भामती - उषाकिरण खान | उपन्यास समीक्षा

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उपन्यास आधारित है मिथिला के मिमांसक और अद्वैत दर्शन के टीकाकार वाचस्पति मिश्र के जीवन पर। ब्रम्हसूत्र के शंकरभाष्य की टीका लिखने में वाचस्पति ऐसे लीन

समर्पण की अभूतपूर्व गाथा, नारीवादियों के लिए एक बड़ा प्रश्न चिह्न !!


भामती के हृदय में क्लेश है कि उसने पण्डित वंश के सूत्र को आगे नहीं बढ़ाया । उसकी इस अक्षमता का अपराधी मैं ही हूँ ।शमन मैं ही करूँगा। सन्तान किंवा पुत्र कितनी पीढ़ियों तक सूत्र बनाकर रख सकता है? यह तो कालक्षेप से विछिन्न हो जाता है । मैं भामती को यावच्चन्द्र दिवाकर तक अमर रहने का सूत्र देता हूँ संतान रूप में। इस टीका का नामकरण करता हूँ -'भामती टीका'।'' (पृष्ठ 153)

क्या आजीवन निःस्वार्थ सेवा और पूर्ण समर्पण संभव है? यदि संभव है तो क्या यह उचित है और विशेषतः तब, जब अपने अस्तित्व को ही भुलाना पड़े, अपनी इच्छाओं को भी अपने साथी या प्रेमी के उद्देश्य की पूर्ति हेतु न्योछावर करना पड़े? यह प्रश्न शायद और जटिल हो जाता है जब यह समर्पण एक स्त्री का अपने पति, प्रेमी या जीवन संगी के प्रति हो। आज के अत्याधुनिक युग में शायद कई लोग इसे आत्महनन कहें तो कई इसे प्रेम का चरमोत्कर्ष  परन्तु सत्य तो यही है कि सबकी प्रवृत्ति और प्रकृति भिन्न होती है, कुछ समर्पण में ही सुख की अनुभूति करते हैं तो कुछ स्वाधीनचेता बने रहकर ही जीवन की पूर्ण उपलब्धि करते हैं। अतः यदि किसी को निःस्वार्थ समर्पण आत्महनन सा लगे या ऐसा करते हुए अपना जीवन उद्देश्यहीन सा लगे तो उसे अवश्य ही इस पथ पर आगे नहीं बढ़ना चाहिए- और इसे उसकी दुर्बलता या चारित्रिक पतन कहना सर्वथा अनुचित होगा क्योंकि सभी हाड़-मांस के बने हुए हैं, कोई निर्जीव पाषाण थोड़े ही है। परन्तु लोकहित या जनकल्याण हेतु अथवा  किसी महान उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रकृति कुछ ऐसे मानव-मानवियों का निर्माण करती है जो कठिन से कठिन आत्मत्याग करने से पीछे नहीं हटते, समाजकल्याण और जनहित की बलिवेदी पर अपने अस्तित्व  को भी न्योछावर कर देते हैं।  कुछ ऐसी ही है इस उपन्यास  की नायिका,भामती । 'भामती' एक ऐतिहासिक उपन्यास के साथ-साथ सामाजिक उपन्यास भी है जो एक अविस्मरणीय प्रेम कथा का वर्णन करता है। इस पुस्तक के लिए लेखिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार (२०११) से सम्मानित किया गया था अतः इसकी समीक्षा लिखना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है ।

सर्वप्रथम, जानते हैं कि भामती कौन थी और क्या था इनका योगदान कि अध्यात्म के एक महानतम ग्रन्थ का नामकरण एक स्त्री के नाम पर हुआ जबकि उस श्रेष्ठतम रचना में उन्होंने एक पंक्ति भी न लिखी थी ? मिथिलासुता भामती, महापण्डित वाचस्पति मिश्र की पत्नी थी। वह पंडित वाचस्पति के गुरु पंडित त्रिलोचन की पुत्री थी। नवम-दशम शताब्दी की मिथिला की इस आश्रमबाला ने सम्पूर्ण मानवजाति के समक्ष समर्पण और त्याग का अति दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया।  

यह उपन्यास न केवल मिथिला के अद्वैत दर्शन के टीकाकार महापंडित वाचस्पति मिश्र और उनकी कर्तव्यपरायणा पत्नी भामती के जीवन और आदर्श की गाथा कहता है अपितु नवम-दशम शताब्दी की ग्रामीण मिथिला की जीवन शैली का अत्यंत सुंदर चित्रण भी प्रस्तुत करता है। महापंडित वाचस्पति मिश्र, आदि शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर टीका लिखने का अत्यंत कठिन कार्य स्वीकार करते हैं और अपनी इस रचना में वह अपने मानस गुरु मंडन मिश्र के मत को प्रतिपादित करते हैं, तथा मंडन मिश्र को भी आदि शंकर के समान ही अद्वैतवादी सिद्ध करते हैं। इस कालजयी, युगांतकारी पुस्तक को लिखने में उन्हें अष्टादश वर्ष लग गए और इस दीर्घ अवधि तक वह स्वाध्ययन, चिन्तन-मनन और ग्रंथ रचना में पूर्णतः निमग्न रहें। पुस्तक पूर्ण होने पर जब  वह अपने आस-पास के जगत के प्रति सचेत हुए तब उन्होंने अपने कक्ष में एक प्रौढ़ा को दीप की बाती उकसाते देखा ....उज्ज्वल दीपशिखा में महापण्डित  ने उस मुख को देखा  और अनायास ही कह उठे  " सुमुखी आप कौन है?"

वाष्पाच्छादित नेत्र और भावविह्वल कण्ठस्वर में स्त्री ने उत्तर दिया " भामती, आपकी अर्धांगिनी स्वामी ।"

महापण्डित के अन्तस में वज्राघात हुआ।

भामती - उषाकिरण खान | उपन्यास समीक्षा
विगत अष्टादश वर्षों में भामती ने पूर्ण लगन से वाचस्पति मिश्र की सेवा ही की थी, उनके दीये को उकसाती, रात को भी दीये में तेल डालती जिससे पति के अध्ययन-लेखन में कोई विघ्न न पड़े, पति के भोजन का प्रबंध करती, सभी गृह कार्य सुचारू रूप से करती, बिना किसी प्रतिफल की आशा किये । उन्होंने अपने यौवन की भी तिलांजलि दे दी, केवल इसलिए कि महापण्डित अपने महान उद्देश्य में सफल हों । भामती ने "आदर्श पत्नी बन ज्योति कलश स्थापित किया“ और अन्ततः जब पति से मिलन हुआ, तब तक तो प्राकृतिक विपर्यय के कारण वह गर्भधारण की क्षमता खो चुकी थी । भामती अपने पति से कहती हैं -" बिना मञ्जरायित वृक्ष पर कोयल कुहुके, बौर नहीं आएंगे। मैं आपकी कुल परम्परा को आगे बढ़ाने योग्य नहीं रही। ......स्वामी, मेरे प्रभु की जब इच्छा हुई तब-तक मेरे जीव का माटी जल सूख गया। सरंजाम समाप्त हो गया । आपका संसार यह जीव कैसे निर्मित कर सकेगा। " (पृष्ठ 132,133)

कितना कारुणिक चित्रण किया है लेखिका ने भामती के दुःख का - पाठकगण भी भावविह्वल हो जाते हैं। ऐसे समर्पण की कथा शायद ही कहीं और सुनने पढ़ने को मिले। यदि महापण्डित वाचस्पति मिश्र ज्ञान के द्योतक हैं तो भामती उस ज्ञान के द्योतक का मार्ग प्रशस्त करने वाली अग्रदूत है, अपना सर्वस्व अर्पित कर उसने केवल महापण्डित के कक्ष के दीप को ही नहीं प्रज्जवलित कर रखा था अपितु उस महापुरूष की ज्ञानज्योति को भी अकम्पित दैदीप्यमान बनाये रखा था । "भामती नहीं रहती तो वे (वाचस्पति मिश्र) कैसे अपना जीवन यापन करते, कितनी देर मसि-कागद जुगाड़ में लगता, तेल बाती और दीप की प्रतिक्षण चिंता करनी  पड़ती फिर भी ऐसा स्वच्छ सुंदर कार्य न होता.....धन्य है भामती कि वाचस्पति निष्कंटक भाव से लेखन कार्य में लीन हैं।." (पृष्ठ 93 )

तभी तो लेखिका ने कई बार भामती की तुलना जनकसुता से की है। दोनों ने ही तो अपने पतियों के व्यक्तित्व को महिमामंडित और समाज के मध्य एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु निज अस्तित्व को ही न्योछावर कर दिया । भामती ने भी सियासुकुमारी की भूमि में जन्म लिया। "सिया सुकुमारी वन  में वास करती रहीं,  तुमने (भामती) घर मे वनवास भोगा। वही कारण था कि प्राणप्रिय से विलग होते समय वह अमर्ष में थीं, तुम शांतिपूर्वक पति की गोद में आनंदित हो ।" (पृष्ठ 191)

यद्यपि विवाह के बाद से ही भामती एक सेविका के समान ही रही तथापि उनका अस्तित्व केवल गृहकार्य, पतिसेवा और पाकशाला तक ही सीमित नहीं था। वह  ग्रामीण बालाओं को विभिन्न कला-शिल्प, भित्तिचित्र, अरिपन आदि सिखाती । "सोनापाट की लच्छी विभिन्न रंगों में रंग उसकी चोटी गूँथ सिकहर बनाना सीखतीं । महीन ज्यामितिक फूलों वाली सीकी की डलिया, मौनी, बक्सा, शोभा की सामग्री अर्थात तोता-मैना इत्यादि सीखने वाली कन्याओं का तांता लगा रहता । वस्त्र में फूल पत्तियों की कढ़ाई सीखने आती ।" (पृष्ठ 70) वज्रयानियों के उत्पात और बदलते समय के साथ साथ जब ग्रामीण कन्याओं का पाठशाला प्रवेश वर्जित हुआ तब भामती ने ही ग्रामीण स्त्रियों के अनुरोध पर इन ग्रामबालाओं को भट्टठा पकड़ाकर, 'ॐ नमः सिद्धम' लिखवाकर एक नए युग की सूचना की । स्वयं आंगन में काम करती हुई , भामती, ग्रामीण कन्याओं को पढ़ाती । गुरुदक्षिणा अस्वीकार करती हई वह कहती हैं " मैं गुरु बनने की इच्छा नहीं रखती। माता काकी की तरह विद्यादान दे रहीं हूँ।" (पृष्ठ 71)
ऐसा नहीं है कि भामती के अन्तर में कभी कोई झंझावात न उठा हो, कभी कोई प्रश्न न जागा हो, कभी कोई कामना बलवती न हुई हो । वह सोचती " तो यह क्या स्वामी की व्यक्तिगत उदासीनता है? स्वाभाविक रूप में स्त्री विरक्ति ? रति विरक्ति ? पुस्तक पढ़ना लिखना आवश्यक है, व्यसन है पर विक्षिप्त की सीमा तक? .....क्या मात्र यही कारण है इस उदासीनता का ? (पृष्ठ 75 )" परन्तु ये सभी प्रश्न उसके अन्तस को कभी घेर नहीं पाते, काले मेघ आते पर शीघ्र ही छट जाते। ऐसा ही था उसका व्यक्त्वि। पिय संग पा कर भी इस दीर्घकालीन विरह व्यथा ने उसे उपासिका बना दिया था। "कभी भी-जब सुललित पुष्पायित भोर देखती कि अलसितविभावरी में खाट बिछाकर लेटती है, तब संभवतः अक्षत देह की भौतिक यात्रा सुरसुराने लगती है उसी समय एक ही सुपुरुष स्मृति के कपाट खोल आ खड़ा होता है-सुखासन पर रीढ़ तान बैठा पुस्तक पर दृष्टि गड़ाए, वाचस्पति मिश्र । मन ही मन उनका नमन करती और निद्रादेवी की क्रोड़ में जा बिलमती ।" (पृष्ठ 94 )

यह विचारणीय विषय है कि विशेष परिस्थिति मे हमारी प्राथमिकता क्या है? ज्ञान पिपासु स्त्री या पुरुष के पर सदैव शरीर हावी नहीं होता है । तब वह साधक बनता या बनती है। भामती के ऊपर भी काम का आक्रमण होता था जिसका उसने यत्नपूर्वक निषेध किया। उन्होनें शारीरिक सुख और संतान सुख  से अधिक ज्ञान को प्रश्रय दिया।

हाँ, एक प्रश्न अवश्य मन को घेरता है कि क्या इतना समर्पण संभव है, उचित है और क्या भामती को तनिक भी प्रतिवाद नहीं करना चाहिए था? जैसा कि लेखिका ने उपन्यास के एक और स्त्री पात्र   सौदामिनी से कहलवाया है -" क्या कोई अन्य स्त्री यह कार्य इतने समर्पित भाव से कर सकती थी ? स्त्री को अपना जीवन-यौवन व्यर्थ नहीं लगेगा? विवाह का मुख्य कार्य संतानोत्पत्ति है .........पर स्त्री को अपनी देह से, उसके सुख से सदा ऊपर रहने  की अपेक्षा की जाती है।  " (पृष्ठ 93 ) नारीवादियों के लिए भी यह बहुत बड़ा प्रश्न है। लेखिका स्वयं भी स्त्री विमर्श रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं, फिर भी वह कैसे भामती के इस समर्पण का (या यों कहें कि वाचस्पति मिश्र द्वारा अनजाने में हुए अन्याय का ) मूक समर्थन कर रहीं हैं ? मुझे उपन्यास पढ़ते हुए दुःख भी होता और थोड़ा क्रोध भी आता, कि क्यों भामती कोई प्रतिवाद नहीं करती हैं? पर जैसे-जैसे पुस्तक के पृष्ठों को पढ़ता चला गया वैसे-वैसे भ्रम और संशय रूपी काले मेघ छटते चले गए और और नीलाभ आकाश पूर्ण उज्जवल हो उठा। लेखिका ने सत्य ही लिखा है - "युग्म है वाचस्पति और भामती....इस युग्म के समवेत प्रयास के बिना यह कार्य असंभव था। ईश्वर तथा प्रकृति की तरह, एक ही प्राण दो देह धारण करने को उद्यत होते हैं कभी-कभी।  यह मात्र कहावत नहीं प्रमाणित तथ्य हो जाता है।  ईश्वर ने जिस कार्य के निमित्त वाचस्पति को जन्म दिया उसी कार्य के निमित्त भामती को भेजा..... " (पृष्ठ 139)  अर्थात ऐसे युग्म का जन्म लेना और साथ रहना प्रकृति द्वारा पूर्वनिर्धारित होता है। दोनों एक दूसरे के पूरक सिद्ध होते हैं।
 
माननीया लेखिका को बहुत धन्यवाद, कि उनके कारण मेरे एक प्रश्न, एक भ्रम का निवारण हुआ और समझ में आया कि क्यों सीता,भामती, विष्णुप्रिया ने कभी प्रतिवाद नहीं किया। यदि चाहती तो  विष्णुप्रिया भी सरव प्रतिवाद कर अपने पति गौरांग निमाई को रोक सकती थी, परन्तु उन्होंने तो महान त्याग किया। अपने पति से कभी भी न मिलने जाने का निर्णय अपने आप में नीरव प्रतिवाद ही तो था परन्तु उनके  इसी निर्णय ने, इसी त्याग रुपी प्रतिवाद ने उन्हें महाप्रभु के पथ का अवरोध न बनने दिया।  भक्ति, चैतन्य, और ज्ञान का जो अलख महाप्रभु ने जगाया था उस स्वर्णिम आभा में विष्णुप्रिया के आत्मोत्सर्ग की ज्योति भी तो सम्मिलित थी ..... तभी तो महाप्रभु स्वयं विष्णुप्रिया बन गए थे।श्री रामकृष्ण परमहंस ने भी अपनी पत्नी माँ शारदा की देवी रूप में पूजा की थी और आजीवन शारदा देवी को उसी रूप में ही स्वीकारा। यह सम्बन्ध स्त्री-पुरुष की जैविक और प्राकृतिक कामनाओं से परे था। शारदा देवी ने भी कभी विरोध नहीं किया, उन्होंने इस सम्बन्ध को सहर्ष निभाया, पति का पूर्ण साथ दिया और स्वयं को तथा दूसरों के जीवन को आध्यात्मिक आभा से आलोकित किया। शायद (जैसा की लेखिका ने उल्लेख किया है इस पुस्तक में ), - "मात्र विवाह कर संतानोत्पत्ति करना ही सांसारिकता नहीं है, वरन विद्या धारण करना, विद्यादान करना तथा औषधि विज्ञान की पुस्तक लिखना भी सांसारिकता की परिधि में आता है।  संसार के लिए किया जाने वाला सारा कार्य सांसारिकता है। स्वयं साधना जो साधक कंदरा में बैठकर करते हैं , वे स्वयं के लिए ही करते है।  कंदरा में बैठकर सौ वर्ष ध्यान करें या तीन सौ वर्ष। अपना उपकार करते हैं।  (पृष्ठ 81)”

शायद, सदैव उग्र रूप धारण करना, वाणी की उच्चता बढ़ाकर वाद-विवाद करना या नारेबाज़ी करना ही प्रतिवाद का एकमात्र पथ नहीं है।  भरी राजसभा में द्रौपदी का प्रतिवाद  उचित था, तो सीता का राम के पास न लौटने का निर्णय (राजसभा के समक्ष अग्निपरीक्षा न देना) भी अपने आप में मूक प्रतिवाद ही था। भामती का समर्पण ही आदर्श बना ....वाचस्पति स्वयं झुक गए उनके सामने। उन्होंने अपनी इस महान रचना का नाम ही रख दिया -'भामती टीका''। अपनी महानतम कृति को अपनी पत्नी, भामती को समर्पित किया ।

उपर्युक्त उदाहरणों द्वारा भामती के त्याग के औचित्य को सिद्ध करते हुए भी आज के इस अत्याधुनिक युग में ऐसे निःस्वार्थ त्याग या आत्मोत्सर्ग की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठता तो अवश्य ही है। अर्थात, क्या भामती आज भी प्रासंगिक है ? इदानीतन, किसी एक चैनल पर श्रीमती सुधा मूर्ति जी का साक्षात्कार देखा, जिसमे  वह अपने पति श्री नारायण मूर्ति (इनफ़ोसिस के संस्थापक)  के अतिव्यस्त जीवनशैली के बारे में बता रही थीं। अपने पति को 'तापस' बताते हुए उन्होंने दर्शकों से कहा कि इन्फोसिस ही उनके पति के जीवन का एकमात्र आधार और उद्देश्य बन चुका था। बहुआयामी और अत्यिव्यस्त जीवनशैली के कारण वे दोनों बहुत कम ही साथ रह पाते , परन्तु इसी अतिव्यस्त जीवन साथी का साथ निभाते हुए, अपनी स्त्री सुलभ छोटी-मोटी इच्छाओं की बलि देते हुए उन्होंने आधुनिक युग की क्रान्ति (इन्फोसिस निर्माण) में अपना  योगदान भी दिया और साथ ही अपने जीवन को भी एक दिशा प्रदान की, एक उद्देश्य प्रदान किया तभी आज उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया जा रहा है। अतः समर्पण, त्याग और साथ देने की भावनाएँ कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकती  हैं , युग कोई भी क्यों न हो ।

ऐसा भी नहीं है कि लेखिका ने वाचस्पति मिश्र द्वारा भामती की अवहेलना का बिलकुल ही प्रतिवाद नहीं किया हो। उन्होंने ग्रामीणों के कथोपकथन द्वारा अपनी असहमति भी प्रकट की है -" पुस्तक और विचार, भाष्य और टीका किसके लिए ? मनुष्य के लिए न ! मनुष्य पर से दृष्टि हटाकर पुस्तक में गड़ाए बैठें हैं, यह क्या ?" (पृष्ठ 82)

सौदामिनि के माध्यम से भी लेखिका ने अपना प्रतिवाद स्पष्ट किया है -" प्रगल्भ आयु में स्वेच्छया पण्डित वाचस्पतिमिश्र का पाणिग्रहण कर आई तो क्या मात्र सेवा के इसी स्वरूप के लिए ? अन्यायपूर्ण विडम्बना है यह .........उनको (वाचस्पति मिश्र) कर्तव्यबोध नहीं है उन्होंने विवाह क्यों किया? एक स्त्री के प्रत्येक माह रजोदर्शन को निष्फल करने के पाप से बच जाएँगे क्या ?" (पृष्ठ 108,109) ...परन्तु प्रकृति ही शायद दो प्राणियों को मिलाती है किसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए और इसे समझने में हमें बहुत समय लग जाता है।

यह उपन्यास केवल वाचस्पति और भामती की कथा ही नहीं कहता अपितु उस युग (नवम- दशम शताब्दी) के पूर्ण क्षितिज को बहुत ही सरलता और सुंदरता से प्रस्तुत भी करता है। एक ओर यदि भामती के त्याग और समर्पण की कहानी है तो दूसरी ओर सौदामिनी जैसी प्रतिवादिनी की कथा भी है। दशम शताब्दी की ग्रामीण मिथिला की कन्या सौदामिनी का वज्रयानी तांत्रिको द्वारा छल से अपहरण होता है। तांत्रिक क्रियाओं के उपयुक्त न होने के कारण वह बच तो जाती है परन्तु विक्षिप्त हो अपने ग्राम लौटती है। वाचस्पति मिश्र के कहने पर ही वह ग्राम के वैद्यराज के पास औषधिविद्या सीखती है और धीरे-धीरे जड़ीबूटियों की बड़ी जानकार बन जाती है।  एक दिन सौदामिनी चीनी बौद्ध भिक्षुओं के साथ अपने गाँव-घर का त्याग कर चली जाती है । ग्रामवासी उसके चरित्र पर कई लांछन लगाते हैं , परन्तु पण्डित वाचस्पति को पूर्ण विश्वास था कि सौदामिनी ने अवश्य ही ज्ञानार्जन हेतु स्वगृह का त्याग किया है। उनका कथन ही सत्य प्रमाणित हुआ।  सौदामिनी ने बौद्ध संघाराम में प्रवेश कर औषधि विद्या और जड़ीबूटियों पर गहन अध्यययन किया और फिर स्वयं ही आचार्या बन गयी परन्तु उसने बौद्ध धर्म न अपनाया।  ओदंतपुरी और वैशाली संघाराम में उससे, औषधि विद्या का ज्ञान प्राप्त करने दूर देश से भी शिष्य आने लगे । धीरे-धीरे सम्पूर्ण उत्तरभारत में उसका नामयश प्रचारित होने लगा।  जब वह एक प्रतिष्ठित वैद्य के रूप में अपने ग्राम लौटी तब ग्रामवासियों ने उसका सम्मान किया।  सौदामिनी ने विवाह न करने का निश्चय कर लिया था, अपनी माता की सेवा भी की और माता के देहावसान के पश्चात वह पुनः ग्राम को लौटी और वहीं  पर औषधिशाला तथा औषधि विज्ञान की पाठशाला स्थापित कर रोगियों की सेवा तथा  शिष्यों को ज्ञानदान करने लगी । दशम शताब्दी की प्रतिवादिनी स्त्री की वाणी से एक दिन अनायास ही (भामती के अंतिम समयकाल पर) उसके अंतस की अतल गहराई में छिपी हुई बात निकल गई  "सुलक्षणा बहन भ्रातृप्रेम और दायित्व के नीचे दबी है।  मैं पंडित जी (वाचस्पति) के राग-पाश में आवेष्ठित हूँ ...पीछे तुम्हारे निष्काम कर्म के आश्चर्यपूर्ण अध्याय की साक्षी बनी रही। (पृष्ठ 189)" अतः उस साहसिनी ने  महापंडित के प्रति अपनी अनुरक्ति को स्वीकार कर ही लिया, गोपन भावना को प्रकट कर दिया।  भामती के देहावसान के बाद सौदामिनी ने ही वाचस्पति मिश्रा की पाठशाला तथा पाकशाला की देखभाल की। भामती और सौदामिनी जैसे दो विपरीत मेरुदंड वाले चरित्र, और साथ में लेखिका की चमत्कृत भाषाशैली इस उपन्यास को अत्यंत पठनीय बना देता है।

भामती और सौदामिनी के मध्य हुए कथोपकथन द्वारा भी लेखिका ने दोनों चरित्रों की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। सौदामिनी ने भामती को वाचस्पति मिश्र के भोजन में एक विशेष औषधि (काम उत्तेजक) को प्रयोग करने को कहा और साथ ही एक ही शैय्या पर स्वामी के निकट रात्रि व्यतीत करने को कहा परन्तु भामती ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इस से महापंडित के कार्यसिद्धि में बाधा पड़ती।  भामती ने स्वेच्छा से अपने यौवन की बलि चढ़ा दी। 

इस उपन्यास में लेखिका ने कुछ वैदिक कथाओं का भी वर्णन किया है जो बहुत ही ज्ञानवर्धक तथा रोचक हैं ; जैसे अपने ही भ्राताओं द्वारा प्रताड़ित घोषा के यज्ञोपवीत-सूत्र त्याग करने की कथा।  वैदिक युग की प्रतिवादिनी घोषा गर्जना करती है  " लीजिये , यज्ञोपवीत का यह सूत्र अब मेरे लिए निष्प्रयोजन है।  अब कोई स्त्री क्यों यज्ञोपवीत धारण करें।  स्त्री आज अपना यह पवित्र सूत्र आपको सौंपती ह।  सामर्थ्यवान हों , संभालें इसे " (पृष्ठ 123 )

लेखिका स्वयं इतिहासविद हैं अतः ऐतिहासिक तथ्यों को त्रुटिविच्छितिहीन रूप से प्रस्तुत किया गया है। ऐतिहासिक उपन्यास में केवल इतिहास ही नहीं होता है, वरन, वर्णित क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थिति, लोगों का रहन-सहन उनकी धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं -इन सभी का सुन्दर संतुलित सम्मिश्रण होना अत्यावश्यक है। यह अपूर्व सम्मिश्रण  इस पुस्तक में व्याप्त है और इसे अत्यन्त पठनीय बनाता है। लेखिका ने इतिहास भी लिखा है और मिथिला की माटी से जुड़े हुए मनुष्यों की गाथा भी लिखी है।  यही उनकी विशेषता है। उनकी प्रत्येक रचना से माटी की सुगंध अवश्य आती है। यद्यपि उन्होंने नवम-दशम शताब्दी की मिथिला के महानतम पुरुष की कथा लिखी है तथापि वह  ग्रामीण जन-साधारण की बात कहना नहीं भूली हैं। भालोपीसी  जैसे ग्रामीण चरित्र रच कर लेखिका ने साधारण ग्रामीण महिलाओं की आशा -प्रत्याशा, सुख-दुःख, समाज को देखने का नज़रिया -सब कुछ बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है।
 
वृद्धा भालोपीसी कहती हैं " कौन समझाए आपको कि एक अवतार कार्य की पूर्ति के निमित्त कितने बड़े संसार निर्मित्ति कि जाती है.......... कौशल्या और मंदोदरी जन्म लेती हैं तो मंथरा और कैकेयी की भी आवश्यकता पड़ती है। वैसे ही ज्ञान के अवतरण और उसकी प्रतिष्ठा वृद्धि में मेरा यह भंगुरदेह लगा, इसका कोई योगदान रहा तो मैं अपने आपको सौभाग्यशालिनी समझ रही हूँ। (पृष्ठ 165 )"  उपन्यास में ग्रामीण मिथिलावासियों के औदार्य, परोपकारिता और उनके अन्तस में स्थित एकता की भावना को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।अनाथ वाचस्पति और उसकी बहन सुलक्षणा को ग्रामवासियों ने ही संरक्षण प्रदान किया, उनको गुरु आश्रम में भेजा तथा उनके रक्षणावेक्षण का भी पूरा ध्यान रखा । उपन्यास में सम्पूर्ण मिथिला का तत्कालीन समाज है, उसके गुण- अवगुण है ।

इस उपन्यास को पढ़ कर बहुत आश्चर्य हुआ कि मिथिलावासियों की जीवन शैली के साथ हम बंगवासियों की कितनी समानताएं है। खान- पान, आचार- व्यवहार, यहाँ तक की बोली में भी बहुत मेल है।  उदाहरणस्वरूप - 'भालो पीसी' , 'पीसी' , 'माछ- भात', 'गुड़ डालकर चावल की खीर', 'तालत्थी जितना बड़ा मछली का खंड तलना', 'खजूर के पत्ते से बनी बगुली', 'कढ़ी-बड़ी', सरस्वती पूजा की प्रक्रिया इत्यादि। बंगभाषी भी बुआ को 'पीसी' ही बुलाते है, बंगीय ब्राह्मण भी सामिष भोजन करते हैं ।

लेखिका ने महायानी, वज्रयानी और कौलाचारियों के बढ़ते प्रभाव को भी दर्शाया है। महायान धारा से ही वज्रयान परम्परा की उत्पत्ति हुई थी। ये वज्रयानी, बुद्ध के बताये गए 'आत्मदीपो भव' और अष्टांगिक मार्ग के विपरीत तंत्र-मंत्र में ही उलझे रहते और अपनी तांत्रिक क्रियाओं की सिद्धि के लिए कुमारी कन्याओं का अपहरण करते, उनके साथ घृणित व्यवहार करते, उनकी बलि भी चढ़ाते। इन्हीं कौलाचारियों के भय से ही रजस्वला बालिकाओं के पाठशाला या गुरु आश्रम जाने पर प्रतिबन्ध लग गया । बालिकाएं और युवतियाँ अधिक घरघुस्सु होती गईं। शनै: शनै: स्त्रियाँ वेद, उपनिषद्, व्याकरण, मीमांसा आदि से विमुख होती हुई केवल गृह कार्य, गृह सज्जा आदि में  सीमाबद्ध होती चली गईं। बालिका बधू  का प्रचलन बढ़ने लगा। लेखिका के अपने शब्दों में " मिथिला क्यों शिथिला होती गई इसकी पीड़ा है।"

आश्चर्य है कि वाचस्पति मिश्र से लगभग डेढ़दो शताब्दी पूर्व ही मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी, भारती ने अपने पति को शास्त्रार्थ में पराजित होते देख स्वयं आदि शंकर से भरी सभा में तर्क वितर्क प्रारम्भ कर दिया था । गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, भारती की भूमि की यह कैसी विडम्बना कि कन्याओं को विद्या का अधिकार ही न प्राप्त हो? इन सब बदलती परिस्थितियों को बहुत अच्छे से दर्शाया है लेखिका ने।

यद्यपि वाचस्पति मिश्र के लगभग १५०-२०० वर्ष पहले ही जगद्गुरु आदि शंकर ने बौद्धमत को परास्त कर सनातन वैदिक धर्म और अद्वैत मत का स्वर्णिम केतन सम्पूर्ण देश में लहरा दिया था तथापि राजाश्रय प्राप्त कर महायान बौद्धमत विद्यमान अवश्य था,पूर्व गरिमा तो न थी फिर भी प्रभाव विस्तार करने की होड़ अवश्य थी । पाल शासक महायान के पृष्ठपोषक थे (सनातन धर्म की भी मान्यता थी ), उनके शासन काल में ओदंतपुरी, विक्रमशिला जैसे संघाराम में दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। अतिश दीपंकर उस समय के महान बौद्ध दार्शनिक थे। अधिकतर महायानियों ने ही वेदों का खंडन किया था। वज्रयानियों के भय से ग्रामीण आतंकित थे । राजा के पास जाकर भी न्याय न मिलता ।

जैसा कि लेखिका स्वयं लिखती हैं- "सभासद कहते 'राजा नृग वैचारिक रूप से जिन सनातनी वैदिक मीमांसक पण्डित जनों का पालन कर रहे हैं उन्हें अपने तर्क के लट्ठे से प्रतिशोध लेने को प्रस्तुत रहना चाहिए। कोई राजा इससे अधिक नहीं कर सकता । यह धर्मयुद्ध है, इसमें सबको कुछ न कुछ बलिदान करना पड़ता है।(पृष्ठ 37)" अतः अब सनातन महापण्डितों के पास  एक ही उपाय था कि वह तर्क और शास्त्रार्थ द्वारा ही बढ़ते हुए बौद्ध मत को रोकें और उसके लिए आवश्यक था सनातन या वैदिक धर्म के अन्तर्गत विभिन्न धाराओं और मतों का एकाकीकरण करना।

इस उथल पुथल काल में 'भामती टीका' रच कर यही कार्य तो किया महापण्डित वाचस्पति मिश्र ने और इस दीर्घकालीन महायज्ञ की समिधा जुटाती रही भामती, अपने को ही होम कर दिया ।

वाचस्पति मिश्र ने न केवल महायानियों के मत का खण्डन किया अपितु 'भामती टीका' लिखकर उन्होंने आदि शंकर एवं मण्डन मिश्र दोनों के मत को पुनर्स्थापित किया, अद्वैत मत की पुण्यसलिला को पुनः प्रवाहित किया और साथ ही मण्डन मिश्र को भी अद्वैतवादी के रूप में प्रतिष्ठित किया । सम्पूर्ण देश आदि शंकर और मण्डन मिश्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ की कथा और उसके परिणाम से परिचित था । मण्डन मिश्र की पराजय, उनका सुरेश्वराचार्य बनना और आदि शंकर के मत को स्वीकार करने की कथा ने  कहीं न कहीं उत्तर और दक्षिण भारत  के मध्य एक अदृश्य विभेद  की रेखा खींच दी थी । इसे मिटाना आवश्यक था , एकता की बहुत दरकार थी । और यही किया महापण्डित वाचस्पति मिश्र ने। लेखिका ने यहाँ  सच में कमाल कर दिया है। उन्होंने संक्षेप पर चमत्कृत भाषा में मंडन मिश्र एवं आदि शंकर के मतों की व्याख्या भी की है जो पुस्तक को अत्यन्त ज्ञानवर्धक बना देती है । लेखिका ने बहुत समझदारी दिखाते हुए  इन गुरु गंभीर, दुरूह विषयों को अधिक विस्तार नहीं प्रदान किया अन्यथा उपन्यास साधारण पाठकवर्ग के लिए बोझिल बन जाता । मण्डन मिश्र भी अद्वैतवादी ही थे, परन्तु संन्यास आश्रम को ब्रह्म से साक्षात्कार का या ब्रह्म को समझने का एकमात्र या सर्वश्रेष्ठ मार्ग नहीं मानते थे। आदि शंकर का पथ "निवृत्ति" का था तो मण्डन मिश्र का मार्ग "प्रवृत्ति" का, पर दोनों ही उस निराकार ब्रह्म के उपासक थे। इसी तथ्य को महापण्डित वाचस्पतिमिश्र ने अपनी महान कृति के माध्यम से प्रतिष्ठित किया । यदि वह 'भामती-टीका ' न लिखते तो शायद उत्तरभारत में आदि शंकर का ज्ञान-दर्शन लुप्त ही हो गया होता।

इस उपन्यास में लेखिका ने संक्षेप में पर बहुत ही रोचक ढंग से वाचस्पति मिश्र और भामती की दक्षिण भारत यात्रा का भी वर्णन किया है। 'भामती टीका' को विद्वतसमाज में प्रतिष्ठित करने और देश को एकसूत्र में बांधने के लिए यह यात्रा अत्यावश्यक थी। आदि शंकर के मठ में तत्कालीन शंकराचार्य से भामती कहती हैं " आप लोगों का ऋण था, दक्षिण से उत्तर की ओर सभी आचार्य भ्रमण करते हैं, क्या हम लोगों का कर्तव्य वह ऋणशोध करना नहीं था? मेरी आकांक्षा पूर्ति हुई है उसके लिए साधुवाद। (पृष्ठ 179)" आदि शंकर की भूमि में वाचस्पतिमिश्र और दक्षिणात्य अद्वैताचार्यों के मध्य हुए शास्त्रार्थ का भी बहुत संक्षिप्त रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है लेखिका ने । 

'भामतीटीका' युगांतकारी पुस्तक सिद्ध हुई।सभी विभेदों का अन्त करते हुए इस ग्रंथ ने आदि शंकर और मण्डन मिश्र, दोनों को ही अद्वैतवादी माना परन्तु सत्य तो यह है कि "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" का उद्घोष करने वाले ब्रह्मवाद या ब्रह्मसूत्र को प्रतिष्ठित किया 'जगत सत्यम', 'संसार सत्यम'  मानने वाली  एक स्त्री ने । मण्डन मिश्र के मूल मंत्र "ब्रह्म सत्य, ब्रह्म का रचा जगत भी सत्य" को भामती ने ही अपने सुकर्म, प्रेम और वात्सल्य से, अपनी निष्ठा, त्याग और कर्तव्यपरायणता से प्रतिष्ठित किया । प्रेम ,भक्ति और वात्सल्य यही तो सर्वश्रेष्ठ पथ है उस निराकार ब्रह्म को जानने का; ज्ञानयोग से भी अधिक श्रेष्ठ व सरल सुगम पथ ।

"कौन विशवास करेगा आने वाले युग में कि ऐसी नारी हुई जिसने लेखनी पकड़े बिना पुस्तक का निर्माण किया था। कितने भाग्यशाली है वाचस्पति कि भामती जैसी स्त्री मिली " (पृष्ठ 190) और धन्य है मिथिला भूमि जहाँ सीता और भामती जैसी स्त्रियों ने जन्म लिया।

यह पुस्तक अत्यन्त ज्ञानवर्धक है, सच में एक असाधारण रचना ।       

भमती - पद्मश्री उषाकिरण खान
सामयिक प्रकाशन
संस्करण : २०१७
मूल्य : २०० /-
पृष्ठ संख्या : १९२
ISBN : 978-81-7138-368-9


अभिषेक मुखर्जी 
गुरु गोविन्द सिंह अपार्टमेन्ट,
ब्लॉक- बी .५० . बी.एल. घोष रोड , बेलघड़िया, कोलकाता -७०००५७
पश्चिम बंगाल
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