तुलसीदास कालजयी कवि हैं वर्तमान समय में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता तुलसीदास की लोकप्रियता रामचरित मानस में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अयोध्या
वर्तमान समय में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता
तुलसीदास कालजयी कवि हैं वर्तमान समय में गोस्वामी तुलसीदास की प्रासंगिकता तुलसीदास की लोकप्रियता - लोकजीवन की मधुर अनुभूतियों के मुग्ध और सजग गायक सगुणोपासक तुलसीदास को लोकनायक के रूप में स्वीकार किया जाता है। उन्होंने अपने विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ 'रामचरित मानस' में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के माध्यम से आदर्श मानवीय व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया है। तुलसीदास एवं उनके काव्य-ग्रन्थों को काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई है। ग्रियर्सन ने तुलसी के विषय में लिखा है- "तुलसी पूर्ण कवि थे, ज्ञानियों के लिए उनकी रचना ज्ञान कुंज है, भक्तों के लिए भक्ति का अमृत सरोवर, सुधारकों के लिए सुधार-दृष्टि प्रदान करने वाली अलौकिक कसौटी और काव्य-रसिकों के लिए वह रस-वृष्टि है जो उनके समग्र व्यक्तित्व को रसमग्न कर देती है।"
तुलसी के विषय में अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी ने लिखा है-
बनी पावन भाव की भूमि भलो, हुआ भावुक भावुकता का भला ।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला ।।
जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने लिखा -
भ्रम विटप प्रभंजन कुमति बन अगनि तेज रवि सुजस ससि ।
गुन तुलसिदास सब देवमय प्रनवत् रत्नाकर हुलसि ।।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में तुलसीदास की मान्यताओं पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वह आज भी प्रासंगिक है। उनकी वर्तमानकाल में प्रासंगिकता विषय पर निम्नांकित बिन्दुओं के आधार पर चर्चा की जा सकती है-
सामाजिक पारिवारिक आदर्श
तुलसीदास समाज एवं परिवार में नैतिक मूल्यों की स्थापनाकर उदात्त जीवन मूल्यों पर सबका ध्यान केन्द्रित करने के पक्ष में थे। 'रामचरित 'मानस' में उनकी दृष्टि राम कथा के माध्यम से आदर्श जीवन मूल्यों की स्थापना करने की ओर केन्द्रित रही है। पारिवारिक आदर्श प्रस्तुत करते हुए विभिन्न पात्रों को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है। सीता पतिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत करती हुई पति का अनुगमन करते हुए चौदह वर्ष का वनवास स्वयं ले लेती हैं। राम आदर्श पुत्र हैं जो पिता की आज्ञा पर मिलने वाले राज्य को त्यागकर वन गमन हेतु तुरन्त प्रस्तुत हो जाते हैं और कैकेयी से कहते हैं-
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥
अयोध्या के सारे नर-नारी भरत के प्रेम की सराहना करते हैं और उन्हें श्रीराम के प्रेम की साक्षात् प्रतिमूर्ति बताते हैं-
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहिं सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥
भरत पर राम को इतना विश्वास है कि वे लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि भरत को अयोध्या का राज पाकर तो क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पद पाकर भी राजमद नहीं हो सकता-
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥
तुलसी ने रामचरित मानस में पति का आदर्श रूप, भाई का आदर्श रूप, नृप का आदर्श-रूप, पत्नी का आदर्श रूप सब कुछ वर्णित किया है।
आज समाज एवं परिवार में जो विखण्डन की स्थिति दृष्टिगोचर हो रही है, समाज के व्यक्तियों में पारस्परिक प्रेमभाव का अभाव पाया जा रहा है। वे आपस में ईर्ष्या-द्वेष से घिरे हुए हैं, पारिवारिक सम्बन्धों में दरारें आ रही हैं, संयुक्त परिवार प्रथा लगभग टूटती चली जा रही है। इन परिस्थितियों में तुलसी की सामाजिक पारिवारिक आदर्श की मान्यताएँ काफी कारगर भूमिका का निर्वाह कर सकती हैं।
मर्यादा भाव
मर्यादा का आशय है- "बड़े-छोटे का अदब, बड़ों को सम्मान, छोटों को प्यार तथा गुरु वर्ग के प्रति श्रद्धा का भाव।" तुलसीदास का रामचरित मानस आद्यांत मर्यादा भाव की व्यंजना करता है। यह मर्यादा गुरु के प्रति, माँ के प्रति, पिता के प्रति, भाई के प्रति, पत्नी के प्रति और समाज के प्रति देखी जा सकती है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम की दिनचर्या को प्रस्तुत करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान राम सुबह उठकर सर्वप्रथम अपने माता-पिता और राजगुरु को प्रणाम करते हैं -
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
इसी प्रकार लक्ष्मण अपने भाई राम और अपने गुरु विश्वामित्र का आदर करते हुए सर्वप्रथम आश्रम से उठकर पेड़-पौधों को सींचने लगते हैं।
आज के समाज में इसी तरह के मर्यादाभाव की आवश्यकता है, जिससे समाज के सभी व्यक्तियों में पारस्परिक सामंजस्य बना रहे तथा प्रत्येक व्यक्ति मर्यादित व्यवहार कर सके।
लोकमंगल की भावना
तुलसीदास जी आरम्भिक प्रार्थना में 'मंगल करनि कलिमल हरनि' रामकथा को अपना प्रतिपाद्य बनाते हैं। वे समस्त विश्व के मंगल में ही अपना मंगल अनुभव करते हैं। उनकी मान्यता है कि रामचरित प्रकृत्या मंगलमय है। वह प्राणि मात्र के लिए मंगल का विधायक है। वे लिखते हैं -
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥
उन्होंने राम के आदर्श चरित्र द्वारा जिस मूल्यनिष्ठ जीवन शैली का विधान किया है वह व्यापक स्तर पर मंगल साधना का उत्कृष्ट उदाहरण है। बाल्यकाल से ही राम वही करते हैं जो लोकहित साधक होता है।
जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
मध्यकालीन भारत जब राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक विघटन, धार्मिक वितंडावाद एवं सांस्कृतिक विमूढ़ता आदि बिडम्बनाओं से आहत था। उस समय तुलसीदास लोगों के कल्याण एवं मंगल के लिए रामचरित मानस की रचना कर रहे थे। उनका किसी से विरोध नहीं था तथा समन्वय के द्वारा लोकधर्म स्थापित करना चाहते थे और पारस्परिक नैतिकता के प्रबल समर्थक थे। पर लोकमंगलकारी भावों को बरकरार रखने के लिए आज तुलसी की मान्यताओं अमल करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है, जिससे समाज में लोकमंगल के भाव को बनाये रखा जा सके।
गोस्वामी तुलसीदास में समन्वय की भावना
समन्वय की भावना तुलसीदास की प्रमुख मान्यताओं में से एक है। वे समाज में समन्वय स्थापित करने के आकांक्षी थे। उनकी समन्वयवादी भावनाओं पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है- “भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।"
भारत की जैसी जटिल समाज-संरचना और मिश्रित संस्कृति है उसमें कोई एक सर्वमान्य कर्म-भाव नहीं हो सकता। यही समन्वय की दृष्टि ही सार्थक हो सकती है। तुलसीदास जी ने सगुण व निर्गुण भक्ति के समन्वय के विषय में लिखा है-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
तुलसी मध्यकाल की अराजक स्थिति से असन्तुष्ट थे। ये अराजक स्थितियाँ हैं- टूटती हुई वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मणों का अनादर, धर्म-सम्प्रदाय की आपसी टकराहट, लड़खड़ाते सामाजिक सम्बन्ध, मर्यादाओं का निषेध, उच्चतर मानव मूल्यों की पराजय आदि। तुलसीदास जी ने इन्हीं अराजक स्थितियों से निपटने के लिए समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया। ये स्थितियाँ आज भी समाज में व्याप्त हैं जिनको दूर करने के लिए तुलसीदास जी द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है।
रामराज्य की परिकल्पना
तुलसी ने जिस रामराज्य की परिकल्पना की थी, वह एक समृद्ध सुशासन का पर्याय था। उसमें साम, दाम, दण्ड और भेद आदि नीतियों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। सब रोग और बैर मुक्त थे और वेद सम्मत मार्गों पर चलते हुए बड़ों के आदेशों का पालन करते थे। प्रजा को प्रकृति के कोपभाजन का शिकार नहीं होना पड़ता था। चारों तरफ आनन्द ही आनन्द था। यह तुलसी की लोकमंगल भावना और समन्वयवादिता का परिणाम था। कवि रामराज्य की विशेषता बताते हुए लिखता है कि-
नहिं दरिद्र कोउ दुःखी न दीना ।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना । ।
वर्तमानकाल में गाँधी जी ने जिस रामराज्य की परिकल्पना की है उसका मूल आधार भी तुलसी की रामराज्य परिकल्पना है। आज के इस साम्प्रदायिकता के युग में ऐसी मान्यताओं का महत्त्व और प्रभाव और भी बढ़ गया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज हमारे समाज में जो विघटन दिखायी दे रहा है तथा हम लोग जिस धार्मिक विद्वेष के वातावरण में जीवनयापन कर रहे हैं, उसमें तुलसी की मान्यताओं पर अमल करना आवश्यक हो गया है। नैतिक मूल्यों का क्षरण आज जिस तीव्रता मे हो रहा है तथा मानवीय मूल्यों का जो विघटन समाज में दिखायी दे रहा है, उसके विषाक्त को कम करने की दृष्टि से तुलसी की मान्यताओं का महत्त्व और अधिक हो गया है। समाज को सुनियोजित ढंग से चलाने के लिए उनके द्वारा स्थापित विभिन्न विचारों- सामाजिक-पारिवारिक आदर्श, लोकमंगल की भावना, समन्वय भावना, मर्यादाभाव एवं रामराज्य की परिकल्पना के माध्यम से समाज में समरसता की स्थिति उत्पन्न की जा सकती है। ऐसी स्थिति में तुलसी की प्रासंगिकता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता है। उनके द्वारा स्थापित विभिन्न मान्यताएँ आज के समय में भी महत्त्वपूर्ण हैं।
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