समाज की वह सब से छोटी इकाई, जहां मनुष्य जन्म लेता है, उसे परिवार कहते हैं। इस परिवार में परिभाषा के तौर पर ही सही, एक पुरुष होता है, एक स्त्री होती है
सार्वजनिक होती निजता का मायाजाल
जब कभी कहीं निजता का मुद्दा विचार विमर्श का विषय होता है, सार्वजनिक पटल पर अपने अंतरंग क्षणों को परोसने की बात होती है या आप के अपने शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक आयामों की हो रही खुली नुमाइश पर गुफ्तगू होती है, तो मैं इस एक उदाहरण से हमेशा इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न करता आया हूं।
समाज की वह सब से छोटी इकाई, जहां मनुष्य जन्म लेता है, उसे परिवार कहते हैं। इस परिवार में परिभाषा के तौर पर ही सही, एक पुरुष होता है, एक स्त्री होती है, जिन्हें एक सामाजिक प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए विवाह के बंधन में बांधा जाता है तथा इस के बाद वह एक पुरुष, स्त्री होने के साथ ही पति पत्नी भी कहलाते हैं।
इस विवाह से परिवार का दायरा बढ़ जाता है और अचानक से कई रिश्तों का जन्म होता है जैसे सास, ससुर, समधी, सालारजंग, सालज, जेठ, जेठानी, देवर, भाभी, ननंद, ननदोई इत्यादि जिन का पहले कहीं कोई अस्तित्व नहीं था।
यही पति पत्नी वाला परिवार जब किसी मानव समाज में जीवन यापन करता है, तो वह दोनों उस बस्ती, गांव, कस्बा या शहर की सबसे छोटी इकाई यानी मकान में रहते हैं और इन के उस मकान में रहने से ही उस मकान को अब घर कहा जाने लगता है।
इसे ऐसे समझ लीजिए कि मकान यदि देह है तो घर उस की आत्मा। घर नही तो मकान वीरान रहेगा, मृतप्राय रहेगा। घर होगा तो मकान की प्राणप्रतिष्ठा होगी, उस में गति, प्रगति, चहल पहल रहेगी। घर बसते हैं उजड़ते हैं, मकान तो बस बनते और ढहते हैं - ये अंतर हम सभी के लिए जानना बेहद ज़रूरी है।
अब इसी परिवार में जो एक घर बसा कर रह रहा है, जब पारिवारिक संतति धर्म निर्वाह होता है तब संतान का आगमन होता है और ये परिवार अब और विस्तृत हो जाता है। रातों रात पति पिता और पत्नी मां बन जाती है। उसी दिन से परिवार के करीबी रिश्तेदारों के कर्तव्य बदल जाते हैं, उन का बोलता पद बदल जाता है, तरक्की हो जाती है।
अब वे सभी अपने अपने नाते अनुसार एक ही क्षण में नाना नानी, दादा दादी, मामा मामी, मौसा मौसी, ताऊ ताई, चाचा चाची और फूफा बुआ कहलाते हैं, उन का सभी का रिश्ता अब उस नवजात शिशु के संदर्भ में, परिप्रेक्ष्य में एवं सापेक्ष होता है जिसे जीना मानो अब उन के जीवन का एक अलिखित उद्देश्य सा हो जाता है।
अब यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि इन रिश्तों में निहित प्रेम, वात्सल्य, या ममत्व, प्रगाढ़ता, निकटता, निजता एवं स्वयं द्वारा उसे यथोचित महत्व देने पर ही अनुभव होती है, दोनों तरफ से होती है एवं केवल नामित करने मात्र से ना तो उत्पन्न होती है ना ही फलती फूलती है।
मुझे स्मरण है, मैं कोई 10 या 11 बरस का रहा होऊंगा, दोनो भाई मुझ से कुछ वर्ष छोटे। मेरी मां हमारी नानी को बता रही थीं कि कैसे ये तीनों बच्चे आप को तो कितना याद करते हैं परंतु अपनी दादी को कभी भी भूले से भी याद नहीं करते।
उस समय मेरी नानी ने जो कहा था वह हमेशा हमेशा के लिए स्वर्णाक्षरों में मेरे मानसपटल पर छप गया, जीवन का एक बहुमूल्य विचार बन कर। उन्होंने कहा, कि "प्रेम, माया, वात्सल्य ये सभी रिश्तों में संसर्ग जन्य होते हैं। तुम ना तो कभी अपनी सास को अपने यहां रहने के लिए बुलाती हो ना कभी तुमने इतने वर्षों में इन बच्चों को ददिहाल रहने के लिए भेजा है। इन्हें दादा दादी का प्रेम आखिर कैसे अनुभव होगा?"
अब इतने प्रेममय, सजीव, संसर्गजन्य एवं परस्पर संबंधों से अनुभव होने वाले इन रिश्तों की जब मैं सार्वजनिक पटलों पर हो रही भौंडी नुमाइश देखता हूं तो बरबस ऐसे लोगों की मानसिक दरिद्रता पर दया आती है और तब मैं इस उदाहरण से उन्हें थोड़ा ही सही आत्मबोध करवाने का प्रयत्न करता हूं।
घर हमारी संस्कृति का ऐसा दर्पण है जो हमारी निजता एवं सार्वजनिक वर्तन का दर्पण माना जा सकता है। घर की संरचना, विश्व के लगभग सभी हिस्सों में, हमारी संस्कृति एवं संस्कारों के साथ साथ, उस के विभिन्न अवयवों, प्रक्रियाओं एवं संबंधित व्यवहार की आवश्यकताओं के अनुरूप होती है।
चलिए इस घर के स्वरूप का बाहर से भीतर जाते हुए थोड़ा अध्ययन करते हैं। इस प्रक्रिया में जहां कहीं आप को अपवाद दिखे, आप मुझे टोक दीजियेगा।
उदाहरण के तौर पर हम एक सामान्य घर या मकान की बात करते हैं। घर के बाहर एक बड़ा फाटक होता है जिस से गुज़र कर हमारे या किन्ही बाहरी व्यक्तियों के वाहन भी घर के बाहरी दालान या आहाते में खड़े किए जा सकते हैं। उन का निवास स्थान वही या आसपास बना गैरेज होता है, इस से अंदर उन्हें प्रवेश नही है।
इस के बाद कुछ घरों में बाग बगीचे और बरामदे का चलन होता है जहां रखी कुर्सियों या मुड्डों पर ऐसे लोगों को बैठाया जाता है, जिन्हें हम घर के भीतर अमूमन नहीं लाना चाहते हैं, उन से वहीं बातचीत हो जाती है और वह विदा हो जाते हैं।
घर में घुसते ही सबसे पहला कमरा निर्विवाद रूप से बाहरी बैठक होती है जहां जो भी व्यक्ति, जानपेहचान वाले मेहमान या औपचारिक रूप से हम से जुड़े जो लोग हमारे घर हम से मिलने आते हैं, उन्हें बैठाया जाता है, यहीं उन की आवभगत होती है और यहीं से उन्हें विदा कर दिया जाता है।
इसी के साथ साथ घर का अगला कमरा कई घरों में भीतरी बैठक होती है जहां हम हमारे कुछ ऐसे परिचितों, घनिष्ठों, रिश्तेदारों, मित्रों को बैठाते हैं जो अतरंग होते हैं, नजीक के होते हैं, बाहरी बैठक में बैठाए जाने वालों से अधिक विश्वासु होते हैं।
जहां भीतरी बैठकैं नहीं होती, उन घरों में बाहरी बैठक के बाद वाला कमरा बहुधा भोजन कक्ष होता है जो बैठक के साथ साथ घर के और भीतर बनी रसोई से भी जुड़ा होता है। यहां घर वालों के साथ साथ केवल वो लोग प्रवेश पाते हैं जिन्हें हम भोजन हेतु आमंत्रित करते हैं। चूंकि ये निमंत्रण सभी को नही होता, ये कहना अनुचित नहीं होगा कि केवल खास लोग ही यहां घरवालों के साथ भोजन हेतु आमंत्रित होते हैं।
पुराने घरों में घर के बीचों बीच एक खुला आंगन हुआ करता था परंतु स्थानाभाव में अब बहुत सारे घरों में यह नही मिलता है।
खैर इस के बाद आती है शयन कक्षों की बारी और ये घर की आवश्यकताओं के अनुरूप एक, दो या तीन भी हो सकते हैं पर होते घर के काफी भीतर जाकर हैं। इन शयन कक्षों में निजता का पूरा ध्यान रखा जाता है और आम तौर पर केवल इस कक्ष के निवासियों को ही यहां आने जाने रहने की अनुमति होती है। ये आम जगह नहीं है। परिवार के अन्य सदस्यों को भी यदाकदा यहां आने के लिए उक्त कक्ष के रहवासी की अनुमति से ही चलना पड़ता है। बाहर के लोगों की तो बात छोड़ ही दीजिए।
पहले तो कॉमन गुसलखाने और पाखाने घर के सबसे भीतर के भाग यानी पिछवाड़े में बने होते थे। आज अटैच्ड टॉयलेट के युग में ये इस शयनकक्ष के साथ इस तरह जुड़े होते हैं कि इस कक्ष के रहवासियों को छोड़कर कोई और उनका प्रयोग आमतौर पर नहीं कर सकता। हां उन की अनुमति से शयन कक्ष से होकर इस का प्रयोग किया जा सकता है। परंतु ऐसे मौके अमूमन नहीं के बराबर होते हैं।
आम तौर पर सभी मेरी इस राय से इत्तेफ़ाक रखेंगे कि शयन कक्ष और उस से जुड़े टॉयलेट हर घर, वो चाहे बंगला हो कोठी हो चाहे कोई फ्लैट हो, के सबसे भीतरी हिस्से में स्थित होते हैं।
आप ने देखा कि किस तरह जागतिक रूप से घरों की संरचनाओं में एक अकाट्य समानता है जो उन्हें एक सा बनाती है और बाहर से भीतर जाते समय निजता, संबंधों में प्रगाढ़ता एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रमाण बढ़ता जाता है। सार्वजनिक विधाओं का हिसाब भीतर जाते हुए घटता रहता है।
अब मेरा एक प्रश्न है
- शयनकक्ष में होने वाली निजी बातों को सार्वजनिक सामाजिक माध्यमों पर बड़े ही अभिमान के साथ कहने वालों, अपने आप को अति आधुनिक मान कर सर्वस्व दिखाने वालों से,
- बच्चे के जन्मते ही घर के बड़े बूढ़ों को खबर देने, उन का आशीर्वाद लेने की बजाय अस्पताल के बेड से ही नवजात शिशु की तस्वीर या वीडियो को इन माध्यमों पर टांगने वालों से,
- कहीं अपने परिवार या मित्रों के साथ मनोरम स्थानों पर यात्रा करते समय उन दृश्यों को आंखों में भर उन अतरंग पलों में अपनों संग खो जाने की बजाय उन्हें कैमरे में कैद कर दुनिया भर में फ्री में बांटने वालों से,
- हमारे घर या आसपास यदि कोई अनुष्ठान या कार्यक्रम हो रहा हो तो उसे अपनी सभी इंद्रियों से अनुभव करने आत्मसात करने की बजाय अपने कैमरे में कैद कर सब से पहले सार्वजनिक करने की होड़ में जो लोग वाकई उसमें खोकर उसका आनंद लेना चाहते हैं उन के लिए अवरोध बनते लोगों से,
अपने निजी जीवन के बहुत ही खास पलों, भावनाओं, प्रसंगों, क्षणों की सार्वजनिक रूप से नुमाइश करते लोगों से,
- और जब मैं ये प्रश्न पूछता हूं कि उन के घर में उन्होंने घुसते ही पहला कमरा बाहरी दालान, बरामदा या बैठक की बजाय अपना शयनकक्ष और निजी गुसलखाना क्यों नहीं बनवाया तो ऐसे लोगों के पास मेरे इस प्रश्न का कोई उत्तर नही होता है। हां वो मेरी और ऐसे अवश्य देखते हैं जैसे कह रहे हों, अरे आप पागल तो नहीं हो गए हैं।
जब आप अपना निजी शयन कक्ष घर के भीतरी हिस्से में बनाते हैं, उस में सभी का प्रवेश निषिद्ध करते हैं, तो उस में अपनों से हो रही या अपनी अतरंग बातें या छवियां सार्वजनिक पटल पर लाकर बाहर वालों के साथ क्यों साझा करते हैं। कितना बड़ा विरोधाभास है ये।
शयनकक्ष भीतर इसी लिए है कि वह आप का व्यक्तिगत कक्ष है, सार्वजनिक पार्क नही। वहां की मान, मर्यादा एवं मान्यताएं प्रचलित सार्वजनिक स्थलों के लिए नहीं हैं। वह आप की निजता के स्तंभ हैं, अमूल्य हैं और अनमोल हैं। उन्हें इस तरह खुले आम बाहर लाकर बाजारू मत बनाइए।
यदि घर की इस जागतिक संरचना को इतने हजारों सालों में और विकसित अवश्य किया गया परन्तु सुविधाओं का क्रम बाहर से भीतर वही रखा गया और जिसे ये अपने आपको अत्याधुनिक कहने वाले लोग भी नहीं बदल रहे हैं तो इस में कुछ तो ऐसी बुद्धिमत्ता अवश्य होगी जो हम सभी के पुरखों द्वारा इसे ऐसा रखा गया और हम सभी भी इसकी स्वेच्छा से एवं विचार कर अनुपालना करते चले आ रहे हैं बिना किसी अपवाद के।
चलिए आप ही बता दीजिए किसी ऐसे घर का पता जो शौचालय से आरंभ हो कर बरामदे पर खत्म होता हो। मैं जानता हूं आप नही दिखा पाएंगे।
तो फिर नव मां बाप को अपने नवजात के प्रति, पति को पत्नी, पत्नी को पति, मां बाप को औलाद और औलादों को अपने मां बाप के प्रति, विभिन्न अवसरों जैसे वर्षगांठो, जन्मदिनों इत्यादि पर अपना पारस्परिक प्रेम, वात्सल्य, चिंतन, मनन, स्मरण, आकुलता, अपनत्व एवं सामिप्य जताने के लिए एक दूसरे को आलिंगन करने, गले लगाने, पांव छूंकर नमस्कार करने, या सर पर हाथ रख आशीर्वाद देने की बजाय सार्वजनिक पटल पर जाकर उस का भोंडा प्रदर्शन करने की दुर्बुद्धि क्यों और कहां से सूझती है ?
यही सभी कुछ विचार करते करते एक रचना उमड़ते घुमड़ते मन के आंगन में अवतरित हुई जो आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत है।
"मै, मेरा घर और मकान - एक सोच"
जब से, हमारे अपनों की, अतरंग तस्वीरें
सामाजिक माध्यमों में नज़र आने लगी हैं
ये साफ हो चला है के घर की खुशियां अब
घर से बाहर, मकानों में, ढूंढी जाने लगी हैं
हद तो तब हो गई जब, अपनों से दबी ज़ुबान
कहने वाली बातें, सरेआम कही जाने लगीं हैं
घर हमेशा से रहा था, घर हमारी खुशियों का
दुनिया खुशी मनाने घर से बाहर जाने लगी है
हमारा तो यही अनुभव था, प्रेम
को सदा अनुभव किया जाता है
आज नया चलन है, दुनिया अब
इस अनुभव को दिखाने लगी है
घर दरों और दीवारों से नहीं वरन्
अपनों के अपनेपन से बना करते हैं
इसके रोशनदान दरवाजे खिड़कियां
ताज़ी हवाओं से ही खुला करते हैं
ढूंढना चाहोगे तो हर खुशी मिलेगी
तुम्हें दोगुनी या चौगनी होकर यहां
जीवन कस्तूरी यहीं है, जिसे ढूंढने
नजर चौखट के बाहर जाने लगी है
जीवन कस्तूरी तो यहीं है मेरे दोस्त जिसे ढूंढने
अब तुम्हारी नजर चौखट के बाहर जाने लगी है
- नितिन जोधपुरी "छीण"
घर 277/04 नवदुर्गा नगर
झालामंड रोड जोधपुर 342005
फोन – 9820629811
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