अपभ्रंश का परिचय प्रमुख विशेषताएँ अपभ्रंश भाषा का इतिहास अपभ्रंश भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं अपभ्रंश भाषा का विकास अवहट्ट और पुरानी हिंदी का संबंध
अपभ्रंश का परिचय और प्रमुख विशेषताएँ
अपभ्रंश का परिचय और प्रमुख विशेषताएँ अपभ्रंश भाषा का इतिहासअपभ्रंश भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं अपभ्रंश भाषा का विकास अवहट्ट और पुरानी हिंदी का संबंध - भाषा का विकास सतत और अखण्ड रूप में होता चला गया है। कब बोलचाल की वैदिक भाषा बोलचाल की संस्कृत बनी और कब बोलचाल की संस्कृत प्राकृत बन गयी और कालान्तर में वही प्राकृत अपभ्रंश में और अपभ्रंश अवहट्ठ में तथा अवहट्ठ पुरानी हिन्दी में परिणत हो गयी, इसकी तिथियाँ निश्चित करना न तो स्वाभाविक है और न आवश्यक ही। जो काल-सीमाएँ निर्दिष्ट की गयी हैं, वे केवल कामचलाऊ रूप में समझने की सुविधा की दृष्टि से ही की गयी हैं। सच तो यह है कि भाषा और साहित्य को विज्ञान की सीमाओं में बहुत दूर तक घसीटना भाषा और साहित्य के साथ अन्याय ही है।
भाषा के अखण्ड विकाय को, किसी वैज्ञानिकता के फेर में पड़े बिना, रेखांकित करते हुए डॉ. हरदेव बाहरी ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी : उद्भव, विकास और रूप' में स्पष्ट लिखा है, "हिन्दी का इतिहास वस्तुत: वैदिककाल से प्रारम्भ होता है। एक तरह से यह कहना ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही प्राचीनतम हिन्दी है। इस भाषा के इतिहास का यह दुर्भाग्य है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी वैदिक, कभी संस्कृत, प्राकृत, कभी अपभ्रंश और अब हिन्दी। तमिल, रूसी, जर्मन आदि भाषाओं में भी परिवर्तन आये हैं। लोगों के उनके प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक रूप-भेद तो बताये, किन्तु उनका नाम नहीं बदला। भारत में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा है।" यदि उपर्युक्त तर्क पद्धति के अनुसार सोचा जाये और ऐसा सोचना सर्वथा युक्तिसंगत भी है, तो मानना होगा कि वैदिक संस्कृत और प्राकृतों तथा अपभ्रंशों से विकसित भारत की विविध भाषाएँ - मराठी, बँगला, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी आदि एक ही मूल वैदिक बोली और भाषा से विकसित हैं।
प्राकृत भाषाओं के विकास का तृतीय सोपान वस्तुतः अपभ्रंश भाषाओं के विकास का काल है, जिसकी काल-सीमा 500 ई० से 1000 ई० मानी गयी है। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है- भ्रष्ट या बिगड़ी हुई या नीचे गिरी हुई। भाषा के मानक रूप से गिरी हुई भ्रष्ट भाषा को 'अपभ्रंश' कहा जाता है। पूर्ववर्ती परिनिष्ठित संस्कृत की तुलना में प्राकृत बोलियों से विकसित अपभ्रंश बोलियाँ और भाषा निश्चिय ही बिगड़ी हुई प्रतीत होती थीं। इसीलिए संस्कृत प्रेमी तथा आभिजात्यवादी कुछ विद्वानों ने उपेक्षा भाव से इन्हें 'अपभ्रंश' कहा होगा। इन्हीं के परवर्ती रूप को अवहट्ठ भी कहा जाता है। पं० किशोरीदास वाजपेयी ने इन भाषाओं को तृतीय प्राकृत कहना ही समीचीन समझा है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हिन्दी शब्दानुशासन' में उन्होंने लिखा है, "इन तीसरी प्राकृतों को या प्राकृत की तीसरी अवस्था के रूपों को लोग 'अपभ्रंश' कहते हैं, जो ठीक नहीं। तीसरी प्राकृत कहना ठीक है। कली खिलकर फूल बन जाये तो कहा जायेगा- कली खिल गई, कली फूल बन गई। यह न कहा जायेगा कि कली बिगड़ गई या कली का बिगड़ा हुआ रूप फूल है।" वस्तुतः विविध प्राकृतों और हिन्दी मराठी. गुजराती, राजस्थानी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कड़ी अपभ्रंश ही है। सभी आधुनिक भाषाएँ अपभ्रंश की अवस्था के मध्य से ही विकसित हुई हैं।
भाषा के रूप में अपभ्रंश का व्यवहार छठीं शती के प्रारम्भ से ही आरम्भ हो गया था और ग्यारहवीं शती तक निरन्तर चलता रहा। अपभ्रंश का एक रूप साहित्यिक और स्तरीय था, जो पूरे देश में व्याप्त था। डॉ० हरिबल्लभ भायाणी, डॉ० भोगीलाल सांडेसरा आदि विद्वान अपभ्रंश का एक ही समग्र देशव्यापी रूप मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार अपभ्रंश में रचित साहित्य में भाषा- भेद नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत कुछ विद्वान् प्रदेश-भेद के अनुसार अपभ्रंश के अनेक भेद मानते हैं। उनकी मान्यता है कि प्राचीन काल से चली आ रही पाँच प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंशों का विकास हुआ तथा इन पाँचों अपभ्रंशों से ही वर्तमान भारतीय भाषाओं का विकास हुआ।
अपभ्रंश भाषा की विशेषताएं
अपभ्रंश की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- प्राकृत में प्रयुक्त ध्वनियाँ ही अपभ्रंश में प्रयुक्त होती रहीं।
- अपभ्रंश में शब्दों के अन्त में 'उ' लगाने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती गयी, यथा- जगु, पुत्तु, कासु, तासु आदि ।
- श, ष के स्थान पर स का प्रयोग होने लगा।
- क्ष के स्थान पर क्ख या च्छ का प्रयोग होने लगा, यथा- पक्षी -पक्खी -चक्खु, पंछी -पच्छी, परीक्षा -परिच्छा
- कहीं-कहीं मध्यगत म का' वँ' हो गया, यथा- भ्रमर भँवर, कमल कँवल।
- प्रथम को छोड़कर बाद के संयुक्त व्यंजन में से एक का लोप और पूर्ववर्ती ह्रस्व स्वर दीर्घ स्वर बनने लगा, यथा-कम्पकाम, तस्य तासु ।
- नपुंसक लिंग और द्विवचन का लोप हो गया।
- संयुक्ताक्षरों में र का प्रायः लोप हो गया, यथा- चन्द्र -चन्द, भ्रमर - भँवर, प्रिय पिअ ।
- वाक्यों में पदों का क्रम निश्चित हो गया, जिससे विभक्तियों के लोप होने से उत्पन्न अस्पष्टता कुछ कम हो गयी।
- अपभ्रंश में श्लिष्ट योगात्मकता से वियोगात्मकता की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
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