बिहारी सतसई क्यों प्रसिद्ध है ?बिहारी सतसई की विशेषताएं बिहारी सतसई के दोहे बिहारी सतसई की विशेषताएं बिहारी सतसई की भाषा bihari satsai bihari ke dohe
बिहारी सतसई क्यों प्रसिद्ध है ?
बिहारी सतसई क्यों प्रसिद्ध है बिहारी सतसई की विशेषताएं - बिहारी सतसई, महाकवि बिहारीलाल जी की प्रसिद्ध रचना है। बिहारी सतसई एक मुक्तक काव्य रचना है, जिसमें 713 से 719 दोहे संकलित किये गए हैं। इसमें नीति, भक्ति और शृंगार से संबंधित दोहों का संकलन हुआ है। सतसई और सतसैया शब्द संस्कृत के 'सप्तशती' और 'सप्तशतिका' शब्दों के रूपान्तर हैं, जो 'सात सौ पद्यों के संग्रह' के 'अर्थ में रूढ़ से हो गये हैं। 'सतसई' में यह कोई आवश्यक नहीं कि उसमें ठीक सात सौ पद ही हों, दस-बीस कम या अधिक भी हो सकते हैं जैसे बिहारी सतसई। इसमें 700 दोहे न होकर 719 दोहे हैं। सतसई को किसी एक निश्चित छन्द में लिखे जाने के लिए कहीं कोई संकेत नहीं मिलता, परन्तु सम्भवत: लगभग सभी सतसईकारों में यह मूक-समझौता-सा रहा है कि सतसई 'दोहा' छन्द में ही लिखी जाय, क्योंकि हिन्दी की सभी सतसैया दोहों में लिखी गयी है। सतसई किसी एक ही विषय पर लिखी हुई नहीं मिलती। उनमें विषयों की मनोरम विविधता दर्शनीय होती है। श्रृंगार, नीति, उपदेश आदि इनके प्रधान विषय रहे हैं। समष्टि रूप से सतसई में ऐसे दोहे संगृहीत होते हैं जो अपने वाग्वैदग्ध्य, रोचकता, सार्वजनीनता एवं संवेदनीयता के कारण अपने सूक्ष्म रूप में भी प्रभावित करते हैं। बिहारी सतसई के दोहे शायद इसी कारण नावक के तीर के समान प्रभावक माने गये हैं।
कवि की दृष्टि अत्यन्त पैनी होती है। उसकी वाणी का विस्तार सम्पूर्ण विश्व में होता है। अप्रस्तुत योजना के हितार्थ उसे शास्त्र और लोक दोनों का सहारा लेना पड़ता है। मुक्तक काव्य में निपुणता अधिक अपेक्षित है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति व्युत्पत्ति के आधार पर होती है कतिपय साहित्याचार्यों ने बहुज्ञता को व्युत्पत्ति के नाम से अभिहित किया है। लोक-प्रचलित ज्ञान के द्वारा ही कवि अपने काव्य को चमत्कृत करता है। उदाहरण के लिए यह सभी जानते हैं कि दाहिनी ओर बिन्दी लगाने से दस गुना मूल्य बढ़ जाता है। बिहारी ने अपने इसी ज्ञान का उपयोग कर स्त्री के भाल में बिन्दी लगा देने से असंख्य गुने कीमत के बढ़ाने की सुन्दर कल्पना की है।
बिहारीलाल का शास्त्र ज्ञान
इसके अन्तर्गत बिहारी सर्वाधिक निष्णात ज्योतिष शास्त्र में थे। उन्होंने ज्योतिष के गम्भीर सिद्धान्तों का आश्रय अपने काव्य में लिया है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार यदि चन्द्रमा के अन्दर कोई सौम्य ग्रह पड़ा हो और केन्द्र में अथवा त्रिकोण में विद्यमान हो तो धन की प्राप्ति, राज सम्मान तथा सन्तान प्राप्ति आदि सुख प्राप्त होते हैं। इस सिद्धान्त का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
तिय मुख लखि हीरा जरी, बेंदी बढ़े विनोदु ।
सुत सनेह मानौ लियौ, विधु पूरन बुधगोदु । ।
यहाँ नायिका के मुख रूपी चन्द्र में हीरा जड़ी बिन्दी के माध्यम से बुध का योग माना गया है। स्त्री का स्थान सप्तम है। अत: यह संख्या केन्द्रगत हो गयी है। सखी के कहने का अभिप्राय यह है कि यह समय सुत, वित्त आदि की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयुक्त है।
बिहारी के दोहों में कहीं-कहीं दार्शनिक विषयों की छाया भी अंकित है। ब्रह्म की सर्व- व्यापकता सम्बन्धी सिद्धान्त का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
मैं समझयौ निरधार, यह जगु कांचो काँच सों।
एकै रूप अपार प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ ।।
बिहारी का लोक वृत्ति ज्ञान
शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही साथ बिहारी को लोक का भी विस्तृत ज्ञान था। नृत्य, गान-विद्या, मृगया, चौगन आदि आमोद-प्रमोद के अच्छे ज्ञान के साथ कृषि के कार्यों का भी उन्हें पर्याप्त ज्ञान था। बिहारी ने घूँघट की ओट से मनहरिणी नायिका के कटाक्षों का वर्णन कितने सुन्दर ढंग से एक दोहे में किया है, जरा देखिए-
डारी सारी नील की ओट अचूक चुकै न ।
मो मनु मृगु कर वर गर्दै अहे अहेरी नैन ।।
अपने भावों को संक्षेप में वही कवि व्यक्त कर सकता है जिसमें कल्पना की समाहार और भाषा की समास शक्ति का सुन्दर समन्वय हो । भाषा के मर्म को भली-भाँति पहचानने वाले कवि को ही सामाजिक शैली में लिखने की शक्ति मिलती है। बिहारी का भाषा पर असाधारण अधिकार था। वे स्थानानुकूल शब्दों के प्रयोग के बहुत बड़े पारखी थे। बिहारी की भाषा के सम्बन्ध में किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
ब्रजभाषा बरनी सबै, कविवर बुद्धि विसाल ।
सबकी भूषण सतसई, रची बिहारी लाल । ।
अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लघु कलेवर छन्द दोहा का आधार बिहारी ने लिया है। इसी कारण इनकी भाषा चुस्ती और कसावट में और भी आगे निकल गयी है। ब्रजभाषा वास्तव में समास प्रधान नहीं है फिर भी बिहारी ने अपनी कुशल निपुणता से विशेष स्थल पर चार-पाँच शब्दों तक के समास रखे हैं। लम्बी सामासिक पदावली के साथ-ही-साथ उच्चारण में सुगमता और श्रवण में मधुरता का अनुभव हम उनके इस दोहे में कर सकते हैं-
रनित-भृंग-घंटावली, झरित-दान-मधुनीर ।
मंद-मंद आवत चल्यो, कुँजर-कुँज - समीर ।।
बिहारी 'असंगति' अलंकार द्वारा कैसे अद्भुत काव्य-सौन्दर्य की सृष्टि करने में समर्थ हुए हैं। इसके लिये निम्नलिखित दोहा दर्शनीय है -
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति ।
परति गाँठ दुरजन हिये, दई नई यह रीति । ।
उलझना, टूटना, जुड़ना और गाँठ पड़ना तो धागे (सूत, तागे) में ही सम्भव है लेकिन यहाँ नायक और नायिका के प्रेम के क्षेत्र में अनोखी बातें हो रही हैं, क्योंकि उलझते तो हैं दोनों नेत्र और टूटता है कुटुम्ब । मिलते तो हैं दो प्रेमी लेकिन गाँठ (ईर्ष्या) दुष्टों के हृदय में पड़ती है, यह नई रीति नहीं तो और क्या है ?
भरी सभा में नायक एवं नायिका दोनों विद्यमान हैं। उन्हें बात करने का अवसर नहीं प्राप्त हो रहा है। नायक एक तरफ है जबकि नायिका ठीक दूसरी तरफ। बीच में सभा लगी हुई है। नायक और नायिका नेत्रों के माध्यम से ही बात कर लेते हैं किसी को पता तक नहीं।
कहत, नटत रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भवन में करत हैं, नैननि ही सों बात ।।
बिहारी सतसई की विशेषताएं
इस प्रकार यह कह सकते हैं कि 48 मात्रा के एक छोटे से छन्द (दोहे) में इतनी अधिक बातों को एक साथ जिस सफलता के साथ बिहारी ने कह लिया उतनी सफलता के साथ अनेक कवि कवित्त, सवैया, कुंडली और छप्पय जैसे लम्बे छन्दों में भी नहीं कह पाये हैं। बिहारी के दोहे आकार में छोटे होते हुए भी मर्म को भेदने की दृष्टि से महान् हैं। उनके प्रत्येक दोहे में एक समग्र चित्र एवं कला की उत्कृष्टता जैसे गुण विद्यमान हैं। इसीलिए बिहारी ने 'गागर में सागर भर दिया है'- यह उक्ति विख्यात है। किसी कवि की यह पंक्ति भी पूर्णतः सत्य है कि-
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर ।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर ।।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि बिहारी के दोहे नावक के तीर हैं। उन्होंने अपनी सतसई में विविध शास्त्रों के ज्ञान के छीटे-छिटकाये हैं जिनसे उनकी बहुज्ञता प्रमाणित होती है। आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल जी का कथन है- “इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे-छींटे हैं।"
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