कल की आजादी के लिए वह जीवित भी रहेगा या नहीं, वह नहीं जानता, मगर फिर भी उस आजादी में जीने की आशा मैं ही वह जीता है, वही उसका एकमात्र प्रोत्साहन है,
असफ़ल नायक
बंदर को कहा जा रहा है, कि बिना उछले, कूदे, एक दिन बैठा रहे तो आने वाले दिनों में उसे उछलने कूदने के लिए पूरी आजादी प्रदान की जाएगी। अन्यथा वह पूरी जिंदगी एक ऐसे पिंजरे में बंद कर दिया जाएगा जहां वह सिर्फ चल फिर सकता हैं, उछल कूद करने की जगह वहां नहीं मिलेगी। मजबूर बंदर ने, भारी मन से प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया (ना स्वीकार करने का उसके पास विकल्प भी नहीं था) मगर उसका वह एक दिन जैसे निकला वह अपने आप में बड़ी रोचक कथा है।
पहले 6 घंटे,....एक कमरा, उसमें एक बंदर जिसके चेहरे की आकृति इस क्षण काफी शांत है। वह अपने आप को संभाले हुए हैं। मन में दोहराए जा रहा है कि यह एक दिन का बलिदान ही, आगे चलकर उसकी आजाद जिंदगी की नीव बनेगा। यह एक दिन, इतिहास में स्वर्णिम अक्षरो में लिखा जाएगा। यह एक दिन तय करेगा उसके आने वाले जीवन की गति क्या होगी। बड़ा महत्वपूर्ण और आदरणीय है यह दिन। वह कृतज्ञता और समर्पण के भावो में आंखें बंद कर लेता है और नतमस्तक हो जाता है इस विराट दिन के प्रति। जब व्यक्ति की अपनी जेब धन से भर जाती है, फिर उसका ध्यान दुनिया की गरीबी की ओर जाता है। अन्यथा उसके पहले तो सारा श्रम रुपये कमाने का रहता है ना कि उन्हें बांटने का। ठीक इसी प्रकार इस बंदर ने अब अपने साथी बंदरो के बारे में सोचा। उसका मन उनके प्रति दया से भर उठा, और अपने आप को वह उनसे कुछ अधिक उच्च समझने लगा। क्यू? क्योंकि आजादी कितनी अनमोल होती है, उसके लिए क्या कीमत चुकानी पड़ती है, यह बात सिर्फ वह समझ पायेगा। और इसी वजह से उसे यह विश्वास था कि वह आजादी का सर्वोत्तम उपयोग कर सकेगा जो दूसरों के लिए असंभव होगा। हा इस आज़ादी की कीमत समझने के लिए उसे यह करना होगा। वह पीछे नहीं हटेगा.
अगले 6 घंटे,...वह पीछे नहीं हटेगा.. यह ध्वनि अब भी कमरे में गूंज रही है लेकिन अब शब्दों में दृढ़ता का अभाव है, वाक्य की आत्मा निकल चुकी है अब केवल एक शव है जिसकी पुनर्वृत्ति हो रही है। उछल कूद, चंचलता, उमंग, ऊर्जा यह सब उसका स्वभाव है, उसकी आत्मा है, लेकिन अब यही सब ना करने के लिए वह बाध्य है। और उस बंधन की डोर पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा है, अगर तू एक आज़ाद कल देखना चाहता है तो आज बंधना होगा, बंधना होगा तुझे। अब शांति उसके चेहरे से लुप्त हो चुकी है। अशांत और आक्रांत भाव ने उसके चेहरे पर जगह बना ली है। अब उसे यह एक दिन का बंधन अस्वीकार्य जान पड़ता है। अन्याय लगता है यह उसे । बंधन.. बंधन कितना कटु है यह बंधन. मानव का सबसे बड़ा अभिशाप! मानसपटल पर सबसे गहरा अघात। उसका एक मन कहता है , क्यू तू इतना बेचैन अशांत और आक्रांत होता है, इसे एक कड़वी दवाई समझ कर ग्रहण कर, आगे चलकर ये कड़वाहट ही तेरी मुक्ति का, तेरी स्वतंत्रता का, द्वार बनेगी। पर तभी दूसरी आवाज आती है, केसे ग्रहण करु ये कड़वी दवाई। तुम मुझे कल की मुक्ति का हवाला देकर इसे पिलाये जाते हो, पर मुझे तो इसकी कड़वाहट आज ही मारे जा रही है। उस मुक्ति को, उस आजादी को जीने की आशा में ही मैं क्षण क्षण मर रहा हूं। मैं आजादी चाहता हूं इसी क्षण से, आजादी इस बंधन से, आजादी, आजादी की उस आशा से जो कल मिलेगी। मैं इस क्षण आज़ाद जीना चाहता हूँ। उछलना चाहता हूं.. कूदना चाहता हूं.. चाहता हूं.. मैं भी यह सब चाहता हूं। पर परीक्षा अभी चलती है। बाती को अभी और जलना होगा, तेल के चुकने तक। फिर विश्राम मिलेगा. अभी जलना होगा.. अभी और जलना होगा।
अगले 6 घंटे,....अभी और जलना होगा, इसके अतिरक्त कोई विकल्प नहीं.. जानता है वह , दोहराता भी है वह इसे, पर इस से उसे शांति नहीं मिलती, वह और अशांत हो उठता है। कैसी परिस्थति है यह, वह इस से भाग क्यू नहीं सकता। एक क्षण में उसे आराम मिल जाएगा। पर नहीं, अगर अभी वह भागा तो पूरी जिंदगी वह उस संपूर्ण आजादी को नहीं जी पाएगा। वह बस एक दूसरा बंधन होगा जो कि इससे थोड़ा ढीला या नाज़ुक होगा। नहीं उसने निर्णय कर लिया है, वह इसे सहेगा उसे सहना ही होगा, एक ही दिन की तो पीड़ा है...पर केसे कटे यह एक दिन, जो वर्षों से भी बड़ा व्यतीत होता है। जो उदासी या अवसाद के एक गहरे गड्ढे में हर क्षण उसे खींच रहा है। ऐसे में अगर उसे कल आजादी मिल भी गई तो क्या वह उसका मुस्कुराकर स्वागत भी कर सकेगा। क्या वह तब भी वह रह सकेगे, जो वह था। या यह एक दिन का बंधन उसे पूरी तरह से तोड़ देगा। कल जब वो आज़ाद घूम रहा होगा, तो उसके चेहरे पर ख़ुशी के भाव लुप्त होंगे। अमावस की अंधेरी रात, उसकी काली स्मृतियां, इतनी गहरी होगी कि फिर कोई पूनम की रात उसे नहीं मिटा सकेगी। क्या होगा.. क्या होगा वह सोचता हैं, बहुत सोचता हैं, पर कोई उत्तर नहीं मिलता।
आखिरी 6 घंटे, .... जब कहीं कोई उत्तर ना मिले, तो प्रतीक्षा का दामन ही थामना पड़ता है। उसने भी वही किया. इस बंधन से वह भाग भी नहीं सकता था, क्यूकी उसके भावी जीवन की आजादी का प्रश्न था, और इस बंधन में वह रह भी नहीं रह सकता था, क्योंकि यह दीमक की तरह उसे खोखला कर रहा था। प्रतीक्षा.. इस दिन के ढल जाने की, प्रतीक्षा कल के सूर्योदय की, प्रतीक्षा न्याय की, प्रतीक्षा उत्तर की की क्यों, उसी के जीवन में यह दिन आया। नियति ने किस कठोर हृदय से उसके जीवन का यह पन्ना लिख डाला। क्या एक बार भी उसके हाथ नहीं कापे. उसके सारे उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए हैं। भविष्य जिसे वह आज चाहकर भी नहीं देख सकता, लेकिन उसके लिए वह आज मारा जाता है, पीड़ा सहता है। वह नहीं जानता क्या होगा कल, वह नहीं जानता अगले क्षण ही क्या हो जाएगा। कल की आजादी के लिए वह जीवित भी रहेगा या नहीं, वह नहीं जानता, मगर फिर भी उस आजादी में जीने की आशा मैं ही वह जीता है, वही उसका एकमात्र प्रोत्साहन है, उसके आज में ऐसा कुछ नहीं जिसके लिए वह अपनी सांसे खर्च करे , एक आज़ाद कल की आशा में ही वह जीता है, रोता है, और मरता है। इस साधना यज्ञ की अग्नि को अपने आंसुओं की आहुति से प्रज्ज्वलित रखता है। और दोहराता है, कल होगा, कल ज़रूर होगा और कल सब ठीक होगा..
राह चलते लोगो ने बताया कि कल उन्होंने उस बंदर को मृत पाया। उसका अंतिम संस्कार गांव के कुछ लोगों द्वारा किया गया।
- हर्ष पोखरना
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