिन्हें हम पूर्णतः मौलिक, स्वतन्त्र और भागवत-निरपेक्ष कह सकते हैं। जैसे- राधाकृष्ण-मिलन, पनघट प्रस्ताव, दानलीला आदि।
- सूरसागर में कुछ ऐसी लीलाएँ भी हैं, जिनका स्रोत भागवत पुराण न होकर अन्य पुराण है।
उक्त विवेचन से हम सहज हो इस प्रश्न का उत्तर खोज सकते हैं कि सूरसागर कहाँ तक श्रीमद्भागवत का अनुवाद है और कहाँ तक उसमें भागवत का अनुसरण किया गया है। इस विषय पर हिन्दी के कुछ विद्वानों ने अपने विचार भी दिये हैं। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा का मत है- "अनुमान तो यह होता है कि भागवत की कथा को सुनकर कवि ने दशम् स्कन्ध पूर्वार्द्ध के अतिरिक्त अन्य स्कन्धों पर अपने भाव के अनुकूल, कभी प्रबन्धात्मक और कभी स्फुट रीति में पद-रचना की। इस पद-रचना को स्कन्धों के कथाक्रम से संग्रह करके देखने से जहाँ कथा-सूत्र छूटे पाये गये, वहीं वे पूर्ति मात्र के विचार से वर्णनात्मक शैली में रख दिये गये। यह श्री सन्देह हो सकता है कि ये वर्णनात्मक अंश स्वयं हमारे कवि सूरदास जी की रचना भी है या अन्य किसी ने सूरसागर को भागवत का वाह्य रूप दे दिया।"
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