भाषाविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ भाषा विज्ञान की अध्ययन पद्धतियां अथवा दिशाएं कौन कौन सी है हिन्दी भाषा भाषाविज्ञान वर्णनात्मक तुलनात्मक प्रायोगिक
भाषाविज्ञान के अध्ययन के प्रकार एवं पद्धतियां
भाषा विज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ भाषा विज्ञान की अध्ययन पद्धतियां अथवा दिशाएं कौन कौन सी है?bhasha vigyan ke adhyayan ki paddhati - भाषाविज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है- भाषा और विज्ञान। इस प्रकार भाषाविज्ञान वह विज्ञान है, जिससे भाषा का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन कई दृष्टियों से होता है। उनको ध्यान में रखते हुए भाषाविज्ञान के चार प्रमुख रूप माने जाते हैं। वर्णनात्मक अथवा विवरणात्मक, तुलनात्मक भाषाविज्ञान, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान, प्रायोगिक भाषाविज्ञान। भाषा-विज्ञान और हिन्दी भाषा भाषाविज्ञान का अध्ययन निम्नलिखित पद्धतियों से किया जाता है -
1. वर्णनात्मक
2. तुलनात्मक
3. ऐतिहासिक
4. प्रायोगिक
वर्णनात्मक भाषाविज्ञान
इसमें किसी एक भाषा का, किसी एक काल में ध्वनि, रूप, शब्द, अर्थ, वाक्य रचना के आधार पर अध्ययन किया जाता है। आज का भाषाविज्ञान जिसे वर्णनात्मक भाषाविज्ञान कहते हैं, वास्तव में विश्लेषणात्मक है। इसलिए इसे विश्लेषणात्मक भाषाविज्ञान भी कहते हैं। इसमें ध्वनि, रूप, वाक्य, रचना आदि का वर्णन या विवरण होने के साथ-साथ संरचना के उपकरणों का पूरा विश्लेषण भी होता है।
तुलनात्मक भाषाविज्ञान
जिसमें दो या दो से अधिक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, उसे तुलनात्मक भाषाविज्ञान कहते हैं। यह अध्ययन तुलना किये जाने वाली भाषाओं की ध्वनियों, पदों, शब्दों, अर्थों, वाक्यों आदि के आधार पर किया जाता है। इस रूप का भाषाविज्ञान में विशेष महत्त्व है, क्योंकि वस्तुतः तुलनात्मक अध्ययन ने ही भाषाविज्ञान को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए, जब प्रारम्भ में पश्चिम के भाषावैज्ञानिकों ने विश्व की प्राचीन भाषाओं के कुछ शब्दों का अध्ययन किया और उस आधार पर भाषाओं में निकटता स्थापित की तो उसका प्रमुख साधन तुलनात्मक अध्ययन ही था। जैसे- संस्कृत के 'पितृ' को लेकर उसके अन्य भाषाओं के इसी अर्थ को व्यक्त करने वाले शब्दों के साथ तुलनात्मक अध्ययन को लिया जा सकता है।
इसीलिए प्रारम्भ में भाषाविज्ञान का नाम तुलनात्मक भाषाविज्ञान रखा गया। इस प्रकार भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए तुलनात्मक भाषाविज्ञान का विशेष महत्त्व है।
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान
किसी एक भाषा के विभिन्न कालों के विवरण जब मिला दिये जाते हैं, तब उसे ऐतिहासिक अध्ययन कहते हैं। इस प्रकार इसमें किसी भाषा के इतिहास का अध्ययन किया जाता है तथा सिद्धान्त की दृष्टि से उस भाषा के परिवर्तन सम्बन्धी सिद्धान्तों, नियमों तथा कारणों आदि का निर्धारण होता है। जहाँ वर्णनात्मक भाषाविज्ञान में किसी भाषा का सीमित अध्ययन होता है, वहीं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान में गतिशीलता होती है क्योंकि इसमें किसी भाषा का विकासात्मक अध्ययन होता है। उदाहरण के लिए, यदि हिन्दी में प्रयुक्त होने वाले 'काम', 'हाथ' शब्दों के विकास को जानना चाहें तो प्राकृत आदि में होते हुए संस्कृतभाषा के इसी ऐतिहासिक अध्ययन के सहारे पहुँच सकते हैं। इस प्रकार हिन्दी के अनेक शब्दों का उद्भव एवं विकास जानने के लिए संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के रूपों का अध्ययन करना पड़ेगा। यह अध्ययन ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का विशेष महत्त्व है।
प्रायोगिक भाषाविज्ञान
भाषाविज्ञान के इस रूप का सम्बन्ध भाषाविज्ञान के प्रयोग से है। इसमें यह अध्ययन किया जाता है कि किसी भाषा की शिक्षा कैसे दें ? अनुवाद कैसे करें ? उच्चारण की गड़बड़ी कैसे सुधारें ? आदि। वास्तव में यह भाषाविज्ञान की नई कार्य-प्रणाली है। इसके अन्तर्गत जब किसी भाषा का प्रयोगात्मक अध्ययन करना होता है, तब उसके क्षेत्र में जाकर उसके बोलने वालों से निकट सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है और इस प्रकार उस भाषा का व्यावहारिक अध्ययन करना पड़ता है। उच्चस्तर की पुस्तकों का अनुवाद करने के लिए पारिभाषिक शब्दों का निर्माण आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं में काम करने के लिए टंकण यंत्रों की आवश्यकता होती है, जिसके लिए लिपि-सूची तैयार करने का काम प्रयोगात्मक भाषाविज्ञान के अन्तर्गत आता है। आधुनिक युग में भाषाविज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्रयोगशालाओं का विशेष महत्त्व है। इसके लिए विभिन्न यन्त्रों जैसे- कायमोग्राफ, ओसिलोग्राफ, आइसोग्लास आदि की आवश्यकता होती है। इस प्रकार प्रयोगात्मक भाषाविज्ञान का विशेष महत्त्व है।
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