जोरू का गुलाम उसके हाथ के कंपन से मेरी क्षुब्धता रूष्ट होती है मैं विलोम बना कब तक उसकी बात उल्टी दिशा में घुमाता रहूं चेहरे के पसीने में एक रुआई सी
दर्पण
डुगडुगी बजायो अंबर के नीचे
स्याह जीबन पूरी कर बी
लाल गोटन की सारी पहनू
कछु तो भी कर मेरे मन की
कहे कोयरिया..
हिस्से तोरे कछु न आयो
विपदा भरी संताप भयो
तू बैठन जग प्रेम रिखो
तू भी चिरिया मेरे बन की
पूरा जग तेरा होबे रे
काहू बंधन में बांध रही
डौर खींचो तेरी ओर न हाेबे
ऐसन भाली बिना ब्याह रही
मैं जानू तेरी बिपदा री
ढोते जीबन की मांग रही
तू लाबे प्रेम्हु नदियन बहती
फिर काहू बिन जल सूख रही।।
विरह योग
रूष्ट होते वचनों से
केश खींचें निकाली गई
विरह अग्नि में भस्म जली
अपमानित जन बांधी गई
अपमानित ऐसे की जाती
खेल खेल में दिल तोड़े
जैसे मोहरे बदली जाती
पत्नी धर्म निभाए चली
फरेब की सीमा में आती
छोड़ना जिसे छोड़ेगा हर पल
चिंगारी की ज्वाला भड़काती
गुनाह बस इतना करे
दिल थामे उसे दे जाती
जो जीवन में रुका ही बैठा
चेष्टा उसकी आगे न जाती
आसान नहीं साथ निभाना
मुख बोले वचन न निभते
ऐसा तप साथ ही बनता
अकेले तन्हाई चली आती
कठिन राह में अकेले बढ़ी
न कोई हाथ थामे न जाने
लोगों की निंदा सुनती रही
कटाक्ष मेरी सोच में न आती
वक्त की सुइयां करे हूं पीछे
उन पलों की गुहार लगाती
असहाय देह में रूह पड़ी
एकल जीवन बैठ चलाती।
बिछोह
आजोहू मोरे प्रियतम
सखा बन चल लेबे
मोरी पायलिया बिलख रही
तोहे पास बुलावत
चंद्र लोचन नयनों में
कजरिया जोहु सजावत
इठलाती कमरिया लचक रही
घनघोर बदरिया आ जावत
परदेस न संग लेके गयो
अलग करयो समझावत
के दो जून रोटी भाली
जौउ फिकर तोहे न लागत
सावन भी लौटु है बेख
जे इस माह भी न पायो
काहे उन बचनो से बांधे मोहू
जे ब्याह कर दूरी अपनावत
विधवा विलाप
अल्पायु में पति देहांत
न गुज़रे बिन एक दिन
पीपल की छाया में बैठी
हर पल दिन मैं गिन गिन
मन नीरस होवे मेरा
उबटन अब न भावे
सफेदी लपेटे घूम रही मैं
केश काटे मानुष चले आते
पीड़ा छुपाए दिल में रखती
एक निवाला हलक से न उतरे
ज़मीन पे लेटी सोच रहीं थी
आंसू जीवन मेरे क्यूं चले आते
गांव में साख नहीं अब
नाक सिकौड़े गुज़र जाते
क्या जीवन यहीं खत्म है
लोग अपनी सोच बनाते
विधवा हूं मैं श्रापित नहीं
कटु वचनों में नहीं आती
नसीब की हेरा फेरी ये तो
समय का चक्र लकीरें घुमाती
ना सती बनूं ना मृत्यु अपनाऊँ
लेखा उस घर सबका है बनता
आडंबर में बांधों न मुझको
कुंठित शरीरों में फंसी ये जनता
भूत प्रेत मोहे न लिपटे थे
औरत को पीड़ा देते चलता
असहाय जीवन रौंदे था तू ही
किस मां का जना तू बनता
हारी नहीं बढ़ना सीखी हूं
सृष्टि मुझसे भी चलती
नियम प्रभु द्वार ही बनते
सोच तेरी या कोई गलती
अभिशप्त बनी न जी पाऊं
आज़ादी की गुहार लगाती
पुष्पित बन खिलना चाहूं मैं
सूर्य देखन की आस लगाती
उड़ जाऊं नीले गगन में
इंद्रधनुषी रंगों में छुप जाती
तारों की माला मैं जो पहनूं
फिर से सुहागन देख हो जाती
जोरू का गुलाम
उसके हाथ के कंपन से
मेरी क्षुब्धता रूष्ट होती है
मैं विलोम बना
कब तक उसकी बात
उल्टी दिशा में घुमाता रहूं
चेहरे के पसीने में
एक रुआई सी है
बेलन की ऐंठ
मेरे विस्तृत जीवन को
रसोईघर से झांके देखती है
जीवन पनपा मेरे अंदर
उसके अंदर नाप तोल कर
सौम्य सी प्रतिमा
मेरी ज़रूरतों का अभिप्राय निकली
मैं उसकी अर्धांगिनी बना
स्वयं लज्जित क्यूं हो?
मैं अभिप्राय हूं उसके मिलन का
उसके कटोरे में मैंने भी
आंसुओं को धोकर सुखाया है
मारो मुझे और फांसी पर लटका दो
मैंने एक औरत की पीड़ा खाई है।।
जूड़े का पिन
तुम्हारे बालों की सफेदी में
एक ठहराव सा दिखाई देता है
लड़ती झगड़ती इतना हो
और मैं समान शब्दों से
तुम्हारे रुष्ठता की हामी भरता हूं
मुख की लालिमा
चंद्रग्रहण है मेरे लिए
आंखों की ज्वालें
कोमल हृदय को ध्वस्त कर देती है
मैं फिर भी मौन का आवलंबन करता हूं..
साड़ी का पल्लू संभाले
अकस्मात मुस्कुरा देती हो
और मैं प्रेम की गोताखोरी करता
तुम्हारे बालों समान
कोई कड़ी ढूंढता हूं
तुमसे फिर से बंधे रहने की।।
मेरी ऐनक टेढ़ी है
हां ! मैं आंख का अंधा
क्षतिभूत होता तेरे चरणों में गिर गया
पुतलियों को नोचे
संपूर्ण जीवन का सच जान गया
तू विलुप्त होते वचनों से
क्षुब्ध हो मेरी काया से
मैं जीवाणु फैलाऊंगा
तेरे अंदर भी....
अंधेरा ओझल हो चला
विरक्ति तेरी आसक्ति बन चली
नोच मेरी अश्रु धाराओं को
श्वास बन पी रहा हूं उसे
मैं निर्लज! स्वांगों के
वेग में धसा रहा
तू विरक्त वियोमिनी
नभों की परिक्रमा कर गई
अधिकारों की मांग में
मेरी ऐनक टेढ़ी रही।।
- पूजा गौतम
नयी दिल्ली
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