Harivansh Rai Bachchan ki Kavyagat Visestayein || हरिवंश राय बच्चन की काव्यगत विशेषताएँ

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हरिवंश राय बच्चन की काव्यगत विशेषताएँ


रिवंश राय बच्चन की काव्यगत विशेषताएँ बच्चन का व्यक्तित्व हिन्दी काव्य में अपनी अद्भुत विशेषता एवं महत्ता रखता है। वे मानव-हृदय-मर्मज्ञ, रससिद्ध गायक, भावधनी एवं युग-प्रबुद्ध संदेश वाहक थे।हरिवंश राय बच्चन उत्तर- छायावाद या जिसे छायावाद का शेषांश कहा जाता है- उस मनोभूमि के प्रतिनिधि रचनाकारों में से रहे हैं। बच्चन की कविता का प्रधान स्वर युग की चुनौतियों-संघर्षों-तनावों-द्वन्द्वों को निर्भयता से व्यक्त करना था। इन्होंने अशरीरी, अमांसल वायवीय प्रेम के स्थान पर शरीरी मांसल प्रेम के महत्त्व की प्रतिष्ठा की।इनके काव्य में उत्तर छायावाद की दीवानी, भस्ती, जवानी, जोश, उमंग, आहलाद, उत्सर्ग, देशभक्ति में सब कुछ लुटा देने वाला भाव-बोध प्रधानता पाता है। अपने इसी भाव-बोध के कारण बच्चन ने अपने जीवन में कभी भी पराजय स्वीकार नहीं की। जहाँ पर कवि को अपने स्वाभिमान पर खतरा दिखाई दिया, वहीं कवि ने उसकी सुरक्षा के लिए शीश को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर समझा - 

क्षत शीश मगर नत शीश नहीं। 
बनकर अदृश्य मेरा दुश्मन, 
करता है मुझ पर वार सघन 
लड़ लेने की मेरी हवसें मेरे ठर के ही बीच रहीं। 
क्षत शीश मगर नत शीश नहीं । 

हरिवंश राय बच्चन की प्रणय भावना

बच्चन जी के काव्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी प्रणय-भावना है। डॉ० लालजी यादव स्वीकार करते हैं कि "बच्चन प्रणय-प्रेम के अनन्य साधारण उद्गाता थे। हिन्दी साहित्येतिहास में प्रेम के चार-छह अग्र-पांक्तेय कवियों में उनका नाम उल्लेख्य है। उन्होंने उच्छल अकृत्रिम मानवीय प्रणय का गान किया। उनके प्रणय-गान में कोई छद्म कोई आवरण नहीं है। छायावादियों के समान वे लुकाछिपी वाली प्रणय-गीति नहीं रचते थे। वे दैहिक मनोराग को कुत्सा का हेतु नहीं मानते थे। छायावादी वायवी प्रेम के बरक्स उनका प्रणय साफ, बेबाक, मानवीय, पार्थिव प्रेम है, जो देह की राह से मन के उच्च सोपान की ओर गमन करता है।" कवि की प्रणय-भावना को व्यंजित करती चंद पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- 

प्राण का यह दीप जलने के लिए है, 
प्यार से अन्तर पिघलने के लिए है, 
आज हम दोनों नियम अपने निभायें, 
स्नेह दो तो आज लौ फिर सिर उठाये । 

हरिवंश राय बच्चन का कला पक्ष

उत्कृष्ट भावों से युक्त रचना जब कला-समन्वित हो जाती है, तो उसकी उत्कृष्टता बहुगुणित हो जाती है। कविवर बच्चन इसके अपवाद नहीं है। काव्य-कला का महत्त्वपूर्ण औजार भाषा है। भाषा ही अभिव्यक्ति का माध्यम है। सम्पूर्ण सम्प्रेषणीयता इसी पर निर्भर है। डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी की, बच्चन की भाषा पर की गयी टिप्पणी सार्थक जान पड़ती है- "बच्चन अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कविता में बोलचाल का प्रयोग करते हैं। इस सन्दर्भ में यह लक्षित करना रोचक है कि कैसे घरेलू पुकार का साधारण नाम बच्चन आधुनिक हिन्दी कविता का क्रमशः एक महत्त्वपूर्ण नाम बन गया। बच्चन का ध्यान उर्दू काव्य-शैली पर भी था, जहाँ भाषा के बोले जाने वाले रूप का प्रयोग सर्वाधिक काव्य रहा है, जहाँ गजल लिखी नहीं कही जाती है। बोलचाल वे अपने नगर इलाहाबाद से सीखते हैं, तो उर्दू काव्य-शैली के प्रभाव के लिए उसके सबसे बड़े कवि मीर के प्रति आभारी हैं- 

"बच्चन अपने काव्य-विकास के क्रम में उत्तरोत्तर उर्दू की साफगोई की और झुकते गये। पर उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि उर्दू बोलचाल का मुहाविरा हिन्दी की शब्द-व्यंजना-प्रधान-काव्य भाषा से मेल नहीं खाता। यहाँ वह महज इतिवृत्त-कथन जैसा होकर रह जाता है।" 

Harivansh Rai Bachchan ki Kavyagat Visestayein || हरिवंश राय बच्चन की काव्यगत विशेषताएँ
कविता को जन-मन ग्राह्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका छन्दों की है। बच्चन जी अपनी छन्द-योजना के विषय में स्वीकार करते हुए कहते हैं- "अभिव्यक्ति में काव्य के अन्य उपकरणों के अतिरिक्त उसका छन्द भी सम्मिलित होता है। 'मधुशाला' ने एक प्रकार के छन्द का रूप लिया, 'निशा निमंत्रण' ने दूसरे प्रकार का, 'हलाहल' ने एक तीसरे प्रकार का- उसका प्रयोग मैं पहले 'खैयाम की मधुबाला' में कर चुका था, और 'मिलनयामिनी' के पहले और तीसरे भाग ने अलग-अलग प्रकार के छन्दों का और दूसरे भाग ने विभिन्न प्रकार के छन्दों का, कुछ 'सतरंगिनी' में प्रयुक्त और कुछ सर्वथा नवीन । मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में छन्दों का अध्ययन तो किया था, पर रचना करते समय मैंने कभी इस पर पूर्व विचार नहीं किया कि किस छन्द का उपयोग किया जाये। मैंने अपने भाव-विचारों को स्वयमेव छन्दों का रूप निश्चित करने को छोड़ दिया है।" 

बच्चन कविता के क्षेत्र में वर्ड्सवर्थ का कथन- 'कविता सहज भावों का उच्छलन है' से प्रभावित जान पड़ते हैं। इसीलिए इनका काव्य शिल्पगत विशिष्टताओं से युक्त नहीं है। जीवनप्रकाश जोशी कहते हैं- "वास्तव में बच्चन शिल्पवादी नहीं हैं। बच्चन जी स्वयं मानते हैं कि इसके प्रति वे सचेत नहीं रहे। उनकी शैली जैसी है, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं ही बन गयी है।" 

बच्चन की कविता में अलंकारों का भी प्रयोग जान-बूझकर नहीं किया गया है, सहसा आ गये हों तो नहीं कहा जा सकता है। वे अपनी बात सहज-सरल ढंग से कहने के हिमायती हैं। उदाहरणार्थ- 

त्राहि-त्राहि कर उठता जीवन, 
पंथी चलते-चलते थककर, 
बैठ किसी पथ के पत्थर पर, 
जब अपने थकित करों से, 
अपना विथकित पाँव दबाता, 
त्राहि-त्राहि कर उठता जीवन । 

हरिवंश राय बच्चन की जीवन शैली

साहित्य वह है, जो प्रेम से लबरेज हो, किन्तु ऐसे प्रेम से नहीं, जो कामुकता का दूसरा रूप हो, अपितु ऐसे प्रेम से जिसमें शक्ति हो, सम्मान हो, आत्म- गौरव हो तथा स्वाभिमान हो।'बच्चन के जीवन और काव्य दोनों में प्रेम-तत्त्व की प्रबलता है।इनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा, किन्तु प्रेम-तत्त्व भी साथ-साथ पुष्पित-पल्लवित होता रहा।बच्चन 
स्वीकारते हैं कि- 

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, 
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ । 

चातक की तरह बच्चन का प्रेम एकनिष्ठ है। प्रेम के प्रति स्वयं को उत्सर्ग कर देने में इन्हें तनिक भी संकोच नहीं है। कबीर की तरह ये प्रेम के अनन्य उपासक हैं। यदि कबीर 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय', 'कबिरा यहु घर प्रेम का खाला का घर नाहिं' तथा 

'मनुवा प्रेम जगत के सार' कहकर प्रेम की उपादेयता सिद्ध करते हैं, तो बच्चन भी- 

पाप नहीं, शाप नहीं, 
संकट-संताप नहीं, 
प्रेम अजर, प्रेम अमर, जो कुछ भी सुन्दर जगती में, जीवन में । 
कहकर प्रेम को जीवन के लिए आवश्यक बताते हैं। 

मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता है- 'दोनों ओर प्रेम पलता है।' इसका आशय है कि प्रेम उभयपक्षीय होता है और यह सत्य भी है। वस्तुतः सच्चा प्रेम एकांगी हो ही नहीं सकता। उसमें दोनों और बराबर तड़प रहती है। यह तड़प चिरकालिक होती है। प्रेम से तृप्ति नहीं मिला करती। सच्चा प्रेम नित नवीन आकर्षण से युक्त होता जाता है। बच्चन कहते हैं- 

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का प्यास होती तो सलिल में डूब जाता वासना मिटती न तो मुझको मिटाती, पर नहीं अनुराग है मरता किसी का प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का। 

निष्कर्षत: डॉ० लालजी यादव के शब्दों में कह सकते हैं कि- "बच्चन मूलत: प्रेम के कवि थे। उनका सम्पूर्ण साहित्य प्रेम पर आधारित है। बच्चन का सम्पूर्ण काव्य प्रेम-विषयक आत्मगत और वस्तुगत विचारों से आप्लावित है। उनकी 'मधुशाला' में हिन्दू-मुस्लिम, पंडित-मौलवी, छूत-अछूत, राजा-रंक, पूँजीवादी, साम्यवादी, सबके लिए प्रवेश-द्वार खुला है। बच्चन के लिए न ईश्वर है, न खुदा, न वेद है, न पुराण- जो कुछ है वह प्रेम है। " 

हरिवंश राय बच्चन की  गीति योजना

शेक्सपीयर अपने नाटक 'ट्वेल्फ्थ नाइट' में कहते हैं कि- If music is the food of love-Play on. अर्थात् यदि संगीत प्रेम का भोजन है तो इसे जारी रखा जाये। कविवर बच्चन अंग्रेजी साहित्य, उसमें भी कीट्स और शेक्सपियर से बेहद प्रभावित थे। परिणामत: उनका काव्य अद्भुत गीतात्मकता से युक्त है। बच्चन का मन गीतों के प्रति आसक्त था। कविता किस तरह की होनी चाहिए। इसे व्यंजित करती हुई उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- "कविता आँखों के लिए है- इसे मैं उतना ही उपहासास्पद समझता हूँ, जितना इस कथन को कि चश्मा नाक के लिए है। कविता कान के लिए है, कंठ के लिए है।" गीतों के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए बच्चन अन्यत्र भी कहते हैं कि- "इन गीतों (आरती और अंगारे' शीर्षक काव्य-संग्रह में संकलित) के बारे में मुझे सिर्फ दो-एक बातें और कहनी हैं। ये गीत हैं, इन्हें आँख से मौन रहकर मत पढ़िए, इनको स्वर दीजिए, गाइए- कुछ गीत गेय नहीं हैं, उन्हें सस्वर पढ़िए, भावानुरूप स्वर से। किसी से गवाकर या पढ़ाकर सुनिए। 

यानी छपे हुए शब्दों की, जिसे अंग्रेजी में कहेंगे, 'माउदिंग' की जानी चाहिए, उन्हें मुख से 'मुखर' किया जाना चाहिए। सब गीतों को एक सिरे से दूसरे तक न पढ़ जाइए। यह उपन्यास नहीं है। मैं तो कोई अच्छा गीत सुन लेता हूँ तो बहुत देर तक दूसरा नहीं सुन सकता। कोई गीत आपको विशेष प्रिय लगे तो उसे फिर-फिर पढ़िए। अच्छा गीत दूसरी-तीसरी बार पढ़ने पर अधिक अच्छा लगना चाहिए।" 

उक्त कथनों के आलोक में यह कह सकते हैं कि गीत, बच्चन को प्रिय थे। इस प्रियता का कारण था उनकी प्रेम-भावना। इस प्रेम-भावना की सुखद परिणति यह हुई कि बच्चन की कविताएँ गेय हो गयीं। वस्तुतः बच्चन की कविताओं में जो जितना ही डूबा उसे उतने ही रस की प्राप्ति हुई। 


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