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खड़ी बोली के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाली प्रमुख विभूतियों का संक्षिप्त परिचय
रीतिकाल तक ब्रज और अवधी भाषा का प्रयोग ही किया जाता था। जब भारत में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो गया, तो वह बोली जो मेरठ के आस-पास बोली जाती थी, यवनों को अच्छी लगी, उन्होंने उसे अपना लिया। यह बोली वर्तमान खड़ी बोली का प्रारम्भिक रूप है। यह बोली उन दिनों में यवन सैनिकों द्वारा बोली जाने लगी। ये सैनिक इसे बड़ी सरलता से बोल लेते थे। इन यवन सैनिकों के कारण इस बोली में अरबी और फारसी के शब्द भी मिलते गये। इसने एक नया रूप धारण कर लिया, जिसे हिन्दवी के नाम से पुकारा जाने लगा। (उर्दू भाषा का रूप अरबी, फारसी और हिन्दवी का मिश्रित रूप है।) आगे चलकर जब इस हिन्दी में संस्कृत भाषा के तत्सम और कठिन शब्दों का समावेश हो गया, तो इसे हिन्दुस्तानी कहा जाने लगा। इस हिन्दुस्तानी में अरबी, फारसी, हिन्दवी और संस्कृत भाषा के शब्दों का समावेश था। यही भाषा आगे चलकर हिन्दी खड़ी बोली के रूप में विकसित हुई। मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली इस बोली का विकास तीन रूपों में हुआ - एक तो उर्दू के रूप में, दूसरा हिन्दी के रूप में और तीसरा हिन्दुस्तानी के रूप में।
रीतिकाल के अन्तिम चरण में काव्य में तो ब्रजभाषा का प्रयोग होता था, किन्तु यह धीरे-धीरे कम होता जा रहा था । उसका स्थान मिश्रित खड़ी बोली लेती जा रही थी, जिसमें ब्रज और अवधी का मिश्रण था। गद्य-भाषा को खड़ी बोली रूप देने वाले प्रारम्भिक चार लेखक माने जाते हैं। इन्होंने अपनी रचना में ठेंठ हिन्दी का प्रयोग किया है।खड़ी बोली गद्य के चार प्रारंभिक उन नायकों के नाम निम्नलिखित है -
मुंशी सदासुखलाल
ये दिल्ली के रहने वाले थे। इनका जन्म सं. 1803 में हुआ था। ये उर्दू और फारसी के विद्वान् थे। इन्होंने 'विष्णुपुराण' के आधार पर 'सुखसागर' की रचना की है। इनकी भाषा परिष्कृत और शुद्ध थी। इन्होंने अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग नहीं किया।
इंशा अल्ला खाँ
इनका रचनाकाल सं. 1855 और 1875 के बीच का माना जाता है। इनकी लिखी रचना 'रानी केतकी की कहानी' अधिक प्रसिद्ध है। वे चाहते थे कि हिन्दी में और किसी अन्य भाषा का समावेश न किया जाय। उन्होंने हिन्दी को अरबी, फारसी. संस्कृत तथा गँवारू भाषा के प्रभाव से बचाया; हालाँकि कुछ संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने अवश्य किया है। इनकी भाषा में प्रवाह अधिक था। इसी कारण आगे चलकर हिन्दी के प्रयोग की सम्भावनाएँ बढ़ीं।
लल्लूलालजी 'लाल कवि'
इनका जन्म सं. 1820 माना जाता है। सं. 1860 से फोर्ट विलियम कॉलेज कलकत्ता के अध्यापक गिलक्राइस्ट की इच्छा पर इन्होंने 'प्रेमसागर' की रचना की थी। ये भी अरबी, फारसी और तुर्की भाषा के शब्दों के प्रयोग के विपरीत थे, फिर भी कुछ शब्द आ ही गये हैं। ये संस्कृत शब्दों का प्रयोग गद्य में करते थे।
इन्होंने खड़ी बोली का प्रयोग गद्य में किया है। उन्होंने आगरे में 'संस्कृत प्रेस' के नाम से एक प्रेस भी खोला था। खड़ी बोली के प्रारम्भिक निर्माताओं में लल्लूलाल जी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
सदल मिश्र
गद्य-लेखकों में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे भी लल्लूलाल जी के साथ फोर्ट विलियम कालेज में अध्यापक थे। अपने मित्रों से प्रेरणा पाकर इन्होंने 'नासिकेतोपाख्यान' की रचना की।
अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति
ईसाई मिशनरियों ने भी अपना प्रचार लोक-बोली में प्रारम्भ कर दिया था। इस समय ईसाई धर्म-ग्रन्थों का अनुवाद भी प्रारम्भ हो गया था। इनकी भाषा में जहाँ तक बन सका अरबी और फारसी के शब्दों से बचाया गया है। इन्होंने तथा अन्य लोगों ने प्रेस की भी स्थापना की। इन सबका परिणाम यह हुआ कि खड़ी बोली का स्वतन्त्र रूप दिखायी देने लगा। सं. 1884 में पं. जुगल किशोर ने कानपुर से एक पत्र 'उदंत मार्त्तण्ड' नाम से निकाला। यही हिन्दी का प्रथम पत्र माना जाता है।
राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द'
हिन्दी विकास मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए इन्होंने एक पत्र निकाला। इसका नाम 'बनारस अखबार' था। आगे चलकर इन्होंने इसे उर्दू में तो बदल दिया, परन्तु इसकी लिपि देवनागरी ही रखी। इस युग के समय में अनुवाद बड़े लोकप्रिय रहे हैं। कालिदास लिखित 'मेघदूत' 'शकुन्तला' और 'रघुवंश' को विशेष लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इनके ही समय में दूसरा पत्र 'सुधाकर' भी निकला।
राजा लक्ष्मणसिंह
ये 'सितारे हिन्द' के समकालीन थे। इनके प्रमुख अनुवाद ग्रन्थों में 'शकुन्तला' और 'रघुवंश' प्रमुख हैं।
नवीन चन्द्र राय
इन्होंने पंजाब में रहकर हिन्दी की अपूर्व सेवा की है। ये हिन्दी के कट्टर समर्थक थे। इन्होंने 'ज्ञान प्रदायिनी' समाचार पत्र भी निकाला था।
श्रद्धाराम फुल्लौरी
इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है- आत्म चिकित्सा, तत्त्व- दीपक, धर्मरक्षा, उपदेश-संग्रह, शतोपदेश आदि धार्मिक ग्रन्थ प्रमुख हैं। इन्होंने ' भाग्यवती' नामक उपन्यास भी लिखा था। इसे हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना जाता है।
इस प्रकार हिन्दी अनेक अवरोधों और बाधाओं को पार करती हुई विकास की ओर बढ़ रही थी। गद्य-साहित्य के माध्यम से हिन्दी का परिमार्जन हो रहा था। हिन्दी का प्रचार भी व्यापक रूप से बढ़ गया था। यह हिन्दी का संक्रमण काल था। इसी समय उत्तरी भाग भारतेन्दु हरिश्चन्द्रं एवं ठाकुर जगमोहनसिंह का आविर्भाव हुआ। इन्होंने गद्य एवं पद्य को वास्तविक रूप दिया। पद्य रचना में भी खड़ी बोली का कुछ प्रयोग किया। आधुनिक काल के इस समय में हिन्दी भाषा और साहित्य का तीव्रगति से विकास हुआ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
आर्य-समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का हिन्दी के विकास में महनीय योगदान रहा है। यह समय जागरण का था। हिन्दू भी अपने कार्य को नवीन चेतना और बुद्धिवाद के आधार पर खड़ा करना चाहते थे। स्वामी दयानन्द ने (सं. 1881 में) हिन्दी में अपने ग्रन्थ लिखे। उनके प्रमुख ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाग्य भूमिका, संस्कार विधि हैं। इन्होंने हिन्दी एवं संस्कृत का बहुत प्रचार किया।
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