यह दीप अकेला कविता की सप्रसंग व्याख्या अज्ञेय की कविता yah deep akela kavita ki vyakhya यह दीप अकेला कविता की व्याख्या yah deep akela sneh bhara expla
यह दीप अकेला कविता की सप्रसंग व्याख्या अज्ञेय की कविता
यह दीप अकेला
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्याँश सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित कविता 'यह दीप अकेला' से उद्धृत है।
प्रसंग- इस कविता में कवि ने स्वयं पर दीपक का आरोप करते हुए अपने दृढ़ आत्म-विश्वास तथा ऊपर ही उठते जाने की भावना की अभिव्यंजना की है।
व्याख्या- कवि अपने आपको लक्ष्य करके कहता है कि वह अन्यों की अपेक्षा अधिक प्रातिभ, योग्य और सक्षम है, उसे अपनी योग्यता, क्षमता तथा प्रतिभा पर गर्व एवं अभिमान है, परन्तु वह चाहता है कि उसकी प्रतिभा, योग्यता और क्षमता का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए हो । वह स्वेच्छया समाज हित के लिए समर्पित होना चाहता है।
कवि में असाधारण प्रतिभा विद्यमान है। वह जैसी श्रेष्ठ काव्य रचनाकार कर सकता है, वैसी कोई अन्य साधारण कवि नहीं कर सकता। उसने रचनात्मक क्षेत्र में नई उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, सत्य के नये-नये आयामों को उद्घाटित किया है। किसी दूसरे रचनाकार (कृती) के लिए यह दुष्कर कार्य सम्भव न था और न होगा। उसके जैसा धुन का पक्का इन्सान कठिनाई से देखने को मिलेगा। उसने अपने कठिन पुरुषार्थ से क्रान्ति की जो ज्वाला प्रज्वलित की है, वह कोई अन्य नहीं कर सकता था। उसका व्यक्तित्व अद्वितीय है। उसके समान कोई दूसरा नहीं हो सकता। उसे अपने व्यक्तित्व पर अभिमान है। उसके व्यक्तित्व में अच्छा-बुरा जो कुछ है वह उसका नितान्त अपना है। वह उसे स्वेच्छया समाज हित में नियोजित कर देना चाहता है।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
- यहाँ कवि का लोकमंगलकारी स्वर सुनाई दे रहा है।
- रूपकोतिशयोक्ति, अनुप्रास और वक्रोक्ति अलंकार है ।
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्यांश सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित कविता 'यह दीप अकेला' से उद्धृत है।
प्रसंग- इस कविता में कवि ने स्वयं पर दीपक का आरोप करते हुए अपने दृढ़ आत्म-विश्वास तथा ऊपर ही उठते जाने की भावना की अभिव्यंजना की है।
व्याख्या- कवि ने युग-युग के अनुभव और ज्ञान से लाभ उठाकर समकालीन समाज के लिए उपयोगी और लाभदायक ज्ञान राशि का संचय किया है। उसने अपने जीवनानुभवों को निचोड़कर उससे दूसरों के लिए अमृत का संग्रह किया है। उसने विघ्न बाधाओं की परवाह किये बिना साहस और शक्ति के साथ सत्य का साक्षात्कार किया है। वह जो कुछ है, अपने स्वाभाविक रूप में है। उसमें कोई मिलावट अथवा बनावट कदापि नहीं है। वह न दूसरों के समान है और न दूसरा कोई उसके समान है। ऐसा असाधारण और अद्वितीय व्यक्तित्व समाज को एकजुट, संगठित और शक्तिशाली बनाने के लिए अपने आप को स्वेच्छा से समर्पित कर देना चाहता है
यह सच है कि एक व्यक्ति के रूप में कवि की शक्ति एवं क्षमता सीमित है फिर भी उसे अपने आप पर भरोसा है और वह कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी घबड़ाने वाला नहीं है। उसने अपनी पीड़ा का अनुभव स्वयं किया है और उसे पूरे साहस एवं धैर्य के साथ झेला है किसी दूसरे ने उसके दुःख में हाथ नहीं बँटाया और न उसने किसी से यह अपेक्षा की कि वह उसके दुःख में हाथ बँटाये। दूसरों से बार-बार अपमानित, निन्दित और तिरस्कृत होकर भी वह अपने प्रयत्न में लगा रहा। दूसरों ने उसके दुःख का अनुभव भले न किया हो, परन्तु वह सदैव दूसरों के दुःख से दुःखी हुआ। अपने आस-पास की घटनाओं को उसने सदैव ध्यान से देखा, सुना और अनुभव किया। अज्ञान और अन्धविश्वास को उसने कभी अपने पास फटकने नहीं दिया और दूसरों को भी सदैव उनसे सावधान रहने का आग्रह करता रहा। इस तरह दीर्घकाल के ज्ञान, अनुभव और प्रयत्न से उसने अपनी अस्मिता को खोजा तथा पाया। उसने अपने स्वप्रयत्न से अपना असाधारण व्यक्तित्व निर्मित किया। उसी असाधारण व्यक्तित्व को वह स्वेच्छा से समाज रूपी विराट् पुरुष की सेवा में समर्पित कर देना चाहता है ।
विशेष- उपरोक्त पंक्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं -
- कवि प्रतिमा स्वयं निर्मित होती है, रचनाकार के रूप में ब्रह्म के समान ही है।
- अनुप्रास, रूपक तथा रूपकातिशयोक्ति अलंकार है।
Bahut sateek aur sarthak vyakhya ki hai.thanks
जवाब देंहटाएंHindi Literature ke
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