सच्चा धर्म एकांकी सेठ गोविंद दास सच्चा धर्म एकांकी के प्रश्न और उत्तर Seth Govind Das Real Religion losing my religion son of Shivaji Hindi language
सच्चा धर्म एकांकी सेठ गोविंद दास
सच्चा धर्म एकांकी सेठ गोविंद दास सच्चा धर्म एकांकी के प्रश्न और उत्तर Seth Govind Das Real Religion losing my religion son of Shivaji Hindi language
सच्चा धर्म एकांकी की समीक्षा
सच्चा धर्म सेठ गोविंददास द्वारा रचित एक आदर्श ऐतिहासिक एकांकी है। औरंगजेब के समय का वर्णन करते हुए लेखक ने यह प्रकट किया है कि जीवन का मूल्य किसी भी धर्म से अधिक है। पुरुषोत्तम और अहिल्या का संवाद योजन अत्यंत प्रखर है । अहिल्या द्वारा एक रूढ़िवादी धर्मभीरु भारतीय नारी का चरित्र उसके कथोपकथन से ही स्पष्ट हो जाता है। अहिल्या की बातें सुनकर उपजा पुरुषोत्तम का अंतर्द्वन्द्व भी वार्तालाप से ही स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार लेखक द्वारा स्थितियों के अनुकूल वार्तालाप अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुआ है ।
उपरोक्त एकांकी में सेठ जी ने धर्म, सत्य और मानव जीवन का एक त्रिकोण बनाकर उन्हें नवीन परिभाषा देने की चेष्टा की है। अहिल्या और पुरुषोत्तम के मध्य होने वाला बौद्धिक वाद-विवाद लम्बा होने के पश्चात् भी उबाऊ नहीं है और जिज्ञासा बनी रहती है। जहाँ एक ओर पुरुषोत्तम और अहिल्या के वार्तालाप में हिन्दी के शब्दों का प्रयोग हुआ है वही दूसरी ओर दिलावरखाँ और रहमानबेग के वार्तालाप में उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी दृष्टिगोचर होता है।
अभिनेयता की दृष्टि से सच्चा धर्म एक आदर्श एकांकी है। एकांकी में तीन दृश्यों की योजना की गई है। तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का पता भी एकांकी से लगता है जब दिलावरखाँ कहता है कि "कोई बिरेहमन तो कभी नीच कौम के साथ बैठकर थोड़े ही खा सकता है" और "दक्खिनी बिरेहमन मराठा के साथ चाहे जान निकल जाए तो भी न खाएगा।” (संवाद रहमानबेग)।
एकांकी का अंत अत्यंत ही सुन्दर है। अहिल्या द्वारा दी जा रही धर्म की दुहाई और अपने अंतर्मन की दुविधा को जीतकर अंततः पुरुषोत्तम बालक संभाजी की प्राणरक्षा के लिए उनके साथ एक ही थाली में भोजन करता है। इस प्रकार किसी के प्राणों की रक्षा करना ही सत्य और सबसे बड़ा धर्म है-यही संदेश लेखक द्वारा दिया गया है। यह एक सर्वकालिक उत्तम एकांकी है।
सच्चा धर्म एकांकी का सारांश
पुरुषोत्तम एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण हैं। वे किसी बात को लेकर धर्मसंकट में पड़ गए हैं तथा कोई निर्णय नहीं कर पा रहे हैं। उनकी पत्नी अहिल्या विकल होकर पुरुषोत्तम से कहती है कि अभी तक हम लोग कोई निर्णय नहीं ले सके। पुरुषोत्तम कहते हैं कि यह प्रश्न साधारण प्रश्न नहीं है परंतु अहिल्या प्रतिवाद करते हुए एकांकी चयनिका सहायक- पुस्तिका पुरुषोत्तम से कहती है कि उन जैसे सत्यवादी ब्राह्मण के लिए यह प्रश्न असाधारण नहीं होना चाहिए क्योंकि सत्य स्वयं ही सब प्रश्नों का निराकरण कर देता है। जब मनुष्य सत्य के रास्ते से हटता है तभी वह प्रश्नों में उलझता है। पुरुषोत्तम पत्नी की इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं और कहते है कि मैं सत्य का आश्रय नहीं छोड़ रहा हूँ। पर अहिल्या कहती है कि क्या यह सत्य नहीं है कि शिवाजी अपने पुत्र संभाजी को तुम्हारे पास छोड़ गए हैं और तुम उसे अपना भांजा बता रहे हो। यही असत्य हमें विकल कर रहा है। पुरुषोत्तम इससे सहमत नहीं होते और कहते हैं कि संभाजी को अपना भांजा बताना साधारण सत्य से बड़ा सत्य है।
अहिल्या पुरुषोत्तम को स्मरण करवाती है कि उनकी सत्यवादिता के कारण ही यवन भी उनका आदर करते हैं और दिल्ली में उनकी प्रसिद्धि है। परंतु पुरुषोत्तम कहते हैं कि सत्य और असत्य की व्याख्या शास्त्रों में बहुत बारीकी से की गई है और कई बार तो असत्य, सत्य से भी बड़ा होता है। धर्म की रक्षा के लिए जो असत्य बोला जाता है वह सत्य से भी अधिक पवित्र होता है। अहिल्या दिलावरखाँ के वचन याद करवाती है कि पुरुषोत्तम द्वारा संभाजी के साथ एक थाली में खाना खाने पर ही संभाजी को पुरुषोत्तम का भांजा माना जाएगा। इससे तो धर्म का नाश होगा रक्षा नहीं।
पुरुषोत्तम व्यग्र होकर टहलने लगते हैं और कहते हैं कि यही प्रश्न तो उन्हें व्यथित कर रहा है। उन्होंने जीवनभर धार्मिक कर्मकाण्ड नियमपूर्वक किए हैं और आज एक अब्राह्मण के साथ भोजन करना उनके लिए भी कठिन कार्य है। अहिल्या पुरुषोत्तम के मन में द्वंद्व देखकर उन्हें धर्म का सुगम मार्ग न छोड़ने के लिए कहती है। पुरुषोत्तम फिर दुविधा में पड़ जाते हैं और कहते हैं कि वे कैसे स्वीकारें कि शिवाजी दिल्ली से छिपकर भागते हुए अपने पुत्र संभाजी को उनके यहाँ छोड़ गए हैं। अहिल्या कहती है कि पुरुषोत्तम ने जीवनभर सत्य बोलने में परिणाम की परवाह नहीं की इसलिए उन्हें सत्य ही बोलना चाहिए। पर पुरुषोत्तम कहते हैं कि ऐसा सत्य जिससे संभाजी के जीवन को संकट हो, विश्वासघात है और वे इस दुष्कर्म के लिए तैयार नहीं हैं।
औरंगजेब के खुफिया विभाग का सरदार दिलावरखाँ अपने साथी रहमानबेग से पुरुषोत्तम की सत्यवादिता की चर्चा करता है। रहमानबेग कहता है कि दक्खनी ब्राह्मण किसी मराठा के साथ बैठकर एक थाली में भोजन नहीं कर सकता भले ही उसे अपने प्राण ही क्यों न देने पड़ें। यदि पुरुषोत्तम जिसे अपना भांजा बता रहे हैं उसके साथ बैठकर एक थाली में भोजन कर लेते हैं तो लड़के के प्रति सारे संदेह समाप्त हो जाएंगे। दोनों पुरुषोत्तम के घर की ओर प्रस्थान करते हैं।
पुरुषोत्तम ने सत्य बोलने का निर्णय लिया है इससे अहिल्या प्रसन्न है। वह बार-बार कहती है कि सत्य बोलने से उनके जीवन भर का पुण्य नष्ट होने से बच जायगा अन्यथा उन्हें एक अब्राह्मण के साथ भोजन करना पड़ेगा। परंतु पुरुषोत्तम संतुष्ट नहीं है और उद्विग्न होकर घूमने लगते हैं। अहिल्या कहती है कि यदि पुरुषोत्तम संभाजी के साथ भोजन करेंगे तो कुल भ्रष्ट हो जाएगा और उनकी कन्याओं से कोई विवाह भी नहीं करेगा। शिवाजी और संभाजी से उसका ऐसा सम्बन्ध भी नहीं है कि उनके लिए धर्म खोकर अपना इहलोक और परलोक बिगाड़ लें। सत्य बोलने से संभाजी को पाकर औरंगजेब प्रसन्न होगा और मनसबदारी भी दे सकता है। सत्य बोलने से धर्म भी सुरक्षित रहेगा और बादशाह की कृपा भी मिलेगी। उसी समय दिलावरखाँ पंडितजी के यहाँ पहुँच जाता है।
पंडितजी दिलावरखाँ का स्वागत करते हैं। दिलावरखाँ कहता है कि उसने पुरुषोत्तम से सबूत माँगा इसका उसे दुःख है पर यह आवश्यक हो गया था। पंडित पुरुषोत्तम कहते हैं कि अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही वास्तविक धर्म है और वे अभी अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए दिलावरखाँ को संतुष्ट कर देंगे। इसके बाद पुरुषोत्तम अंदर चले जाते हैं। रहमानबेग कहता है कि अब तो हमें इस बात का विश्वास करना चाहिए कि वह लड़का शिवाजी का पुत्र संभाजी न होकर पुरुषोत्तम का ही भांजा है। दिलावरखाँ कहता है कि पहले वे दोनों एक थाली में भोजन करें तभी मुझे विश्वास होगा।
पुरुषोत्तम भोजन और जल लेकर कमरे में प्रवेश करते हैं और जमीन पर बैठ जाते हैं। उनके साथ संभाजी भी हैं। थाली के चारों ओर जल छिड़ककर पुरुषोत्तम संभाजी के साथ भोजन करने लगते हैं। दिलावरखाँ को अपने संदेह पर शर्म आती है और वह सिर झुका लेता है। इस प्रकार पुरुषोत्तम अपने कर्त्तव्य का पालन कर धर्म की रक्षा करते हैं।
सेठ गोविंददास का जीवन परिचय
सेठ गोविंददास एकांकी साहित्य के स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं। आपका जन्म जबलपुर (मध्यप्रदेश) में सन् 1896 में हुआ था। आपके एकांकियों में सामाजिक समस्याओं को उभारा गया है। इसमें संदेह नहीं कि आपके सभी नाटक किसी न किसी उद्देश्य को निहित किए रहते हैं। सेठ गोविंददास सन् 1930 में गांधी जी की प्रेरणा से सत्याग्रह आंदोलन में सम्मिलित हुए। आपने हिन्दी के भाषा आंदोलनों में भी सक्रिय भाग लिया। यद्यपि आपने 'इंदुमती' नामक एक उपन्यास की रचना भी की परंतु अधिकतर नाटक ही लिखे । आपने पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक सब विषयों पर लगभग सौ नाटक और एकांकी लिखे हैं। सेठ जी के नाटकों में प्रायः सभा या गोष्ठी का आयोजन होता है । 'मैत्री', 'रासो', 'शशिगुप्त', 'हर्ष', 'स्पर्द्धा', 'कंगाल नहीं' और 'सच्चा धर्म' आपकी स्मरणीय रचनाएँ हैं।
सेठ गोविंददास की भाषा व्यावहारिकता की दृष्टि से सबसे अधिक स्वाभाविक है। आज के शिक्षित भारतीय की भाँति सेठ जी का शिक्षित पात्र भी हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और अन्य भाषाओं का खुलकर प्रयोग करता है। सेठ जी की भाषा न तो कहीं काव्य बोझिल है और न ही कहीं शिथिल। आपने अपने नाटकों में पश्चिम के अंधानुकरण का खुलकर विरोध किया है। आपके एकांकी मध्यवर्गीय एवं निम्नवर्गीय समाज के प्रतिनिधि स्वर बन गए हैं। सेठ जी के नाटकों में लम्बे-लम्बे भाषण भी अत्यंत सहजता से स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत हुए हैं। निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि सेठ गोविंददास एकांकी और नाटक साहित्य के क्षेत्र में अद्वितीय प्रतिभा रहे हैं।
सेठ गोविंददास ने केवल नाटक लेखन का कार्य ही नहीं किया वरन् सन् 1934 में 'आदर्श चित्र लिमिटेड' की भी स्थापना की और 'कुलीनता' नाटक पर 'धुआँधार' नाम से फिल्म बनाई। आपने 'वाणासुर' पर एक महाकाव्य का भी सृजन किया। इतना ही नहीं स्वतंत्रता के पश्चात् सेठ गोविंददास लम्बे समय तक संसद-सदस्य भी बने रहे।
सच्चा धर्म एकांकी का उद्देश्य
प्रस्तुत एकांकी का उद्देश्य धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रकट करना है। पुरुषोत्तम दिल्ली में रहने वाला एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण है जिसके पास शिवाजी अपने पुत्र संभाजी को छोड़ गये हैं। पुरुषोत्तम बड़े धर्मसंकट में है क्योंकि संभाजी की सुरक्षा तभी संभव है जब पुरुषोत्तम उसे अपना भांजा सिद्ध करे जो सत्य नहीं है । पुरुषोत्तम ने अपने चालीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में कभी मिथ्या का आश्रय नहीं लिया। यवन भी उसकी सत्यप्रियता के कारण उसका आदर करते थे। न्याय की रक्षा के लिए कभी-कभी असत्यभाषण सत्य से बड़ी वस्तु सिद्ध होता है। इस एकांकी का उद्देश्य यह भी दर्शाता है कि यदि धर्म की रक्षा असत्य से हो तो उससे बड़ा सत्य कोई नहीं है। दिलावरखाँ ने पुरुषोत्तम के समक्ष शर्त यह रखी है कि वह संभाजी (जो कि वास्तव में शिवाजी का पुत्र और अब्राह्मण है) के साथ एक ही थाली में भोजन करे जिससे यह प्रमाणित हो सके कि संभाजी कोई और नहीं वरन् पुरुषोत्तम का ही भांजा है। पुरुषोत्तम को यह प्रश्न बार-बार व्यथित कर रहा है। वह ब्राह्मण होकर किस प्रकार संभाजी के साथ एक ही थाली में भोजन करे। पुरुषोत्तम नियम से पूजा-अर्चना करनेवाला ब्राह्मण है।
एकांकी का उद्देश्य शरणागत की रक्षा और वचन की मर्यादा भी दर्शाना है। यदि पुरुषोत्तम सत्य बोलता है तो संभाजी का बलिदान निश्चित है परन्तु ऐसा दुष्कर्म वह कदापि करने के लिए तैयार नहीं है। स्थिति दुविधापूर्ण है। एक ओर धर्म नष्ट होता है दूसरी ओर सत्य की प्रतिष्ठा है। पुरुषोत्तम की पत्नी तर्क और वितर्क द्वारा पुरुषोत्तम को परिस्थिति से अवगत कराती है। अंत में परीक्षा की घड़ी निकट आती है। दिलावरखाँ और रहमानबेगं पुरुषोत्तम के घर पधारते हैं। दृढ़निश्चयी ब्राह्मण सत्य और धर्म की रक्षा करता हुआ शिवाजी के पुत्र संभाजी के साथ एक ही थाली में परोसे हुए भात, दाल और साग को खाना आरंभ करता है। दिलावरखाँ के सामने अब शंका का कोई प्रश्न नहीं था। इस प्रकार पुरुषोत्तम असत्य को सत्य प्रमाणित करता है।
सच्चा धर्म एकांकी शीर्षक की सार्थकता
'सच्चा धर्म' एकांकी का शीर्षक एक सटीक और सार्थक शीर्षक है। पुरुषोत्तम एक महाराष्ट्रीय ब्राह्मण है जो अपने ब्राह्मण धर्म का पूरी तरह पालन करता है। वह त्रिकाल संध्या, तर्पण, हवन आदि सारे ब्राह्मण कर्म नियम से पूर्ण करता है। ब्राह्मणधर्म को पूर्ण करने से पुरुषोत्तम का परलोक सुधरता है। सत्य बोलने से उसका इहलोक बिगड़ता है। ब्राह्मण जिसके पास शिवाजी अपने पुत्र की रक्षा का भार सौंप गये हैं दुविधाग्रस्त है, एक सत्य से बालक का बलिदान निश्चित है। सही अथा में संभाजी की रक्षा ही पुरुषोत्तम के लिए सच्चा धर्म है। वह दृढ़ निश्चय करता है और संभाजी के साथ एक थाल में भोजन कर लेता है जिससे दिलावरखाँ का शक दूर हो जाता है और असत्य भाषण से सच्चे धर्म का निर्वाह होता है। यहाँ धर्म को नवीन रूप में परिभाषित किया गया है-जो व्यक्ति और समाज के लिए श्रेयस्कर है वही सच्चा धर्म है।
सच्चा धर्म एकांकी के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण
सच्चा धर्म एकांकी में पुरुषोत्तम का चरित्र चित्रण
पुरुषोत्तम सच्चा धर्म एकांकी का प्रधान पात्र है। धर्म की रक्षा के लिए वह असत्य को सत्य से अधिक महान मानता है। शिवाजी के पुत्र संभाजी की रक्षा को वह अपना परम कर्त्तव्य मानता है। असत्य भाषण पर सत्य उजागर होने के दुष्परिणाम को जानते हुए भी वह अपने निश्चय पर अटल रहता है और संभाजी को अपना भांजा सिद्ध कर देता है। वह धर्म की रक्षा के लिए असत्य को विशेष महत्व देता है। वह एक कट्टरपंथी और रुढ़िवादी ब्राह्मण है । अब्राह्मण के साथ भोजन करके उसका धर्म नष्ट हो सकता है इसे वह भलीभाँति जानता है परन्तु न्याय की रक्षा के लिए यह सब उसके लिए गौण हैं। अहिल्या द्वारा सत्य वचन कहने के लिए प्रेरित किये जाने पर वह उससे कहता है कि वह कभी विश्वासघात नहीं कर सकता क्योंकि यह शरणागत का बलिदान होगा। वह निडर और साहसी है। वह किसी भी संकट से विचलित नहीं होता । सत्य पता चलने पर वह परिणाम का दंड भी जानता है। उसका निश्चय अटल है। वह दृढ़प्रतिज्ञ है। अतः पत्नी के बार-बार समझाने पर भी वह अपने निर्णय को नहीं बदलता और अन्त में संभाजी के साथ एक ही थाली में भोजन करने के लिए तैयार हो जाता है। वह मानवमात्र की सेवा को धर्म से अधिक महत्व देता है।
अहिल्या का चरित्र चित्रण
पुरुषोत्तम की पत्नी है। वह एक धर्मभीरू ब्राह्मण नारी है। शास्त्रों के विरुद्ध अनायास कुछ विपरीत न हो जाये, इसका सदा उसे भय रहता है। वह किसी भी परिस्थिति में यह नहीं चाहती कि उसका पति अपने सत्यव्रत को त्यागे। वह सत्य का त्याग करके किसी भी विवाद में पड़ना नहीं चाहती। वह नहीं चाहती कि असत्य बोलकर उसका पति यवनों की दृष्टि में गिर जाये। क्योंकि वे उसकी सत्यप्रियता के लिए उसका सम्मान करते थे। संभाजी अब्राह्मण होकर पुरुषोत्तम ब्राह्मण के साथ एक थाल में भोजन करे इसके लिए वह कदापि तैयार नहीं है क्योंकि इससे ब्राह्मण धर्म नष्ट होगा। वह कुटुंब की रक्षा भी चाहती है जो असत्य भाषण से सम्भव नहीं । अहिल्या मिथ्याभाषण को पाप समझती है इसीलिए वह अपने पति से यह अपेक्षा करती है कि दिलावरखाँ के समक्ष सत्य ही कहें। वह कहती है कि अब्राह्मण के साथ एक थाली में भोजन करके उसका कुल भ्रष्ट हो जायेगा, संतानें अब्राह्मण हो जायंगी, लड़कियों से कोई विवाह नहीं करेगा । अहिल्या स्वार्थी भी है। वह कहती है कि शिवाजी के पुत्र से हमारा क्या प्रयोजन? उसके कारण हम अपना इहलोक और परलोक क्यों बिगाड़ें? वह अपने पति की सुरक्षा भी चाहती है क्योंकि सत्य सामने आने पर उन्हें औरंगजेब के कोप का भाजन बनना पड़ेगा । अहिल्या की संभाजी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। वह अंत तक यही आशा करती है कि उसका पति सत्य बोले और राज्य में प्राप्त अपनी मर्यादा और ब्राह्मणधर्म को न त्यागे। जब दिलावरखाँ रहमानबेग के साथ आता है तब भी उसका अंतिम प्रयास यही रहता है कि उसका पति उन लोगों से स्पष्ट रूप में बातचीत करे।
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