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भाषा के सम्बन्ध में विभिन्न भाषा वैज्ञानिकों के विचारों की समीक्षा
भाषा की परिभाषा उदाहरण सहित Bhasha Kise Kahate Hain Udaharan Sahit - भारत में भाषाविषयक चिन्तन वैदिक युग से ही प्रारम्भ हो गया था। वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश डालने वाले आचार्य यास्क और लौकिक संस्कृत के महान व्याकरणाचार्य पाणिनी ने भाषा की कोई परिभाषा तो नहीं दी, किन्तु उन्होंने वैदिक भाषा की तुलना में बोलचाल में व्यवहृत होने वाली लौकिक संस्कृत के लिए 'भाषा' शब्द का प्रयोग किया है। पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' नामक महान् व्याकरण-ग्रन्थ की टीका लिखने वाले महाभाष्यकार पतंजलि ने भाषा की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि, "वर्णों के माध्यम से व्यक्त सार्थक वाणी ही भाषा है।"
"व्यक्ता वाचि वर्णा येषां त इमें व्यक्तवाचः।" व्यक्त वाणी को ही भाषा कहा जाता है अव्यक्त वाणी को नहीं। इसका आशय यह है कि मनुष्य भीतर ही भीतर अपने मन में बहुत-कुछ सोचता और अनुभव करता रहता है तथा यह सोचने की आन्तरिक क्रिया भी भाषा द्वारा ही होती है, किन्तु भाषा के माध्यम से किये गये इस आन्तरिक एकालाप को भाषा नहीं कहते। भाषा तो वाणी का व्यक्त रूप ही है।
आधुनिक भाषाविज्ञान के अनुसार भाषा की परिभाषा
आधुनिक भाषाविज्ञानियों ने भाषा की अपनी-अपनी परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें शब्दावली का ही किंचित् हेर-फेर है, किन्तु मूल मन्तव्य प्रायः एक ही है। यहाँ कुछ प्रमुख परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं-
प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी डॉ. बाबूराम सक्सेना ने भाषा की परिभाषा करते हुए लिखा है, “जिन ध्वनि-चिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।" इस परिभाषा में निम्नलिखित तीन बातें रेखांकित की गयी हैं-
(क) भाषा का सम्बन्ध मनुष्यों से है।
(ख) यह पारस्परिक विचार-विनिमय का माध्यम है।
(ग) भाषा ध्वनि-चिह्नों की समष्टि है।
नलिनीमोहन सान्याल भाषा की परिभाषा करते हुए भाषा की निर्मिति के मौलिक आधार पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "अपने स्वर को विविध प्रकार से संयुक्त तथा विन्यस्त करने से, उसके जो-जो आकार होते हैं, उनका संकेतों के सदृश व्यवहार कर अपनी चिन्ताओं तथा मनोभावों को जिस साधन से हम प्रकाशित करते हैं, उस साधन को हम भाषा कहते हैं।" प्रस्तुत परिभाषा में महत्त्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि भाषा में जितने भी स्वर और व्यंजन प्रयुक्त होते हैं वे हमारी वाणी के ही विविध रूप या आकार हैं, यथा- कण्ठ से बोली जाने वाली ध्वनियों के विविध रूप या आकार क, ख, ग, घ, ङ हैं। इसी प्रकार तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, ओष्ठ्य ध्वनियाँ हैं। इन्हीं ध्वनि संकेतों से निर्मित शब्दावली को मानवीय चिन्ताओं अर्थात् विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जाता है। इस प्रकार भाषा भावों और विचारों के प्रकाशन का माध्यम है।
डॉ० भोलानाथ तिवारी ने भाषा की तत्त्वपूर्ण परिभाषा करते हुए लिखा है- “भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चरित मूलतः प्रायः यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा-समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।"
इस परिभाषा में 'भाषा-समाज' की अवधारणा का समावेश विशेष उल्लेखनीय है। विचारों का आदान-प्रदान उसी समाज में सम्भव है, जिसके सदस्य किसी एक भाषा को भली-भाँति जानते हैं और उसके संस्कारों में परस्पर आबद्ध हैं। उदाहरण के लिए, एक पंजाबीभाषी पंजाब प्रदेश में अपने भाषा-परिवार में पारस्परिक वार्त्तालाप का पूरा आनन्द लेता है, वही अफ्रीका में पहुँचकर वैचारिक आदान-प्रदान की सुविधा से वंचित होने के कारण अत्यन्त उदास और कुण्ठित हो जाता है और वहाँ किसी अन्य पंजाबी को पाकर पुनः आनन्दित हो उठता है।
डॉ० सरयूप्रसाद अग्रवाल ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है- “भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छन्द प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है, जिससे मानव-समाज अपने भावों का परस्पर आदान-प्रदान करते हुए एक-दूसरे को सहयोग देता है।" इस परिभाषा में स्पष्ट किया गया है कि क, ख, ग, घ आदि स्वतन्त्र ध्वनि-प्रतीक हैं, किन्तु रीतिबद्ध पद्धति (व्याकरणिक व्यवस्था) के अंग बनते ही वे शब्दों, पदबन्धों और वाक्यों का रूप लेकर वैचारिक आदान-प्रदान के माध्यम बन जाते हैं।
डॉ० देवीशंकर द्विवेदी ने भाषा की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखा है- “भाषा यादृच्छिक वाक्प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से मानव-समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।"
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भाषा
प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक और भाषाशास्त्री प्लेटो ने अपने ग्रन्थ 'सोफिस्ट' में विचार और भाषा के सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए कहा है- “विचार आत्मा की मूल या अध्वन्यात्मक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है, तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।" यहाँ यह ध्यातव्य है कि प्लेटो के अनुसार विचार अव्यक्त वाणी है और वाणी व्यक्त विचार। इस प्रकार भाषा के माध्यम से किया गया आन्तरिक चिन्तन स्वयं में अव्यक्त वाणी है, व्यक्त वाणी का रूप लेकर ही वह भाषा बनता है। भारतीय आचार्यों ने भी व्यक्त वाणी को ही भाषा माना है अव्यक्त वाणी या चिन्तन को नहीं। प्रकारान्तर से इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि अव्यक्त चिन्तन ही व्यक्त वाणी में साकार होता है। अनुभूति ही अभिव्यक्ति का रूप लेती है। अर्थ ही शब्दाकार होता है। इस प्रकार भाषा की संरचना में अर्थ और ध्वनि एकाकार हो जाते हैं। शब्द एक साथ ही अर्थ भी है और ध्वनि भी। इस प्रकार भाषा में विचार-तत्त्व (अर्थ) और ध्वनि तत्त्व का सामंजस्य घटित होता है।
बलाख तथा ट्रेजर ने भाषा की सुबोध एवं सारपूर्ण परिभाषा करते हुए लिखा है, "A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group operates."
अर्थात् “भाषा यादृच्छिक वाक्प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से कोई सामाजिक समुदाय व्यवहार करता है।"
हेनरी स्वीट ने भाषा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है- "Language may be defined as the expression of thought by means of speech sounds."
अर्थात् "ध्वनि-प्रतीकों के माध्यम से विचार की अभिव्यक्ति को ही भाषा कहा जाता है।" स्पष्ट है कि भाषा वैचारिक अभिव्यक्ति का वाचिक माध्यम है।
उपर्युक्त परिभाषाओं पर विचार करने से भाषा के निम्नलिखित आयाम है-
- (क) वक्ताओं-श्रोताओं से युक्त एक भाषा-समाज (सामाजिक आयाम),
- (ख) सम्प्रेषणीय भाव और विचार (मानसिक पक्ष),
- (ग) यादृच्छिक वाक्प्रतीक (भाषा का वाच्य-श्रव्य ध्वन्यात्मक आयाम),
- (घ) वाक्प्रतीकों की व्यवस्था (व्याकरणिक आयाम),
- (ङ) भावों और विचारों का सम्प्रेषण (अभिव्यक्तिगत आयाम)।
इन पाँचों आयामों में प्रथम दो भाषा के भाव-पक्ष या अर्थ से सम्बन्धित हैं और शेष तीन उसके अभिव्यक्तिपक्ष से सम्बन्धित हैं। कुल मिलाकर भाषा में अर्थ या अनुभूति ही अभिव्यक्ति के रूप में साकार होती है। अनुभूति की अभिव्यक्ति ही भाषा है। उपर्युक्त पाँचों आयामों को सम्मिलित करते हुए हम भाषा की एक सर्वसमावेशी परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं-
“भाषा वाच्य-श्रव्य, यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्याकरणिक व्यवस्था है, जिसके माध्यम से किसी भाषा-समाज में वक्ता-श्रोताओं के मध्य भावों-विचारों का पारस्परिक सम्प्रेषण सम्भव होता है।"
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