बिहारी का श्रृंगार वर्णन हिंदी साहित्य बिहारीलाल श्रृंगार रस रससिद्ध कवि बिहारी काव्य श्रृंगार रस बिहारी संयोग श्रृंगार वर्णन विशेषताएँश्रृंगार भावना
बिहारी का श्रृंगार वर्णन हिंदी साहित्य में अप्रतिम है
बिहारी का श्रृंगार वर्णन हिंदी साहित्य में अप्रतिम है बिहारीलाल श्रृंगार रस के रससिद्ध कवि है बिहारी के काव्य में श्रृंगार रस बिहारी के संयोग श्रृंगार-वर्णन की विशेषताएँ बिहारी की श्रृंगार भावना पर प्रकाश - संयोग वर्णन नायक नायिका के विविध क्रिया-व्यापारों का जैसे- जल-विहार, वन-विहार, फाग खेलना, आँख-मिचौली आदि का वर्णन किया है। इसी वर्णन में काम-केलि भी सम्मिलित होते थे। कहीं नायक, नायिका के साथ पनघट पर छेड़छाड़ कर रहा है तो कहीं नायिका चंचल नयनों के संकेतों द्वारा श्रृंगारिक चेष्टाएँ प्रकट कर रही है- ऐसे वर्णनों का अद्भुत भण्डार बिहारी सतसई है। बिहारी ने चुम्बन-आलिंगन-परिभ्रमण- परिरम्भण आदि नाना बाह्य व्यापारों का चित्रण बड़ी सजीवता के साथ किया। संयोगपक्ष के अन्तर्गत नख-सिख-वर्णन, प्रेम-मिलन, हावभाव का चित्रण तथा षड्-ऋतु-वर्णन की उक्तियाँ आती हैं। नायिका के पैर में काँटा चुभ गया है, लेकिन फिर भी नायिका को इसकी चिन्ता नहीं है, अपितु प्रसन्नता है, क्योंकि उसका प्रियतम स्वयं उसके काँटे को निकाल रहा है -
इहिं काँटे मो पाँय गड़ि लीन्हीं मरत जियाय ।
प्रीति जनावत-भीति सो मीतु जु काढ्यो आय ।।
रात को चुम्बन के समय नायक द्वारा नायिका के अधर पर दिये हुए दन्त-क्षत को वह नायिका सारे दिन दर्पण में मुदित मन निहारती रहती है-
छिनकु उघारति, छिनु छुवति राखति छिनकु छुपाई ।
सब दिनु पिय-खण्डित अधर दरपन देखत जाइ ।।
प्रेम में नायक-नायिका एक दूसरे को परस्पर छेड़ते हैं, अपने प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए वे भाँति-भाँति की क्रियाएँ करते हैं। बिहारी-काव्य में ऐसे पर्याप्त क्रिया-कलापों का वर्णन है। जैसे-
बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ ।
सौंह करै भौंहनि हँसै दैन कहै नटि जाइ । ।
नायक और नायिका भरे भवन में भी अपनी चेष्टाओं से, आँखों के संकेतों से ही सफलतापूर्वक सारी बातें कह-सुन लेते हैं। नायक किसी बात के लिए नायिका से कहता है, वह न कर देती है। उसकी अस्वीकृति भी नायक को इतनी अच्छी लगती है कि वह उस पर रीझ जाता है। यह देख नायिका खीझ जाती है। फिर थोड़ी देर बाद दोनों की आँखें मिलती हैं, नायिका नायक की बात को मान लेती है। इस स्वीकृति से नायक प्रसन्न हो जाता है। प्रिय को प्रसन्न देख नायिका लज्जा से लाल हो जाती है -
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौंन में करत हैं, नैनन ही सों बात ।।
सौन्दर्य के समूचे वर्णन के साथ अंग-प्रत्यंग का वर्णन बिहारी के काव्य में प्राप्त होता है-
झीनै पट मैं झुलमुली झलकति ओप अपार ।
सुरतरु की मनु सिन्धु मैं लसति सपल्लव डार ।।
नायिका एक छोटे से बच्चे को लिये खड़ी है, तभी अचानक नायक आ गया। उस समय नायक ने जो कुछ किया उसका वर्णन करती हुई नायिका अपनी सखी से कह रही है कि 'वे' लड़का लेने के बहाने मेरे पास आये और लड़के को मेरी गोद से लेते समय अचानक अपनी उँगली से मेरी छाती को छू लिया-
लरिका लैबे के मिसनु, मो ढिंग पहुँच्यौ आय ।
गयौ अचानक आँगुरी, छाती छैल छुवाय ।।
नायिका के कुचों की अति कामोद्दीपिनी शोभा का वर्णन नायक करता है-
चलन न पावतु निगम-मगु जगु, उपज्यौ अति त्रासु ।
कुच-उतंग गिरवर गह्यौ मीना मैनु मवासु ।।
नायिका सरोवर से स्नान करके निकल रही है। वह अपने कुचों और अञ्चल के बीच में बाँह किये है, जिससे कि उसके पीन पयोधर भीगे हुए वस्त्र से दिखायी न दें। नायिका की इस मनोहारिणी चेष्टा पर लुब्ध होकर नायक, उसे अपने अन्तरंग सखा को दिखाता हुआ कहता है -
बिहँसति, सकुचति-सी, दिये कुच-आँचर-बिच बाँह ।
भीजें पट तट को चली, न्हाइ सरोवर माँह ।।
नवोढ़ा नायिका का वर्णन है। उसे नायक पर पूरा विश्वास हो गया है और वह उसके विशेष हठ करने पर अपने हाथ से पान खिलाने लगी है। ओठों के बीच हँसकर हाथ ऊँचा तथा नेत्रों को झुकाये प्रिय (नायक) के मुख में पान डाल देती है-
हँसि ओंठनु-बिच, करु उचैं, कि निचो हैं नैन ।
खरै अरैं प्रिय के झट प्रिया, लगी बिरी मुख दैन।।
अब नायक-नायिका को पान खिलाना चाहता है, लेकिन वह नाक सिकोड़ते हुए इनकार करती है। बार-बार आग्रह करने पर पान खाती है। इसी बीच नायक नायिका के कोमल अधरों को छू देता है -
नाक भौंह नाहीं करै नारि निहोरे नेहु ।
छुवत ओंठ बिच आँगुरी बिरी बदन पिय देहु ।।
प्रियतम ने प्रिया से उसके पैर छू कर विपरीत रति के लिए विनती की। प्रिया ने हँसकर दीपक बुझा दिया अर्थात् बिना बोले ही अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है -
विनती रति विपरीत की, करी परसि पिय पाइ ।
हँसि अनबोलेँ ही दियो, उत्तर दियो बताइ । ।
अन्ततः बिहारी के संयोग श्रृंगार के वर्णनान्तर्गत निम्नलिखित चार बातें दृष्टिगत होती है -
- आलम्बन का रूप-वर्णन
- आलम्बन की चेष्टाएँ
- आलम्बन के क्रिया-कलाप
- उद्दीपन विभाव
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष सहज ही निकल आता है कि कविवर बिहारी का संयोग-वर्णन काव्यशास्त्रीय परम्पराओं का पूर्ण रूप से पालन करता हुआ अत्यन्त स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक है। संयोग में नायक और नायिका की जितनी प्रकार की शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ हो सकती हैं, उनमें से अधिकांश सतसई में प्राप्त होती हैं।
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