पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं paradhin sapnehu sukh nahi essay in hindi परतन्त्रता दासता पराधीनता मृत्यु है स्वाधीनता का महत्त्व पराधीनता एक अभिशाप है मन
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं पर निबंध
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं paradhin sapnehu sukh nahi essay in hindi परतन्त्रता दासता पराधीनता मृत्यु है स्वाधीनता का महत्त्व पराधीनता एक अभिशाप है - संसार कर्मक्षेत्र है। इस क्षेत्र में मनुष्य इच्छा विशेष लेकर उत्पन्न होता है और शुभ अथवा अशुभ कर्म करता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है। परमात्मा उस मनुष्य को उसके शुभाशुभ कर्मों का यथायोग्य फल देता है और तभी वह न्यायकारी कहलाता है। इस प्रकार मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता का अधिकार अक्षुण्ण होता है। यदि कोई मनुष्य अथवा राष्ट्र इस स्वतन्त्रता का अपहरण करके अपनी इच्छानुकूल काम लेता है तो दूसरे अर्थ में शासित मनुष्य 'पराधीन' कहलाता है। उसी मनुष्य को लक्ष्य करके तुलसीदास जी ने कहा है कि “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं, यह विचारि देखो मन माहीं" अर्थात् मन विचार कर देखो कि पराधीन मनुष्य सुख नहीं पाता।
स्वतंत्रता का महत्व
उपर्युक्त सिद्धान्तानुसार स्वतन्त्रता मानव का सर्वश्रेष्ठ अधिकार है जो जन्मते ही उसे ईश्वर की और से मिलता है। इस स्वतन्त्रता का उपभोग पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि सभी प्राणी भी करते हैं। वन में फिरने वाले मोर, हिरण, शेर और हाथी जिस आनन्द और अनुराग का अनुभव करते हैं, वह आनन्द घर में पालतू पशु-पक्षियों को नहीं मिलता। पिंजड़े में रहने वाला तोता स्वच्छन्द नीले आकाश में विचरण करने के लिए लालायित रहता है। घर के बन्धन में पला हुआ कोई भी प्राणी वन में रहने वाले प्राणी से निर्बल और आलसी होता है। उसमें वन-प्राणी जैसी स्फूर्ति और मस्ती नहीं रहती। कहने का तात्पर्य यह है कि स्वतन्त्रता प्राणि-मात्र का अधिकार है।
पराधीनता से हानि
सारांश यह है कि दासता मनुष्य के लिए एक भीषण अभिशाप है। पराधीनता में वह स्वामी की आज्ञानुसार काम करता है। स्वयं कुछ विचार करके इच्छानुकूल कार्य नहीं कर सकता। इस तरह उसकी आत्मा की उन्नति नहीं होती। उसकी मानसिक, शारीरिक और साहित्यिक शक्ति का विकास रुक जाता है। उसकी विचारशक्ति मन्द और बुद्धि का विकास कुण्ठित हो जाता है। पशु और उस मनुष्य-जीवन में अन्तर नहीं रहता। प्राचीन काल े दासों का इतिहास पढ़कर देखिए। अण्डमान और निकोबार में बँधे हुए कुलियों का हाल पढ़िये, तो पता चल जायेगा कि दास ता कितनी भीषण वस्तु है। कहा जाता है कि फिजी और नेटाल के गोरे स्वामी अपने दासों के शरीर का अपनी इच्छानुसार भोग करते थे।
पराधीन मनुष्य का पतन अवश्यम्भावी है। उसका धर्म और नीति कोई मूल्य नहीं रखते। दास के ज्ञान-तन्तु क्षीण हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में वह प्राणी न अपने लिए कुछ विचार कर सकता है, न किसी दूसरे के लिए। दास मनुष्य अपने स्वतन्त्र उत्साही और स्वच्छन्द विचारों को अच्छी तरह दबाकर ही पराधीनता के दर्शन करता है। दास का जीवन अपमान की पराकाष्ठा होती है और मान-सम्मान खोकर मनुष्य को जीना शोभा नहीं देता। तभी रहीग्न खानखाना कहते हैं कि-
अमिय पिआवतु मान बिनु रहिमन मोहि न सुहाय ।।
प्रेम सहित मरिबौ भलौ जो विष देय पिलाय ।।
इसलिए परतन्त्रता में कोई सुख नहीं है। जिस मनुष्य ने अपने ईश्वर प्रदत्त अधिकार स्वतन्त्रता को खोकर अपना जीवन व्यतीत किया, उसे धिक्कार है। यदि वह अपना उत्थान चाहता है, तो न किसी का दास बने और न दूसरे मनुष्य को अपना दास बनाने का पाप करे, तभी कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं ।
विडियो के रूप में देखें -
COMMENTS