मंसाराम का चरित्र चित्रण निर्मला उपन्यास मुंशी प्रेमचंद mansa ram ka charitra chitran nirmala upanyaas paatra निर्मला के सम्मान की रक्षा प्रेमचन्द का
मंसाराम का चरित्र चित्रण निर्मला उपन्यास मुंशी प्रेमचंद
मंसाराम का चरित्र चित्रण mansa ram ka charitra chitran निर्मला उपन्यास मुंशी प्रेमचंद - हिन्दी के सर्वकालीन श्रेष्ठ उपन्यासकारों में मुंशी प्रेमचन्द का स्थान अग्रणी है।उन्होंने ‘निर्मला' उपन्यास में सामाजिक कुरीतियों एवम् विषमताओं पर कुठाराघात किया है। उपन्यास के प्रमुख पात्र मुंशी तोताराम पुनर्विवाह कर लेते हैं लेकिन अपनी पुत्री के समान षोडशी कन्या से। उनकी पत्नी निर्मला आयु के अधिक अंतर के कारण उन्हें प्रेम की बजाय सम्मान की दृष्टि से देखती है। मुंशी जी के तीन पुत्र हैं जिनमें बड़ा बेटा मंसाराम निर्मला का हमउम्र है। निर्मला दो घड़ी उससे बात कर, उसका सामीप्य पाकर अपना मन हल्का कर लेती है।
मुंशी जी को मंसाराम का निर्मला के पास उठना-बैठना पसन्द न था। एक दिन जब मुंशी जी निर्मला के पास बैठे थे, मंसाराम आया और बोला- “जल्दी से कुछ खाने को निकालिए, खेलने जाना है।" वह चला गया तो निर्मला ने अपने पति से कह दिया- "पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शर्माते थे जब से मैंने बुलाकर कहा तब से आने लगे हैं" तोताराम चिढ़कर बोले- “यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें माँगने क्यों आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता?"
निर्मला ने तो यह बात प्रशंसा पाने के लोभ में कही थी कि देखो मैं तुम्हारे बेटों से कितना प्रेम करती हूँ लेकिन इस बात ने मुंशी जी के हृदय में शक का बीज बो दिया। उन्होंने मंसाराम को डाँटते हुए सुना दिया- "देखता हूँ, तुम सारे दिन मटरगश्ती किया करते हो तुम्हारा यों आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नहीं हो सकता।"
मंसाराम उनका आशय न समझते हुए बोला- "मैं शाम को एक घंटा खेलने के सिवा दिन भर कहीं नहीं जाता। आप अम्मा या बुआजी से पूछ लें । "
मुंशी जी ने देखा बात दूसरे रुख पर चली गई है तो बोले- "मैं बराबर तुम्हारी शिकायतें सुनता मैं चाहता हूँ तुम स्कूल में ही रहा करो।" मुंशी जी की बात का रहस्य न समझते हुए उसने कह दिया- "मुझे कोई आपत्ति नहीं है।" जबकि वह छात्रावास में रहने के लिए उत्सुक नहीं था और एक दिन वह बिना किसी को कुछ कहे स्कूल में रहने चला गया।
शुरू में मंसाराम इस सबके लिए निर्मला को ही दोषी मानता था। निर्मला ने जब उसके लिए भूंगी के हाथ लड्डू भिजवाए तो उसने वापस भिजवा दिए और जब जियाराम उसे वापस लेने गया तो उसने घर आने से मना कर दिया। तीसरे दिन जियाराम ने उसे बताया कि जब से तुम आए हो अम्माँ ने एक जून भी खाना नहीं खाया। जब देखो, तब रोया करती हैं। जब बाबूजी आते हैं तो अलबत्ता हँसने लगती हैं। और मैंने भी जब आने की बात कही तो रोने लगीं और बोलीं- "ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैंने तुम्हारे भैया के विषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नहीं कहा।" फिर कुछ बाबूजी की बात कही जो मेरी समझ में नहीं आई। कल की ही बात है जब मैंने उन्हें बताया कि तुम अब उस घर में कदम न रखोगे तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं और बाबूजी को देखा तो मुस्कराती हुई उनके पास चली गईं। जियाराम चला गया लेकिन सारा रहस्य मंसाराम की समझ में आने लगा था। उसका हृदय आर्त्तनाद कर रहा था। वह सोचने लगा- "आज तक किसी पिता ने अपने पुत्र पर इतना बड़ा कलंक न लगाया होगा।" आज उसका सर्वस्व लुट गया।
मंसाराम ने आज तक निर्मला की ओर ध्यान नहीं दिया था। निर्मला का ध्यान आते ही उसके रोएँ खड़े हो गए। पिताजी का भ्रम शान्त करने के लिए उन्हें मेरे प्रति इतना कटु व्यवहार करना पड़ता है, आहा! मैंने उन पर कितना अन्याय किया है। वह सोचने लगा-"उनकी दशा तो मुझसे भी ज्यादा खराब हो रही होगी। वह बार-बार मुझे बुलाकर मुसीबत क्यों मोल ले रही हैं? कैसे कह दूँ कि माता, मुझे तुमसे जरा भी शिकायत नहीं है, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है। "
मंसाराम सोचने लगा- माँ का उद्धार कैसे होगा? उस निरपराधिनी का मुख कैसे उज्ज्वल होगा? अपनी मान-रक्षा के लिए न सही, उनकी आत्म-रक्षा के लिए इन प्राणों का बलिदान करना पड़ेगा। एक सती पर सन्देह किया जा रहा है और वह भी मेरे कारण, मुझे अपने प्राणों से उनकी रक्षा करनी होगी, यही मेरा कर्त्तव्य है। इसी में सच्ची वीरता है। माता, मैं अपने रक्त से इस कालिमा को धो दूँगा। इसी में मेरा और तुम्हारा दोनों का कल्याण है।
निर्मला के सम्मान की रक्षा के लिए मंसा ने धीरे-धीरे अपने प्राणों का हवन करना प्रारम्भ कर दिया। उसकी बिगड़ती दशा को देखकर डॉक्टरों ने मुंशी जी से कहा कि इसे घर ले जाइए, घर में अच्छी देखभाल होगी। मंसा इसके लिए भी तैयार न हुआ। उसने कहा कि मैं घर नहीं जाऊँगा। मुझे अस्पताल ले चलिए और मुझे देखने कोई न आए। मुझे कुछ नहीं हुआ है ।
अन्त में एक दिन जब निर्मला को पता चला कि मंसाराम को किसी जवान व्यक्ति का खून चाहिए तो वह अस्पताल पहुँच गई।
निर्मला को देखते ही मंसाराम चौंककर उठ बैठा और उठकर खड़ा हो गया। फिर निर्मला के पैरों में गिरकर रोते हुए बोला- "अम्माजी, इस अभागे के लिए आपको इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो मैं आपको अपनी माता समझता रहा सकूँ।
मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि से देखा यह अन्तिम भेंट है।" यह कहते-कहते वह वहीं जमीन पर लेट गया। इस प्रकार मंसाराम की बातों से मुंशी तोताराम का भ्रम टूटा। अब उनकी निगाहों में निर्मला का मूल्य बढ़ गया था। वह बोले-“अब मेरी निगाहों में तुम्हारे प्राणों का मूल्य बहुत बढ़ गया है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करो।" और इस प्रकार मंसाराम ने अपने प्राण देकर निर्मला के सम्मान की रक्षा की।
COMMENTS