कर्मनाशा की हार कहानी की समीक्षा कर्मनाशा की हार कहानी कर्मनाशा की हार कहानी का सारांश karmnasha ki har kahani ka uddeshya भैरो पाड़े शिवप्रसाद सिंह
कर्मनाशा की हार कहानी की समीक्षा
कर्मनाशा की हार डॉ.शिवप्रसाद सिंह की सामाजिक कहानी है जिसमें ग्रामांचलीय समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों, रूढ़ियों तथा वर्ग-संघर्षों की जीती-जागती तस्वीर उतारी गयी है। संक्षेप में कहानी की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
कर्मनाशा की हार कहानी का सारांश कथानक
भैरो पाड़े का छोटा भाई कुलदीप मल्लाह की विधवा लड़की फुलमतिया से अवैध सम्बन्ध करके सामाजिक कलंक का विषय बन जाता है। कुलदीप भाई तथा समाज के भय से गर्भिणी प्रेयसी को छोड़कर भाग जाता है। तभी कर्मनाशा की बाढ़ अपना उम्र रूप धारण करती है। लोगों में यह अन्धविश्वास पहले से ही घर कर गया है कि बिना नर-बलि लिये कर्मनाशा की बाढ़ नहीं घटेगी। धनेसरा चाची के माध्यम से फुलमतिया के काले कारनामे गाँव वालों को मालूम हो जाते हैं और सभी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उसी के भयंकर पाप का परिणाम सारे गाँव वालों को भुगतना पड़ रहा है। अतः फुलमतिया तथा उसके अबोध बच्चे को जीते-जी कर्मनाशा की बाढ़ में फेंककर इस पाप से छुटकारा पाने का निश्चय किया जाता है। फुलमतिया नवजात शिशु को लेकर कर्मनाशा के तट पर गाँव वालों के साथ रोती-बिलखती खड़ी है। उसी समय भैरो पाड़े वैशाखी के सहारे पहुँचते हैं। उन्हें फुलमतिया के पाप की घटना से अवगत कराया जाता है। कुछ समय तक तो भैरो पाड़े का स्वाभिमान जाग उठता है। वे अपनी वंश-मर्यादा की चिन्ता करने लगते हैं, किन्तु थोड़ी ही देर में उनका हृदय परिवर्तित हो जाता है और वे अकड़ कर विरोध करते हुए मुखिया को करारा-सा जवाब देते हैं कि "कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुँहे बच्चे और अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें अपने पसीने बहाकर बाँधों को ठीक करना होगा।" वे कुलदीप की कायरता को धिक्कारते हुए बच्चे को कन्धे पर चिपकाये वैशाखी के सहारे खड़े हो जाते हैं। मुखिया व्यंग्य कसते हुए सामाजिक दण्ड की धमकी देता जिस पर भैरो पाड़े कहते हैं कि समाज कर्मनाशा से कम नहीं है। यदि एक-एक के पापों की गिनती की जाय तो सभी को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा। भैरो पाड़े के इस साहस के आगे मुखिया और गाँव के सभी लोगों को चुप हो जाना पड़ता है और कर्मनाशा को भी हार माननी पड़ती है।
कहानी का कथानक आंचलिक होने के साथ सामाजिक भी है। यह यथार्थ के बहुत निकट है। कथा-सूत्र बिखरा होने पर भी सुगठित और जिज्ञासापूर्ण है।
पात्र और चरित्र चित्रण
कहानी के मुख्य पात्र भैरो पाड़े हैं। फुलमतिया, कुलदीप, धनेसरा चाची और मुखिया कहानी के गौण पात्र हैं, जो भैरो पाड़े के चरित्र-विकास में सहायक सिद्ध होते हैं। भैरो पाड़े को अपनी झूठी वंश-मर्यादा का बड़ा ध्यान रहता है, इसलिए वे कुलदीप और फुलमतिया के सम्बन्ध का समर्थन नहीं करते, किन्तु कुलदीप के भाग जाने पर उनकी मानवीय नैतिकता जाग उठती है और वे कुलदीप को कायर मानकर बच्चे और फुलमतिया की रक्षा के लिए तैयार हो जाते हैं। वे अन्धविश्वासों का खुलकर विरोध करते हैं और मुखिया को ललकारते हैं कि गाँव में कोई ऐसा परिवार नहीं जो निष्कलंक हो। भैरो पाड़े प्रगतिशील विचारों वाले व्यक्ति हैं। वे नर-बलि द्वारा बाढ़ रोकने के अन्धविश्वास को नहीं मानते। वे कहते हैं कि बाढ़ बाँध बाँधने से रोकी जा सकती है। मुखिया ग्रामीण समाज की परम्पराओं, अन्धविश्वासों से ग्रस्त पुराने विचारों का समर्थक व्यक्ति है। कुलदीप की सुन्दरता और यौवन से ईर्ष्या करता है। फुलमतिया और नवजात शिशु की बलि देने में वह अपनी क्रूरता और निर्ममता का पूर्ण परिचय देता है। कुलदीप तथा फुलमतिया समाज के सामान्य युवक-युवती हैं, जिनमें यौवन की अल्हड़ता है। उनमें समाज का विरोध करने का साहस नहीं है। कुलदीप तो इतना कायर है कि वह फुलमतिया को प्रत्यक्ष रूप में अपनाने का साहस भी नहीं करता और चुपके से भाग जाता है। धनेसरा चाची गाँव की उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है, जिनके पेट में कोई बात नहीं पचती और दूसरे की कमजोरियों का कीचड़ उछालना ही जिसका काम है। पात्रों का चित्रण कथोपकथन, लेखकीय कथन तथा पात्रों के क्रिया-कलापों द्वारा किया गया है, जो अत्यन्त ही स्वाभाविक, सरल और स्पष्ट है।
कथोपकथन
कहानी में कथोपकथन अत्यन्त ही स्वाभाविक, सरल और व्यंग्यपूर्ण है जिनमें ग्रामांचलीय मनोवृत्तियों का पूर्ण परिचय मिलता है। धनेसरा चाची और मुखिया की बातों में ग्रामीण महिलाओं की ईर्ष्या झाँक रही है। भैरो, कुलदीप और फुलमतिया की बातचीत में अधिकार, भय और करुणा के दर्शन होते हैं। भैरो और मुखिया के वार्तालाप में भैरो पाड़े का साहस, उनकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता दिखलाई देती है, जिनके सामने किसी को कुछ कह सकने की हिम्मत तक नहीं होती। इस प्रकार कहानी में कथोपकथन अत्यन्त ही संक्षिप्त, स्वाभाविक, तर्कपूर्ण और नाटकीयता से परिपूर्ण है।
वातावरण
वातावरण की दृष्टि से कहानी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। कर्मनाशा की भयावह बाढ़ का बड़ा ही रोमांचकारी सजीव चित्र उरेहा गया है। उसमें काव्यमयी चित्रमयता है। पाठकों को कहानी पढ़ते समय सारा दृश्य आँखों के सामने नाचने लगता है। चैत की रात, गर्मी से जली-तपी कर्मनाशा तथा दूर तक फैले लाल रेत और चाँदनी में चमकती सीपियों का बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है। वातावरण के सजीव चित्रण से कहानी में जान आ गयी है।
भाषा शैली
कहानी की भाषा सरल और बोधगम्य है। उसमें हिन्दी के तत्सम शब्दों के साथ-साथ उर्दू तथा देशज शब्दों के भी प्रयोग हैं, जिससे भाषा अत्यन्त ही प्रभावशाली बन गयी है। मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग से वर्णन में सजीवता आ गयी है और प्रेमचन्द की भाषा-शिल्प की सारी विशेषताएँ एक साथ ही कहानी में आ गयी हैं। कहानी वर्णनात्मक शैली में लिखी गयी है जिसमें व्यंग्य के पुट बड़े ही मार्मिक हैं।
उद्देश्य
सामाजिक अन्धविश्वासों और परम्परागत रूढ़ियों को तोड़कर उससे ऊपर उठकर स्वस्थ मानवतावादी दृष्टिकोणों की स्थापना ही कहानी का मुख्य उद्देश्य है। श्रम के महत्त्व को प्रतिष्ठापित कर जन-चेतना को एक नयी दिशा प्रदान करना कहानीकार का अपना दृष्टिकोण है।
कर्मनाशा की हार कहानी के नायक का चरित्र-चित्रण
भैरो पाड़े शिवप्रसाद सिंह द्वारा लिखित 'कर्मनाशा की हार' नामक कहानी के प्रमुख पात्र हैं। ये गाँव के कुलीन ब्राह्मण हैं। इनका परिवार भरा-पूरा है। इनके पुरखे एक नामी पण्डित थे। इनके चरित्र की प्रधान विशेषताएँ निम्नलिखित
धर्म-प्रेमी - भैरो पाड़े एक धर्मनिष्ठ एवं कर्मकाण्ड में आस्था रखने वाले व्यक्ति हैं। वे अपने हाथ से सूत कातकर जनेऊ बनाते और पहनते हैं, धर्म-कर्म में लगे रहते हैं, पत्रा देखते हैं और सत्यनारायण की कथा बाँचते हैं।
न्यायप्रिय- अपने भाई से प्रेम करने पर भी वे उसके अनैतिक और अशिष्ट व्यवहार को देखकर उस पर क्रुद्ध हो जाते हैं और उसे भला-बुरा कहकर पीट भी देते हैं।
साहसी और निर्भीक- भैरो पाड़े परम साहसी और निर्भीक हैं। विपत्ति से नहीं घबराते। पिता की मृत्यु के बाद पिता का कर्ज, देख-रेख के लिए दुधमुँहा बच्चा और बाढ़ से ध्वस्त मकान मिला, किन्तु वे घबराये नहीं और एक साहसी व्यक्ति के समान सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को झेलते हुए सम्मान के साथ कुलदीप का पालन किया तथा वंश की मर्यादा को बनाये रखने का प्रयास किया।
सच्चरित्र - भैरो पाड़े एक सच्चरित्र व्यक्ति के रूप में चित्रित हुआ है। उसे अपने पूर्वजों के मान-सम्मान का ध्यान है। गाँव की बहू-बेटियों को वह अपनी बहू-बेटी समझता है। जब कुलदीप फुलमतिया से प्रेम करता है तो भैरो पाड़े उसे डाँटता- फटकारता है।
भातृ-प्रेमी - भैरो पाड़े को अपने भाई से अत्यन्त प्रेम है। वह अपने छोटे भाई का पालन-पोषण करता है। जब कुलदीप घर से भाग जाता है तो पाड़े दुःख के सागर में डूब जाता है। वह सोचने लगता है—'राम जाने कैसा होगा-सूखी आँखों से दो बूँदें गिर पड़ीं', 'अपने से तो कौर भी नहीं उठा पाता था, भूखा बैठा होगा कहीं।' वह कुलदीप को खोजता फिरता है।
प्रगतिशील व्यक्ति - कर्मनाशा की हार का भैरो पाड़े प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है। इसी कारण वह अन्ध-विश्वासों का खण्डन करता है। रूढ़िवादिता का विरोध करते हुए वह घोषणा करता है-
"कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुँहे बच्चे और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें पसीना बहा कर बाँधों को ठीक करना होगा।"
इस प्रकार भैरो पाड़े का चरित्र एक आदर्शवादी, गम्भीर, सच्चरित्र, विचारशील तथा प्रगतिशील विचारों के मानव का चरित्र है, जो समाज में फैली कुरीतियों और अन्ध-विश्वासों को समाप्त करने का प्रयास करता है।
कर्मनाशा की हार कहानी के प्रश्न उत्तर
प्रश्न . "कर्मनाशा की हार" कहानी का अन्त बहुत ही मार्मिक और नाटकीय हुआ है ।' इस कथन पर अपने विचार संक्षेप में लिखिए। अथवा, 'कर्मनाशा की हार' कहानी में किन समस्याओं को उजागर किया गया है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : श्री शिव प्रसाद सिंह द्वारा लिखित कहानी 'कर्मनाशा की हार' अपने सम्पूर्ण स्वरूप में एक ऐसे भारतीय गाँव की कहानी है, जहाँ अन्धविश्वास है, रूढ़ि हैं, ईर्ष्या हैं तथा बाहरी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए चिन्ताग्रस्त लोगों का समुदाय है ।
फुलमत एक विधवा है, जो कुलदीप से प्रेम करती है । इस प्रेम को कुलदीप का भाई भैरो पाण्डे भाँप जाता है । फुलमत एक विजातीय विधवा है । भैरो पाण्डे जानता है कि कुलदीप फुलमत से किसी भी हालत में शादी नहीं कर सकता; अतः वह अपने भाई को डाँटता है । इसी कारण कुलदीप घर छोड़कर भाग जाता है ।
फुलमत कुलदीप के बच्चे की माँ बन जाती है । गाँव में यह अन्धविश्वास है कि कर्मनाशा के पानी का विकराल रूप फुलमत के कुकर्म का ही परिणाम है । इसी कारण गाँव वाले फुलमत और उसके मासूम बच्चे को कर्मनाशा की उफनती धारा को फेंक देना चाहते हैं। भैरो पाण्डे अन्तर्द्वन्द्व का शिकार है । उनकी आत्मा यह स्वीकार नहीं करती कि खानदान, प्रतिष्ठा और सामाजिक मान्यताओं की बलिवेदी पर फुलमत और उसके मासूम बच्चे की बलि चढ़ा दी जाए। वह वहाँ जाकर घोषणा करता है कि फुलमत उसकी बहू है और उसे अपना लेता है। जब गाँव वाले फुलमत के पापकर्म के दण्ड की बातें करते हैं तो वह कहता है कि गाँव में कौन ऐसा है, जिसने पाप नहीं किया । उनके पापों को वह गिनाने लगे तो कर्मनाशा में भी उन्हें जगह नहीं मिलेगी।
इस कहानी का अन्त विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह के आदर्शों का समर्थन करता हुआ और गाँव के समर्थ व सम्मानित कहलाने वाले लोगों की पोल खोलता हुआ समाज में व्याप्त अन्धविश्वास पर प्रहार करता है, किन्तु कहानी का यह अन्त नाटकीयता से भरा हुआ है इसी कारण इसमें स्वाभाविकता का अभाव है। कहानीकार ने कहानी की रचना करते समय इस अन्त की योजना की है; अत: यह नाटकीय हो गया है, फिर भी इस कहानी का अन्त मर्मस्पर्शी है और पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ता है।
प्रश्न . अंधविश्वास और विश्वास में क्या अन्तर है ? कर्मनाशा के बारे में अंध-विश्वास/ विश्वास किस रूप में प्रचलित था ?
उत्तर : विश्वास वह होता है जो देखा, पढ़ा या समझा हुआ हो। कोई बात जो देखी हो, पढ़ी हो या अपनी बुद्धि से समझी हुई हो वह विश्वास मानी जाएगी। लेकिन पुराने समय में चली आ रही, बिना अनुभव की बात अंध विश्वास कहलाएगी। हम किसी पुरानी रीति पर बिना सोचे- समझे और जाने विश्वास करने लगें उसे हम अंध विश्वास कहेंगे ।
काले साँप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल जहर पीने वाले की मौत रुक सकती है, किन्तु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छूले, वह फिर हरा नहीं हो सकता । कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों का एक विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी में बाढ़ आए तो बिना मानुष की बलि लिए लौटती नहीं।
पिछले साल जब नदी का पानी नईडीह से जा टकराया, तो ढोलकें वह चलीं, गीत की कड़ियाँ मुरझाकर होठों से पपड़ी की तरह छा गई, सोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा की, पाँच बकरों की दौरी भेंट हुई, किन्तु बढ़ी नदी का हौसला कम न हुआ। एक अन्धी लड़की, एक अपाहिज बुढ़िया बाढ़ की भेंट रहीं ।
यह उनका अन्धविश्वास था। बाढ़ का आना और उतरना इससे बलि देने या न देने से कोई सम्बन्ध नहीं है । अन्त में इस मिथक को भैरों पाण्डे ने तोड़ा है कि नदी की बाढ़ रोकने के लिए बाँध बनाओ, तब उसका पानी पानी रुकेगा । बलि देना एक अन्धविश्वास है जो आज के समाज में समाप्त होना चाहिए।
प्रश्न. नईडीह की सामाजिक चेतना किस प्रकार की थी ? दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर : नईडीह गाँव कर्मनाशा नदी के किनारे ऊँचे स्थान पर बसा हुआ था । यहाँ के लोग अधिकतर अशिक्षित और अन्धविश्वासों में घिरे हुए थे । उनका विश्वास था कि एक बार यदि कर्मनाशा नदी का पानी बढ़ आए तो बिना मानुष की बलि लिए नहीं लौटता। हालांकि थोड़ी ऊँचाई पर बसे हुए नईडीह वालों को नदी की बाढ़ का खौफ नहीं था । वे गेरु की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियाँ मानते, दो चार दिन की बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती । मुखिया जी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे होते और क्जली सखम की ताल पर ढोलकें ठनकने लगतीं। गाँव के लोग 'ई बाढ़ी नदिया जिया ले के माने' का गीत गाते, क्योंकि बाढ़ उनके किसी का जिया नहीं लेती थी। किन्तु पिछली साल नदी में बाढ़ आ गई । सोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा की, पाँच बकरों की दौरी भेंट हुई, किन्तु बड़ी नदी का हौसला कम न हुआ । एक अन्धी लड़की और अपाहिज बुढ़िया पानी में बह गई । यहाँ के लोग नदी के इस उग्र रूप को देखकर काँप उठे, बूढ़ी औरतों ने कुछ सुराग मिलाया। पूजा-पाठ कराकर लोगों ने पाप-शान्ति की।
एक वर्ष बाद फिर ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ । प्रलय का सन्देश था ।नईडीह के लोग चूहेदानी में फंसे चूहों की तरह भय से दौड़धूप कर रहे थे, सबके चेहरे पर मुर्दनी छा गई थी।
एक दिन शाम के समय नदी की ओर आदमियों की भीड़ खड़ी थी। पाण्डे ने लोगों से इसका कारण पूछा । एक व्यक्ति ने पाण्डे को बताया कि बाढ़ को रोकने के लिए फुलमती को और उसके बच्चे को नदी में फेंक रहे हैं, क्योंकि फुलमती ने पाप किया है । छबीले ने पाण्डे से पूछा - 'क्यों पाण्डे चाचा, जान लेकर बाढ़ उतर जाती है न?' पाण्डे 'हाँ' कहकर आगे बढ़े। पहले तो पाण्डे ने सोचा कि चलो अच्छा है फुलमती से पीछा छूट जाएगा । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
फुलमती अपने बच्चे को छाती से चिपकाए टूटते हुए अरार पर एक नीम के तने से सट कर खड़ी थी । उसकी बूढ़ी माँ जार-बेजार हो रही थी, किन्तु आज जैसे मनुष्य ने पसीजना छोड़ दिया था। अपने-अपने प्राणों का मोह इन्हें पशुओं से भी नीचे उतार चुका था । कोई इस अन्याय के विरूद्ध बोलने की हिम्मत न करता था। लोगों का यह अंध विश्वास था कि कर्मनाशा को प्राणों की बलि चाहिए, बिना प्राणों की बलि लिए बाढ़ नहीं उतरेगी। मुखिया के सामने किसी की हिम्मत नहीं थी बोलने की । मुखिया ने पाण्डे से पूछा कि उसकी क्या राय है? पाण्डे का दिल पसीजा। उसने फुलमती के बच्चे को अपनी गोद में ले लिया और कहा - 'मेरी राय पूछते हो मुखिया जी? तो सुनो, कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुँहे बच्चों और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बाँधों को ठीक करना होगा...कुलदीप कायर हो सकता है, वह अपने बहू-बच्चे को छोड़कर भाग सकता है, किन्तु मैं कायर नहीं हूँ, मेरे जीते जी बच्चे और उसकी माँ का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता...समझे ।' तब मुखिया ने कहा कि इसने पाप किया है। इस पर पाण्डे ने कहा कि किसने पाप नहीं किया । यदि वह सबके पाप गिना दें तो सभी को नदी में अपनी बलि चढ़ानी होगी । इस उत्तर के बाद कोई कुछ बोल न सका। इस प्रकार पाण्डे ने उनकी जान बचाई और उन्हें अपना लिया ।
प्रश्न. 'कर्मनाशा की हार' कहानी संदेश को प्रस्तुत करते हुए बताइए कि यह कहानी आज के समय में कितनी उपयुक्त सिद्ध होती है।
उत्तर- 'कर्मनाशा की हार' श्री शिवप्रसाद सिंह द्वारा लिखित एक चरित्र प्रधान सामाजिक कहानी है जिसमें समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता और अंधविश्वास का डटकर विरोध किया गया है। यह कहानी प्रगतिशीलता और मानवतावाद का संदेश देती है। इसमें अंधविश्वास को खण्डित किया गया है, वंश मर्यादा का मिथ्या मोह से मुक्त होने की आकांक्षा तथा मानवता के विजय की उद्घोषणा की गयी है। उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति एवं संवेदना व्यक्त करना तथा उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने का संदेश भी इस कहानी के माध्यम से दिया गया है। इस कहानी द्वारा जातिगत रूढ़ियों को तोड़ने और व्यक्तिगत और सामाजिक किसी भी प्रकार के शोषण के विरोध में आवाज उठाने का संदेश दिया गया है।
'कर्मनाशा की हार' कहानी आज के समय में भी बिल्कुल उपयुक्त है। देश की सामाजिक व्यवस्था आज भी जातिगत समीकरण के आधार पर कार्य कर रही है। यह अवश्य है कि आज विधवा विवाह और अन्तर्जातिय विवाह कुछ लोगों द्वारा स्वीकृत होने लगे हैं, परन्तु अभी भी अधिकतर लोगों द्वारा इसका विरोध ही हो रहा है। अंधविश्वास आज भी कम नहीं है, आज भी लोग देवताओं को खुश करने के लिए बलि देते हैं। आज भी लोग विजातीय शादी करने पर जान तक ले लेते हैं ऐसे कई उदारण सामने आये हैं। कर्मनाशा की हार कहानी निश्चित रूप से आज के संदर्भ में भी उतनी ही उपयुक्त है।
प्रश्न. 'कर्मनाशा की हार' एक सामाजिक अंधविश्वास पर आधारित कहानी है कैसे ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - 'कर्मनाशा की हार' कहानी को डॉ. शिव प्रसाद सिंह ने एक अंधविश्वास पर आधारित कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। इस अंध विश्वास को हम निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं -
- कर्मनाशा के विषय में नई-डीह के लोगों की धारणा- उस समय नई डीह गाँव के लोगों में यह धारणा थी कि यदि कर्मनाशा नदी का जल गाँव में बाढ़ के रूप में आ गया तो वह मनुष्य की बलि लेकर ही जायेगा। नई डीह गाँव ऊँचाई पर था, इसीलिए उन्हें बाढ़ का भय नहीं रहता था। परन्तु चाहे पाँच बकरों की बलि दी गई हो या एक अंधी लड़की और एक अपाहिज बाढ़ की चपेट में आ गये हों, लोग उसे कर्मनाशा की बलि मानते थे। यह अंध विश्वास नहीं तो क्या समझा जाय? लेकिन ईसुर भगत और धनेसरा चाची ने कह दिया कि पाप बढ़ गया है तो प्रलय तो होगा ही। फुलमतिया विधवा को बच्चा हुआ तो पाप हुआ ही और इसका फल भोगना पड़ेगा। मुखिया और गाँव का न्याय भी अंधविश्वास पर आधारित है।
- जाति-पाँति का भेदभाव और पुरानी रीति- रिवाज में विश्वास-गाँव के लोगों के अनुसार विजातीय प्रेम भी एक प्रकार का पाप ही है। भैरो पाण्डे के भाई कुलदीप और फुलमती का प्यार भी इसी अंधविश्वास के कारण विफल हो जाता है और भैरो पाण्डे अपने भाई को खो देते हैं। फूलमती कुलदीप के बच्चे को जन्म देती है और यह बात गाँववालों में आग की तरह फैल जाती है। संयोगवश कर्मनाशा नदी का पानी गाँव में बढ़ने लगता है। गाँव वाले इस बाढ़ का कारण फुलमती को बना देती है क्योंकि उनकी नजर में विधवा द्वारा बच्चा जन्म देना एक पाप है और इस प्राकृतिक कहर से बचने के लिए सर्वसम्मति से यह फैसला लिया जाता है कि फुलमती को उसके बच्चे सहित कर्मनाशा नदी को समर्पित कर दिया जाए।
समाज में अंध विश्वास व्याप्त होने के कारण भैरो पाण्डे अपने आपको विरोध करने में असक्षम महसूस करतें हैं। लेकिन कहानी के अन्त में लेखक ने भैरो पाण्डे के माध्यम से इन अंधविश्वासों के मिथक को तोड़ने का प्रयास किए हैं और अपने उद्देश्य में सफल भी रहे हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कर्मनाशा की हार कहानी एक अंधविश्वास आधारित कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
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