हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान

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हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान हिन्दी साहित्य की भ्रमरगीत परम्परा का उल्लेख करते हुए सूरदास का स्थान bhramar geet surdas uddeshya

हिन्दी साहित्य की भ्रमरगीत परम्परा का उल्लेख करते हुए सूरदास का स्थान


हिन्दी साहित्य की भ्रमरगीत परम्परा का उल्लेख करते हुए सूरदास का स्थान bhramar geet in hindi bhramar geet surdas भ्रमरगीत सूरदास  bharamargeet surdas surdas ke bhramar geet ki visheshtaen surdas ke bhramar geet ka uddeshya surdas ke bhramar geet ke pad surdas ke bhramar geet ki vyakhya surdas bhramargeet explained - भारतीय साहित्य में भ्रमरगीत की एक सुन्दर और व्यवस्थित परम्परा रही है। भ्रमर का आशय 'प्रवंचक' और 'रस लोलुप' से है, जो नायिका के प्रेम की उपेक्षा करते हुए उसके रूप-सौन्दर्य का रसपान करके फरार हो जाता है। अपने मूल रूप में यह प्रसंग भागवत के दशम स्कन्ध के 46वें और 47वें अध्याय में है। जहाँ तक व्यवस्थित भ्रमरगीत परम्परा का सवाल है तो वह अभिज्ञानशाकुन्तलम्, गीत-गोविन्द और विद्यापति से शुरू होती है।साथ ही जयदेव के 'गीत-गोविन्द' तथा विद्यापति की 'पदावली' में भी कुछ उक्तियाँ फुटकर रूप में ही कही गयी हैं - 

ऊधव कब हमसो ब्रज जाइब । 
कब प्रिय छबली सरमि स्यामलि, तई सखन से दूध दुहाइब ।। 

यहाँ वर्णित कवियों ने भ्रमर को सम्बोधित करके कुछ नहीं कहा अतः उनके पदों को 'भ्रमरगीत' कहना समीचीन नहीं है। हिन्दी साहित्य में भ्रमरगीत की विस्तृत परम्परा है।
 
हिन्दी में 'भ्रमरगीत' परम्परा के सूत्रपात का श्रेय महाकवि सूरदास को ही है। उन्होंने भ्रमरगीत के मूल सूत्र को 'भागवत' से ग्रहण करके, उसमें अपनी रुचि एवं उद्देश्य के अनुकूल परिवर्तन-परिवर्द्धन करके उसे नितान्त नवीन कलेवर एवं कमनीयता प्रदान की। भ्रमरगीत 'सूरसागर' का एक पुष्ट एवं महत्त्वपूर्ण भाग है। उसमें कवि की भावुकता एवं वाग्विदग्धता का चरम निदर्शन है। सूर के समकालीन कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमरगीत सम्बन्धी फुटकर पदों की रचना की पर उनमें से नन्ददास का 'भंवरगीत' ही विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसमें व्यंग्य, उपालम्भ एवं कथा की अपेक्षा दार्शनिक विचारों की प्रधानता है। इसका प्रारम्भ 'उद्धव को उपदेश सुनो ब्रज नागरी' से होता है और सगुण-निर्गुण का वाद-विवाद ही अधिक है। यद्यपि इसमें सूर जैसी विरह-व्यथा एवं उपालम्भ के मनोवैज्ञानिक चित्र कम मिलते हैं, पर उनका सर्वथा अभाव नहीं है। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं - 

कोउ कह अहो दरस देहु पुनि बेनु बजावौ । 
दुरि-दुरि बनकी ओर कहा हिय लौन लगावौ । 
हमको तुम जिय एक हौ, तुमकौ हम-सो कोरि । 
बहुत भाँति के रावरे प्रीति न डारो तोरि । 

रसखान, मुकुन्ददास, घासीराम, मलूकदास और रहीम ने भी इस प्रसंग को उठाया है, परन्तु इनमें से कोई भी सूर की परम्परा को आगे नहीं बढ़ा सके हैं। इसी क्रम में रीतिकाल के आने पर मतिराम, देव, घनानन्द, ठाकुर, भिखारीदास, पद्माकर तथा ग्वाल जैसे कवियों ने भी भ्रमरगीत प्रसंग को उठाया है, पर वे न तो सूर की भाँति विषय का प्रतिपादन ही उचित रूप में कर पाये हैं और न उनमें उतनी गम्भीरता एवं सजीवता ही है। 

अलौकिक विभाव साधारण नायक तथा नायिका मात्र बनकर रह गये थे। साथ ही कवि राज्याश्रित हो चले थे। फलतः उस कोटि की रचनाओं में न तो हास्य-व्यंग्यपूर्ण निर्गुण खण्डन और सगुण मण्डन दिखाई पड़ा और न ही उत्कृष्ट कोटि की विरह भावना आ पायी।
 
हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान
डॉ० देवीशरण रस्तोगी
की मान्यता है- “तत्कालीन राजदरबारी कवि गोपियों के विरह के नाम पर राजमहलों की चहारदीवारी में बन्द अपने आँसू पी-पीकर जीने वाली रुद्ध-क्रुद्ध रानियों का क्षोभ, ईर्ष्या, सौतिया-डाह तथा खिजलाहट आदि को ही अभिव्यक्त कर सके। गोपिकाओं के स्थान पर कवियों की नायिकाएँ, अनजाने में, दरबारों भाँति-भाँति के अत्याचार सहने वाली पत्नी-भाव वंचिता, प्रणय-भाव-वंचिता तथा सहगामिनी भाव-वंचिता नारी बन गयीं।"

शृंगारकालीन पर्दे के उठते ही आधुनिककाल का अंकावतरण होता है। आधुनिक युगीन मंच पर आकर 'भ्रमरगीत' प्रसंग पर लिखने वाले आधुनिक कवि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, सत्यनारायण 'कविरत्न', जगन्नाथदास' रत्नाकर' तथा रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल' का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 'कविरत्न' का 'भ्रमर दूत', रत्नाकर जी का 'उद्धव शतक' एवं रसाल जी का 'उद्धव-गोपी संवाद' इस काल की भ्रमरगीत प्रसंग की अनुपम कृतियाँ हैं। 

'रत्नाकर' के 'उद्धव-शतक' में अपने प्रियतम का सन्देश लेकर उद्धव को आया हुआ सुनकर गोपियों की क्या स्थिति होती है- 

“भेजे मनभावन के उद्भव के आवन की, 
सुधि ब्रज गाँवनि में पावन जबै लगी। 
हमको लिख्यौ है कहा, हमको लिख्यौ है कहा, 
हमको लिख्यौ है कहां, कहन सबै लगी ।"
 

भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान

वस्तुतः भक्तिकाल में निर्गुण की अनुपयुक्तता और सगुण की श्रेष्ठता का प्रतिपादन हुआ और मध्यकाल में राजमहलों की चहारदीवारी में तड़पने वाली प्रणय-वंचिता, पत्नीभाव वंचिता तथा सहगामिनीभाव-वंचिता नारी के रुद्ध-क्रुद्ध क्षोभ को अभिव्यक्ति मिली और आधुनिककाल में नीति मूलक सुधारवाद, देशभक्ति तथा आदर्शवाद को प्रकट किया गया। मात्र 'रत्नाकर' का 'उद्धव शतक' ही रस परम्परा में श्रेष्ठ बन पड़ा। अत: इस परम्परा का श्रेष्ठतम रत्न सूर का भ्रमरगीत ही ठहरता है। सूर ने मानव हृदय के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है, जिसमें गोपियों के उत्कट प्रेम, दृढ विश्वास एवं उत्कट भक्ति-भावना समाहित है साथ ही वियोग-श्रृंगार का उत्कृष्ट रूप प्रस्तुत करता है, जिसमें व्यंग्य तथा उपालम्भ के साथ विरह-वेदना की मार्मिक व्यंजना है, जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती - 

प्रीतिकर दीन्हीं गरे छूरी । 
जैसे बधिक चगाय कपट कन पाछे करत बुरी । 
मुरली, मधुर चेप करि काँपो मोरचन्द्र ठठवारी । 
बंक बिलोकनि लूक लागि बस सकी न तनहि सम्हारी । 
तलफत छाँड़ि चले मधुवन को फिरिकै लई न सार । 
सूरदास वा कलप-तरोवर फेरि न बैठी डार ।। 

इस भ्रमरगीत में सहृदयता, भावुकता, चतुरता और वचन वक्रता का अनूठा संगम है, साथ ही यह पूर्ण व्यवस्थित भी है, क्योंकि इसमें आरम्भ में कृष्ण के गोकुल सम्बन्धी चिन्ता, उद्धव का ज्ञान सम्बन्धी अहंकार, कृष्ण का उद्धव के अहंकार को दूर करने के बारे में विचार, उद्भव को ही सन्देश लेकर गोकुल भेजने का उपक्रम, उद्धव का ब्रज पहुँचकर उपदेश और गोपियों का खण्डन आदि है। सूरदास की गोपियाँ उद्धव के निराकार ब्रह्म की बात सुनकर उदास एवं व्याकुल हो जाती हैं। वे उद्धव के निराकार ब्रह्म के प्रति अपना नाम मात्र का भी झुकाव प्रदर्शित नहीं करती हैं, क्योंकि वे तो पीताम्बरधारी कृष्ण मुरारी की सच्चे हृदय से उपासिका हैं। वे सगुण कृष्ण की उपासिका हैं तथा निर्गुण के प्रति अपनी विवशता प्रकट करती हैं - 

'तौ हम मानै बात तिहारी । 
अपने ब्रह्म दिखावौ ऊधौ मुकुट-पीताम्बर धारी।।'

संक्षेपतः कहा जा सकता है कि सूर के भ्रमरगीत में सरलता के साथ-साथ मधुरता और मनोवैज्ञानिकता के पुट का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। प्रेमी और प्रेमिकाओं का जितना मधुर मिलन हो सकता है, प्रेम की वेदी पर दोनों को जितने कड़वे तथा मीठे घूँटों का पान करना पड़ता है, उन सब का सजीव दर्शन हमें सूरदास के भ्रमरगीत में पूर्ण रूपेण प्राप्त होता है। गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म पर सगुण ब्रह्म की विजय दिखाने के साथ-साथ सूर ने अपने काव्य में ऐसी सरल एवं मनोहारिणी त्रिवेणी प्रवाहित की है जो हिन्दी साहित्य में अमूल्य निधि है। सूर के 'भ्रमरगीत' प्रसंग पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निम्न कथन पूर्णतः सत्य है- “सूरदास का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध पूर्ण अंश 'भ्रमरगीत' है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यन्त मनोहारिणी है, ऐसा सुन्दर उपालम्भ काव्य और कहीं नहीं मिलता।" 

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