हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण और समस्या Adikal Ka Namkaran ugc net आदिकाल हिंदी साहित्य का इतिहास aadikaal ka naamkaran in hindi hindi sahitya ba
आदिकाल के नामकरण की सार्थकता
आदिकाल का नामकरण आदिकाल का नामकरण इन हिंदी hindi sahitya ka aadikal - हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग नामकरण की दृष्टि से विवादास्पद रहा है। तत्कालीन जनमानस की सहज अनुभूतियों एवं पर्यावरण की गत्यात्मक परिस्थिति के मध्य विभिन्न विद्वानों ने इस युग को विभिन्न शीर्षकों के मध्य निबद्ध किया है। भाषा की संवैधानिक परीक्षा के आधार पर इस युग की भाषा पर अपभ्रंश भाषा का प्रभाव पूर्णरूप से दिखायी पड़ता है। विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों एवं समाज की जटिलताओं के मध्य हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग विकासोन्मुख होते हुए भी अपने संक्रमण काल से गतिशील हो रहा था। यहाँ पर एक सहज एवं स्वाभाविक प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि इसे किस शीर्षक के अन्तर्गत मूल्यांकित किया जाय। विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने मत के समर्थन में इस युग को निम्नलिखित नाम दिये हैं-
1. वीरगाथा काल - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
2. चारण काल - डॉ. रामकुमार वर्मा
3. सिद्ध- सामंतयुग - राहुल सांकृत्यायन
4. बीज-वपनकाल - महावीरप्रसाद द्विवेदी
5. संक्रमण काल - डॉ. राम खेलावन
6. आदिकाल - हजारीप्रसाद द्विवेदी, मिश्रबंधु
7. आधारकाल - डॉ. मोहन अवस्थी
आदिकाल का नामकरण वीरगाथा काल
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग को 'वीरगाथा काल' कहा है। शुक्ल जी ने अभीष्ट नामकरण के संदर्भ में दो प्रवृत्तियों पर विचार किया है-
- तत्कालीन मानव मनोविज्ञान
- तत्कालीन वीरगाथात्मक प्रवृत्ति ।
हिन्दी साहित्य का यह युग नाथ-सम्प्रदाय, सिद्ध सम्प्रदाय, डिंगल भाषा, पिंगल भाषा के परिवेश में फलता-फूलता रहा। इस पर अपभ्रंश साहित्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव रहा। आचार्य शुक्ल ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित पुस्तकों का नाम गिनाया है- पृथ्वीराज रासो, कीर्तिलता, परमालरासो, विद्यापति पदावली, खुमानरासो, हम्मीररासो, बीसलदेवरासो, कीर्तिपताका, जयचन्द्र प्रकाश, जयमयंक जसचन्द्रिका, विजयपाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ।
शुक्लजी ने जितनी पुस्तकों का नाम गिनाया है, उनमें खुसरो की पहेलियों को छोड़कर अन्य सभी अपभ्रंश भाषा का प्रभाव अवश्य दिखायी पड़ता है। विद्यापति की रचनाओं का समावेश करना स्वाभाविक नहीं प्रतीत होता है। शुक्लजी की यह धारणा कि, "इस संक्षिप्त सामग्री से जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है, हमें उसी से संतोष ग्रहण करना पड़ेगा। वस्तुत. यह कथन शुक्लजी के भ्रम को प्रदर्शित करने वाला है। हिन्दी साहित्य की परिधि से धार्मिक रचनाओं को अलग करना स्वाभाविक नहीं प्रतीत होता । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्ट किया है कि, “धार्मिक प्रेरणा अथवा आध्यात्मिक चेतना किसी काव्य में बाधक नहीं होती, यदि ऐसा होता तो हमें रामचरितमानस, महाभारत, रामायण, श्रीमद्भगवद् गीता जैसे धार्मिक ग्रन्थों को रचना-पद्धति से बाहर रख देना पड़ता।"
चारण काल
हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग को डॉ. रामकुमार वर्मा ने चारणकाल की संज्ञा से अभिहित किया है। इस युग का परिवेश विभिन्न मत-मतान्तरों के अन्तर्गत तथा युद्ध के भीषण परिवेश से पर्यवेष्टित रहा। जिसमें स्वतन्त्र चेतना का निरन्तर ह्रास हुआ। कविगण युद्ध के समय राजा का अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से गुणगान करते थे। यह कार्य शान्ति के भी समय होता रहा। इसीलिए डॉ. वर्मा की चारणी प्रवृत्ति के आधार पर टिप्पणी करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है- "इस युग को चारणकाल न कहकर चारण-काव्य की संज्ञा प्रदान की जाती, तब यह नामकरण किसी सीमा तक उपयुक्त माना जाता।”
सिद्ध-सामंत युग
हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग में सिद्धों और सामन्तों का बाहुल्य रहा है। तत्कालीन प्रवृत्ति के अन्तर्गत सिद्धों और सामन्तों का प्रक्रिया-क्रम में निरन्तर विकास हुआ। जहाँ सिद्ध लोग मन्त्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने में अपने को सन्तुष्ट करते थे, वहीं पर सामन्त लोग युद्ध के परिवेश में तथा शान्ति की स्थिति में अपनी प्रशंसा सुनकर सन्तुष्ट . होते थे। ऐसी परिस्थिति में इस युग को पं० राहुल सांकृत्यायन जी ने सिद्ध-सामन्त युग कहा है, जिस पर आपत्ति उठाते हुए डॉ. भोलानाथ तिवारी जी ने लिखा है कि, "सिद्ध-सामन्त युग. हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग के लिए उपयुक्त नहीं है। इस नामकरण में भाषा-वैज्ञानिक त्रुटि है तथा समूची प्रवृत्ति का अभाव है।"
बीज वपनकाल
निःसन्देह हिन्दी का आरम्भिक युग बीज-वपनकाल की मौलिक संज्ञा से विभूषित हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस युग को हिन्दी का बीज बोने वाला युग कहा है। तात्त्विक समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि इस युग में अपभ्रंश भाषा का निरन्तर बाहुल्य बना रहा। ऐसी स्थिति में हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग बीज-वपनकाल की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता। डॉ. वासुदेव शरण सिंह ने लिखा है कि, “द्विवेदीजी का अभीष्ट नामकरण कुछ सीमा तक समीचीन प्रतीत होता है, किन्तु इससे मूल प्रवृत्ति एवं परिवेश का बोध नहीं हो पाता है।"
संक्रमण काल
हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग संक्रमण काल की संज्ञा से विभूषित किया गया। निःसन्देह हिन्दी साहित्य का यह युग अपभ्रंश भाषा से प्रभावित होने के कारण हिन्दी भाषा की मानक स्थिति को स्पष्ट करने में असमर्थ होने के कारण संक्रमण काल कहा गया। यह संज्ञा डॉ. रामखेलावन द्वारा दी गयी है। इस नाम की तात्त्विक समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि अभीष्ट नामकरण सीमा विशेष के अन्तर्गत ही औचित्य ग्रहण करता है। सर्वांगीण दृष्टिकोण एवं मुख्य प्रवृत्तियों के आधार पर यह नाम सार्थक नहीं सिद्ध होता।
अंतर्विरोधों का काल
हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग विभिन्न सम्प्रदायों के अन्तर्गत विभक्त होने के कारण अंतर्विरोधों के युग के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। नाथ सम्प्रदाय, सिद्ध सम्प्रदाय, सामन्तों का बाहुल्य, वीरगाथात्मक प्रवृत्ति, डिंगल, पिंगल भाषा का प्रयोग, अपभ्रंश और हिन्दी का मिश्रण इत्यादि विविध कारक हैं, जिनसे विरोधों की स्थिति उत्पन्न होती रही। इस आधार पर ही कुछ विद्वानों ने इस काल को अंतर्विरोधों का काल कहा। किन्तु तात्त्विक समीक्षा के आधार पर इस युग को अंतर्विरोधों का काल कहना उचित नहीं प्रतीत होता।
आधारकाल
विभिन्न मत-मतान्तरों के आलोक में हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग नामकरण की दृष्टि से विवेचन का विषय रहा है। डॉ. मोहन अवस्थी ने हिन्दी साहित्य के अद्यतन इतिहास में इस युग को आधारकाल की संज्ञा प्रदान की है। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने भी लिखा है कि, "भाव एवं परम्परा की दृष्टि से हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग आधारकाल की संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है, क्योंकि हिन्दी को गतिशील करने के लिए यही युग आधार युग बना।" इन तर्कों के बावजूद यह नाम प्रचलन में नहीं आ सका।
आदिकाल
हिन्दी साहित्य का आरम्भिक युग आदिकाल की संज्ञा से विभूषित है। इस नाम को मान्यता भी मिल गयी है। डॉ. नगेन्द्र ने भी लिखा है कि, “आदिकाल ही ऐसा नाम है, जिसे किसी-न-किसी रूप में सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है तथा जिससे हिन्दी साहित्य के इतिहास की भाषा, भाव, विचारधारा, शिल्प-भेद आदि से सम्बद्ध सभी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। इस नाम से उस व्यापक पृष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर आगे का साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिन्दी के आदि रूप का बोध पा सकते हैं, तो भाव की दृष्टि से इसमें भक्तिकाल से आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज खोज सकते हैं। जहाँ तक रचना-शैलियों का प्रश्न है, उनके भी वे सभी रूप, जो परवर्ती कांव्य में प्रयुक्त हुए, अपने आदि रूप में मिल जाते हैं। इस काल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। अत: आदिकाल ही सबसे अधिक उपयुक्त एवं व्यापक नाम है।
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