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भाषा की प्रमुख विशेषताएँ भाषा के अभिलक्षण Bhasha Ki Visheshta Aur Prakriti
भाषा की प्रमुख विशेषताएँ भाषा के अभिलक्षण Bhasha Ki Visheshta Aur Prakriti - भाषा की परिभाषा अनुसार यह कहा जाता है कि- “भाषा वाच्य श्रव्य ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से किसी भाषा-समाज में वक्ता-श्रोताओं के मध्य भावों-विचारों का पारस्परिक सम्प्रेषण सम्भव होता है।" इस परिभाषा से भाषा की प्रकृति की अनेक विशेषताओं-सामाजिकता, वाच्यता-श्रव्यता, व्याकरणिक व्यवस्था, वैचारिकता, सम्प्रेषणीयता आदि पर प्रकाश पड़ता है। भाषा व्यक्ति और समाज के विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। विचारों में पूरा सांस्कृतिक परिवेश समाहित रहता है। भाषा में मानव-मनोविज्ञान, सामाजिक परिवेश, ध्वनियों से सम्बन्धित भौतिक पक्ष, व्याकरणिक व्यवस्था तथा अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण समाहित है। यहाँ भाषा की प्रकृति की मूलभूत विशेषताओं पर किंचित् विस्तार से विचार किया जायेगा।भाषा की ये विशेषताएँ मूलभूत होने के कारण विश्व की सभी भाषाओं में पायी जाती हैं। भाषा की प्रमुख विशेषताओं में बारे में वर्णन निम्नलिखित है -
भाषा सामाजिक सम्पत्ति है
भाषा समाज के सदस्यों द्वारा समाज के मध्य से ही समाज के व्यवहार या उपयोग के उद्देश्य से निर्मित या विकसित होती है। इस प्रकार भाषा समाज में ही जन्म लेती है, समाज में विकसित होती है, समाज के सदस्यों के द्वारा ही व्यवहृत होती है। भाषा का समूचा अस्तित्व और व्यक्तित्व समाज-सापेक्ष है। बच्चा समाज में रहकर बोलना सीखता है, शिक्षित होता है और विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, व्यावसायिक कार्यों के लिए वाग्व्यवहार करता है। यह समाज स्वदेशी भी हो सकता है और विदेशी भी । यदि किसी प्रवासी भारतीय के परिवार में कोई शिशु अमेरिका में जन्म लेता है तो वह अमेरिका की भाषा ही सीखता है। इसी प्रकार यदि कोई पंजाबी मद्रास में रहने लगता है, तो उसके बच्चे वहीं की भाषा सामाजिक सम्पर्क से अर्जित करते हैं। इस प्रकार भाषा सामाजिक सम्पर्क से अर्जित होने के कारण सामाजिक सम्पत्ति है।
भाषा अर्जित सम्पत्ति है
यों तो प्रायः अन्य सम्पत्तियाँ भी अर्जित ही की जाती है। खून-पसीना बहाकर धन कमाया जाता है, किन्तु कभी लूट का धन या पैतृक सम्पत्ति बिना कमाये या अर्जित किये हुए भी मिल जाती है। भाषा तो कमानी या अर्जित ही करनी पड़ती है, यह लूट के माल की भाँति कभी किसी को नहीं प्राप्त होती। हाँ, उत्तम पारिवारिक, सामाजिक वातावरण, सुन्दर शिक्षा-व्यवस्था से भाषार्जन में सुविधा अवश्य मिलती है। बड़े-बड़े प्रोफेसर, शोधक, साहित्यकार तो रात-दिन तपस्या करके भाषा का उच्चस्तरीय ज्ञान अर्जित करते हैं। भाषा की पावन पूँजी से सम्पन्न विद्वान् की वाक्पटुता के सामने तो बड़े-बड़े पूँजीपतियों को कुण्ठित होना पड़ा है।
भाषा परिवर्तनशील है
भाषा एक सजीव प्राणी के समान विकसनशील है। भाषा के जीवन में भी शैशव, यौवन एवं वृद्धत्व आते हैं। विकास की गति मन्द पड़ते ही भाषा ह्रासोन्मुख होने लगती है। भाषा की जीवनी-शक्ति, उसकी परिवर्तनशीलता और विकासशीलता में ही व्यक्त होती है। भाषा निर्झर की भाँति सतत प्रवाहमान रहती है। भाषा में परिवर्तन कई रूपों में होता है। अशुद्ध उच्चारण या अनुकरण की अपूर्णता के कारण अनेक तत्सम शब्द तद्भव हो जाते हैं, यथा- दुग्ध-दूध, अग्नि-आग, चतुर्वेदी- चौबे, द्विवेदी-दुबे, उज्ज्वल-उजला, दुर्बल-दुबला, घृत-घी, अक्षि-आँख, दन्त-दाँत आदि।
वाक्य-रचना में भी परिवर्तन आता है। अंग्रेजी के वाक्य-विन्यास के प्रभाव से कार्यालयीय हिन्दी के अनेक वाक्य स्पष्ट प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। अंग्रेजी, उर्दू-फारसी के अतिरिक्त पंजाबी, राजस्थानी, बँगला, मराठी आदि के अनेक शब्द भी हिन्दी में मिलकर भाषा के स्वरूप में परिवर्तन प्रस्तुत करते हैं। यह परिवर्तन की प्रक्रिया पहले उच्चरित भाषा में होती है, बाद में लिखित भाषा में भी उस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाता है।
भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर अग्रसर होती है
प्राचीन काल में प्राय: सभी भाषाएँ संश्लिष्ट अथवा संयोगावस्था में थी अर्थात् उनके रूप तत्त्व कर्त्ता, कर्म, क्रिया आदि के साथ जुड़े रहते थे। उदाहरण के लिए, 'सीता पाठशालां पठति' वाक्य में 'पाठशालायां' का अर्थ है 'पाठशाला में' अर्थात् 'सीता पाठशालां' के साथ अधिकरण कारक की विभक्ति साथ ही जुड़ी हुई है। इसी प्रकार 'पठति' का अर्थ 'पढ़ती है' अर्थात् पठ् धातु में वर्तमानकालिक लट् लकार का (ति) प्रत्यय जुड़ा हुआ है। संस्कृत संश्लिष्ट या संयोगात्मक भाषा है, तो हिन्दी विश्लिष्ट या वियोगात्मक भाषा है। हिन्दी में उक्त वाक्य को लिखा जायेगा - 'सीता पाठशाला में पढ़ती है।' इसी प्रकार 'इदं कालिदासप्रणीतं मेघदूतमस्ति' को हिन्दी में 'यह कालिदास के द्वारा रचा गया मेघदूत है।' लिखने पर वियोगात्मकता स्पष्ट झलकती है।
भाषा स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होती है
भाषा के उदय-काल में भाषा सहसा इतनी प्रौढ़ नहीं हो पाती कि वह सूक्ष्म विचारों और गहन भावों को अभिव्यक्त कर सके। कालान्तर में भाषा में शब्द-भण्डार की भी निरन्तर वृद्धि होती जाती है तथा कथन की नित्य नयी भंगिमाएँ विकसित होती रहती हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय हिन्दी में वैज्ञानिक : पारिभाषिक शब्दावली का अभाव था, किन्तु अब सभी वैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक विषयों की पारिभाषिक शब्दावलियाँ सुलभ हैं, जिनकी सहायता से ज्ञान और विज्ञान से सम्बन्धित किसी भी विषय को हिन्दी के माध्यम से सफलतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता है।
प्रत्येक भाषा स्वयं में पूर्ण और स्वतन्त्र होती है
प्रत्येक भाषा का विकास उस भाषा के समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप होता है। अतः प्रत्येक भाषा की संरचना का ढाँचा दूसरी भाषाओं के ढाँचे से भिन्न और स्वतन्त्र होता है। प्रत्येक भाषा अपने समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रहती है। जिस क्षेत्र में उद्योग-धन्धे अधिक हैं, वहाँ उद्योग-धन्धों से सम्बन्धित शब्दावली का ही अधिक विकास होता है। जहाँ कृषि पर बल है, वहाँ कृषि-सम्बन्धी शब्दावली की प्रचुरता पायी जाती है। पहाड़ी क्षेत्र की भाषाओं में पर्वतों, पत्थरों, जंगलों, पशु-पक्षियों से सम्बन्धित शब्दावली बहुलता से मिलती है। आदिवासियों की भाषा में भले ही उनकी दैनिक आवश्यकताओं के अनुरूप शब्द-भण्डार और वाक्य-रचना के रूप समुन्नत भाषाओं की अपेक्षा सीमित ही हों, किन्तु उनकी भाषा स्वयं में पूर्ण, स्वायत्त और स्वतन्त्र होती है। वटवृक्ष भी स्वयं में पूर्ण है, नीबू और तुलसी का पौधा भी। ऐसी ही अति समुन्नत, अति सीमित और अविकसित भाषाएँ अपने-अपने परिवेश की दृष्टि से पूर्ण और स्वतन्त्र हैं। जैसे-जैसे किसी भाषा-समाज की आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं, उसकी भाषा का स्वरूप भी तद्नुसार विकसित होता जाता है।
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