शब्द तुम्हारा जिक्र करते हैं - आशीष नैथानी

SHARE:

आशीष नैथानी की काव्य संग्रह ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं“ से गुजरते हुए, जिसे रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है। 67 कविताओं का यह सं

कि हर रोज़ हथेलियों पर नहीं उगा करते चाँद


क मनुष्य के लिए आदर्श स्थिति यही है, जब उसकी ‘आत्मा’ और उसका ‘शरीर’ एक ही जगह निवास करते हों। लेकिन रोटी की चिन्ता, परिवार का भविष्य, और बेहतर ‘कल’ के लिए ‘आज’ से समझौता करने का दबाव, ऐसा होने नहीं देता। और फिर शुरू होता है एक ऐसा कशमकश, जो देर तक चलता है। कहा गया है “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”। लेकिन रोटी की चिन्ता, ‘जननी’ और ‘जन्मभूमि’ दोनों ही ‘स्वर्गों’ दूर कर देती है। अपने मूल निवास से पलायन के बाद शरीर तो अचानक चला जाता है, लेकिन आत्मा इतनी जल्दी नहीं जाती। ‘आत्मा’ अपने गाँव, अपने परिवार से जुड़ी रहती है और चाहती है कि ‘शरीर’ वापस यहीं आ जाए। उधर रोटी का दबाव चाहता है कि ‘शरीर’ के साथ ‘आत्मा’ भी यहीं आ जाए ताकि यह पौधा पूरी तरह से अपने गाँव से उखड़ जाए। इसी कशमकश का नाम जिंदगी है। लाल्टू ने अपनी एक कविता में लिखा “यह तस्वीर कभी पूरी नहीं होगी / इसमें एक औरत है / वह पहाड़ों की ओर जा रही है / पहाड़ इतने दूर हैं कि / तस्वीर पूरी नहीं हो सकती है।/ पहाड़ तक जाना/ कई कहानियों का पूरा होना है/ बहुत सारी कहानियों से एक तस्वीर बनती है। / इस तस्वीर को कम से कम अल्फ़ाज़ में/ तुम्हें दिखलाना चाहता हूँ / कितनी कहानियाँ कहने के लिए मेरे लफ़्ज़ राज़ी होंगे/ मैं नहीं जानता।“

शब्द तुम्हारा जिक्र करते हैं - आशीष नैथानी
ऐसी ही कई कहानियाँ उभरती हैं आशीष नैथानी की काव्य संग्रह ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं“ से गुजरते हुए, जिसे रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है। 67 कविताओं का यह संकलन यूँ तो विविध विषय समेटे हुए है, लेकिन इसमें अपने गाँव, अपने परिवेश और अपने पहाड़ से प्रेम महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त युवा कवि का अपनी प्रेयसी से प्रेम भी है, कुछ कविताएं कोरोना के समय लिखी गई हैं, इसलिए कुछ बेहद संवेदनशील कविताएं भी इस विषय पर हैं। राजनीति की दिशाहीनता आज के समय की बड़ी समस्या है, आशीष भी इससे चिंतित दिखते हैं और उनका यह क्षोभ उनकी कुछ कविताओं में दिखता है।  इसके अलावा और भी कुछ भी कुछ विषय हैं जिन पर सूक्त वाक्य की तरह छोटी-छोटी कविताएं लिखी गई हैं।
       
हम वापस आते हैं लाल्टू की कविता पर, जहाँ वे तस्वीर बनाने की बात करते हैं। प्रेमचंद ने कहा था कि एक रचनाकार, अपनी रचनाओं में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। आशीष नैथानी इस संग्रह की कविताओं को अपनी कहानी नहीं बताते। यहाँ तक की इस संग्रह में उनका कोई लेखकीय वक्तव्य भी नहीं है। और यह ठीक ही है क्योंकि अकसर लेखकीय वक्तव्य किसी न किसी रूप से पाठकों के मन में रचनाओं के प्रति एक विशेष  तरह का पूर्वाग्रह बनाने की कोशिश करते हैं। इसके अभाव में पाठक स्वतंत्र है कि वह चाहे जैसी तस्वीर बनाए। हाँ, प्रसिद्ध कवि, लीलाधर जगूड़ी द्वारा लिखी गई भूमिका में उनका यह कथन “चूँकि वे पहाड़ में पैदा हुए हैं, इसलिए प्रकृति के अनेक कष्ट और अनेकानेक रँग उन्हें मिल जाते हैं, जो दूसरों को दिखते तो हैं पर संचालित, आल्हादित और विचलित नहीं करते” इस संग्रह के विषय में बहुत कुछ कह जाता है। लीलाधर जगूड़ी यह भी लिखते हैं “यह जो जीवन के दुखों की पाठशाला में प्रवेश पाने का उद्यम है, यही कविता की संवेदना में ले जा कर व्यक्ति को कथन विशेष की दीक्षा देता है। मैं इन कविताओं में भविष्य के एक अच्छे कवि की संभावनाएं देख रहा हूँ।“  तो यदि आशीष की कविताओं के माध्यम से तस्वीर बनाई जाए या एक कहानी गढ़ी जाए तो कैसी होगी?             
पहाड़ के किसी आदमी की तस्वीर, पहाड़, पेड़ और नदी के बिना अधूरी है। आशीष नैथानी की तस्वीर से परिस्थितियों के वशीभूत, ये सभी गायब हैं। इन सब से अलग होने की तड़प, आशीष की कविताओं में दिखती है। अपने पहाड़ या अपनी जड़ों से दूर होने के कारणों पर अपनी कविता में मंगलेश डबराल लिखते हैं “दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर/ एक तेज़ आँख की तरह/ टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई / देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत/ बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने/ देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए / सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से/ दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ़ झाड़कर/ अपनी भूख को देखो / जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है।“ बेहतर भविष्य के लिए कवि भी अपने पहाड़ से अलग होता है, लेकिन उसे याद आती है पहाड़ों की सुबह “सुथरे नीले अंबर पर/ पहाड़ो के कंधों से/ निकलता है सूरज सफर पर।/ रात भर निर्जीव हो चुके पौधों की/ धमनियों में दौड़ने लगता है रक्त/ माटी होने लगती है मुलायम/ देवदार रगड़ता है हथेलियां/ स्कूल जाते बच्चों के गालों पर/ उग आता है बुरांस।/ पहाड़ों पर हर सुबह बड़ी हसीन होती है।“ कवि को याद आती हैं अपने यहाँ की अल्हड़, बातूनी लड़कियां, जो पहाड़ी नदी की ही तरह अल्हड़ होती हैं। ऐसी ही लड़कियों के लिए आशीष लिखते हैं – “ये कुछ लड़कियां/ जिन्हें गाहे-बगाहे टोकती हैं गली-मोहल्ले की उम्रदराज महिलाएं/ उनकी बेसुध-बेअंत चर्चाओं के लिए/ ये चंद बातूनी लड़कियां/ ये दुनिया से अनजान लड़कियां / ये सुध- बुधहीन लड़कियां/ अपने जीवन के उत्सव को भरपूर जीना जानती हैं।“ इस कविता को पढ़ते हुए याद आती है लाल्टू की कविता “छोटे शहर की लड़कियां” जिसमें लाल्टू लिखते हैं “कितना बोलती हैं/ मौका मिलते ही/ फव्वारों सी फूटती हैं/ घर-बाहर की/ कितनी उलझनें/ कहानियाँ सुनाती हैं/ फिर भी नहीं बोल पातीं/ मन की बातें/ छोटे शहर की लड़कियाँ” लेकिन लाल्टू की कविता की लड़कियां हार मानने वाली नहीं और न ही आशीष की कविता की लड़कियां। और इसीलिए इन लड़कियों के लिए लाल्टू लिखते हैं “एक दिन/ क्या करुँ/ आप ही बतलाइए/ क्या करुँ/ कहती-कहती/ उठ पड़ेंगी/ मुट्ठियाँ भींच लेंगी/ बरस पड़ेंगी कमज़ोर मर्दों पर/ कभी नहीं हटेंगी। / फिर सड़कों पर/ छोटे शहर की लड़कियाँ/ भागेंगी, सरपट दौड़ेंगी।/ सबको शर्म में डुबोकर/ खिलखिलाकर हँसेंगी।/ एक दिन पौ सी फटेंगी/ छोटे शहर की लड़कियाँ।“

लेकिन इन सुखद यादों के बीच, घर से जुदा होने का दर्द भी है। घर से जाते समय माँ को याद करते हुए कवि लिखते हैं “मिर्च-पुदीने में पिसा हुआ नमक/ थोड़ा घर का बना घी/ आटे की मीठे रोट/ रास्ते के लिए आलू के गुटखे/ तो किलो भर पहाड़ी राजमा भी रखती है।/ माँ घर से शहर को निकलते हुए/ पूरा कलेउ  दे कर विदा करती है।/ ... ... .../और जब लौटते हैं/ तो समेटकर ले जाते हैं सारे लम्हे / पीछे छूट जाती है एक घनघोर रिक्तता। / जीवन घर से जाने/ और पुनः-पुनः लौट आने की ही कोई लिखावट है शायद।“ एक बेहतर कल की तरफ उठाया गया कदम दुखदायी तो नहीं होना चाहिए, लेकिन संपन्नता की चाहत इंसान की संवेदनाओं को कुंद कर देती है। हालांकि माँ की संवेदना नहीं बदली है “तमाम सम्पन्नताओं वाली नौकरी पर जाने के लिए/ विदा कहने आई माँ की छलकती आंखें/ कहती हैं कि/ इस संपन्नता में कुछ तो है/ जो बस ठीक नहीं है।“ 

घर से वापसी के बाद, कुछ दिनों तक घर की याद कचोटती है। आदमी घंटों शून्य में झांक रहा होता है या आँखें कहीं एक जगह स्थिर हो जाती हैं और मन वापस गाँव पहुँच जाता है। ऐसी ही एक परिस्थिति में एक कील को देखते हुए कवि लिखते हैं “जब आईना टूटता है/ तब कील हो जाती है सबसे उदास जगह/ एक बेकल सी उदासी उस बड़ी दीवार से खिंचकर / छोटी सी कील पर आकर समा जाती है।/ खैर, यह तो एक वस्तु की बात है / फिर किसी मनुष्य के चले जाने से/ खाली हुई जगहों की बात तो/ शब्दों से परे है।“

कवि शहर आने की बाध्यता बताता है, लेकिन उसका मन अशांत है। वह लौटना चाहता है, लेकिन अपनी चाहत कह नहीं पाता; इसलिए यह चाहत किसी दोस्त की जुबानी कही जाती है। “उस काल में पैदा होना/ जब कि मिट्टी का रंग आंखें न पहचानती हों/ न मालूम हो पकते धान की खुशबू/ और हल से हो एक स्थाई अज़नबीपन/ रोजी की खोज़ में शहर आना बाध्यता होती है। / मगर यहाँ आना कभी पूरा आना नहीं होता/ न यहाँ से लौटना ही हो पाता है कभी पूरा। /व्यस्त घड़ियों में सोमवार की पिछली शाम/ शहर में खुश रहने की दलीलें तब साबित होती है झूठी / जब एक दोस्त बातों ही बातों में कह उठता है/ अपने दिल की बात/ कि  ‘मैं पहाड़ लौटना चाहता हूँ’।“

बेकली दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है। जिस आराम की खोज में शहर आए थे, लगने लगता है कि यहाँ सिर्फ बेचैनी मिली है, आराम तो घर छोड़ आए हैं। “मेरा ये निर्मोही लैपटॉप/ मेरा चेहरा नहीं पढ़ता/ न एक्सेल शीट के खाने / दे पाते हैं जगह मेरे सपनों को / और न कीबोर्ड की खट-खट / मेरे भीतर के कुहराम को दबा पाती है / मैं हर दिन ऑफिस के बाद/ एक परिंदा हो जाना चाहता हूँ।“ लेकिन परिंदे को भी वापसी के लिए एक पेड़ और उस पेड़ पर एक टहनी तो चाहिए।  टहनी है, तो एक विकल्प है वापसी का।  “पहाड़ की एक सुनसान घाटी में/ लगभग जा चुकी ठंढ की एक रात/ समन्दर किनारे बसी किसी सुंदर बस्ती में/ सुख-आराम न पाने पर / सपनों के चूर-चूर हो जाने की स्थिति में/ पहाड़ पर वापसी की एक टहनी तलाश रहा हूँ। / ऊँची उड़ान से पूर्व/ खोज रहा हूँ वापसी का कोई विकल्प।“ यानी अभी वापसी निश्चित नहीं। अभी कुछ और ऊंचे उड़ानों की अभिलाषा है। सच ही है, पहाड़ों से नीचे उतरना आसान है लेकिन वापस चढ़ना उतना ही मुश्किल।  “उतरना कितना आसान होता है/ कितनी सहजता से उतरती है नदी/ कितनी आसानी से लुढ़कते हैं पत्थर चट्टानों से / और कितने बेफ़िक्र होकर गिरते हैं आँसू।/ इसके उलट चढ़ना कितनी दुरूह प्रक्रिया है / शहर से लौटकर / पहाड़ न चढ़ पाने के बाद/ महसूस हुआ/ कि उतरना किस कदर आसान है / और आसान चीजें अकसर आसानी से अपना ली जाती हैं।“

यह वापस न जा पाने की खीज और संपन्नता में सुख न पाने की टीस, हर दिन बेचैनी का एक नया आवरण मन पर चढ़ाती जाती है। ऐसे में इच्छा होती है किसी दिन रात के घुप्प अंधेरे में छत पर जोर से चीखें।  “गेरू पुते घर की उबड़-खाबड़ दीवार पर/ कमर लगाए/ बैठी है सारंगी।/ इसे बजाने वाला लड़का जब इसे उठाता/ घुटने और गर्दन के बीच संभालता/ और छेड़ता पहला स्वर/ तो हवा की आवाजें पवित्र हो जाती।/ सारंगी बजती रहती/ उम्र बढ़ती रहती।/ वही लड़का अब शहर की दौड़-धूप में है/ और कमर टिकाए बैठी है बूढ़ी सारंगी / चुपचाप शांत/ और हाँ/ खामोश चीजें अकसर बोलती नहीं हैं/ चीख उठती हैं।“ यहाँ सारंगी वापस जाने की चाह है जो लंबे समय से इंतजार में है और जिसके चीख पड़ने में अब ज्यादा समय शेष नहीं। कवि आज भी यह माने को तैयार नहीं कि वापसी का रास्ता बंद होता जा रहा है। शहर में खरीद लिए गए ‘टू बी.एच.के.’ में ही जिंदगी पनपने लगी है। कवि अपने गाँव  को याद करते हुए खुद से सवाल करता है कि गाँव में “बच्चों की किलकारियाँ थीं / गुड़गुड़ाहट थी हुक्के की/ मंत्रोच्चार ढोल दमाऊ मशकबाजे की धुनें थी/ गाय-बकरी की आवाज़ें/ गौंत-गोबर की महक थी।/ पंचायत चौक पर मन्डाण लगता था रात-रात भर / औजी को ढोल सहित कंधे में लेकर नाचते थे लोग/ और फिर अलसुबह जागकर लग जाते थे काम पर।/ सवाल यह कि/ क्या हम वाकई छोड़कर ये धरोहर/ एक ‘टू बी.एच.के.’ में शिफ्ट हो चुके हैं।“ (मन्डाण – गढ़वाल में पांडव नृत्य; औजी – ढोल बजाने वाला)।  

माँ जो पहले याद आती थी हर वक्त, अब व्यस्तताओं ने उन यादों को भी कमजोर कर दिया है। हाँ जब आती है माँ, तो फिर बेपनाह याद आती है, खासकर तब, जब परेशानियाँ सर उठाकर झांक रही हों।   “सीढ़ियां चढ़ता हूँ तो सोचता हूँ माँ के बारे, / कैसे चढ़ती रही होगी पहाड़/ जेठ के उन तपते घामों में/ जब मैं, या दीदी, या फिर भाई बीमार पड़े होंगे/ तो कैसे हमें उठा कर लाती रही होगी/ (हमारा लाश सा बेसुध तन)/ डॉक्टर के पास? / घास और लकड़ी के बड़े-बड़े गट्ठर/ चप्पल जितनी चौड़ी पगडंडियों पर लाना/ कुछ आसान तो न रहा होगा।/ छब्बीस की उम्र में/ चार कदम चलकर थकने लगता हूँ मैं/ सांस किसी बच्चे की तरह/ फेफड़ों में धमाचौकड़ी करने लगती है/ बात-बात पर मैं अकसर बिखर सा जाता हूँ।/ क्या इसी उम्र में माँ भी कभी निराश हुई होगी?/ तंग आई होगी अपनी तीन दुधमुहें बच्चों से?/ पति का पत्र न मिलने की चिन्ता भी बराबर रही होगी।/ थकता-टूटता हूँ तो करता हूँ माँ से बातें/ (फ़ोन पर ही सही)/ निराशा धूप निकलते ही/ कपड़ों के गीलेपन के जैसे गायब हो जाती है।/ सोचता हूँ वो किससे बातें किया करती होंगी तब/ दुख-दर्द में/ अवसाद की घड़ियों में,/ ससुराल की तकलीफ़ किसे कहती रही होगी/ वो जिसकी माँ उसे पाँच साल में ही छोड़ कर चल बसी थी।“

शहर और गाँव के इस जद्दोजहद में गाँव की यादें धुंधली पड़ रही हैं। गाँव और शहर के बिम्ब आपस में मिल कर गड्डमड होने लगे हैं। “मैंने कागज़ों पर ज़िक्र किया सलीके से बने तालाबों का/ इस ज़िक्र में जमीन गांव की थी/ पर तालाब कुछ-कुछ पांच सितारा होटलों के स्विमिंग-पूल जैसा। /मैं विदेशी कुत्ते को सहलाते हुए मवेशियों के बारे में रचता रहा। / सोफे पर पैर पसारकर कॉफी पीते हुए/ मैं मेहनतकश बैल की नस्ल को पॉमेरेनियन तक लिख गया। / अपनी ढोंगी शहरी सभ्यता के चलते गोबर न लिख पाया/ डरता रहा अपनी महंगी कलम के बदबूदार हो जाने से/ और इस गंध से सरस्वती के प्राण त्याग देने के भय से। /दरअसल मैं तुलसी-पीपल तो लिख ही नहीं पाया/ स्याही में नींब डुबो-डुबोकर/ सिर्फ मनी-प्लांट ओर एरिका-पाम लिखता रहा। / मैं भीतर ही भीतर मिट्टी की मेड़ सा टूटता रहा/ किताब की ज़िल्द सा उधरता रहा/ दरकता रहा समुद्र तट पर बनी मूरत जैसा/ सावन के धारों सा बहता रहा, अनवरत अकेला/ मैं शहर में रहा खोखली शान से/ संपन्नता के दरमियान,/ मैं विलासिता की सीमा पर सुखमय जीवन गुजारता रहा/ और फिर उसी महंगी कलम से/ वातानुकूलित कमरे में एल.ई.डी. की दूधिया रोशनी तले/ एक गरीब की कविता लिखता रहा।“ हालांकि कवि यह जानता है कि शहर की सजावटी फूलदानों में पानी में रखे गए फूलों की उम्र ज्यादा नहीं होती। पौधों को अपने अस्तित्व के लिए जिस हवा, धूप और मिट्टी की आवश्यकता है वह उसे वापस गाँव जाकर ही मिलनी है। “महानगरों में मुमकिन है अर्जित कर लेना/ अपना घर, बढ़िया गाड़ी/ और दरवाज़े पर तमाम सुख-सुविधाएं/ मगर अपने हिस्से की धूप और मिट्टी के लिए/ हमें बार-बार लौटना होता है/ गांव अपने।“
 
लेकिन क्या वापसी का रास्ता इतना आसान है? “शहर के घने ट्रैफिक में फंसा एक मामूली आदमी/ कुछेक सालो में कीमती सामान वहाँ छोड़ आया है/ मैं जहाँ से आया हूँ,/ और वापसी का कोई नक्शा भी नहीं है। / मेरी स्थिति यह कि/ लैपटॉप के एक नोटपैड में ऑफिस का जरूरी काम/ और दूसरे नोटपैड में कुछ उदास शब्दों से भरी कविता लिखता हूँ/ मेरे लिए यही जीवन का शाब्दिक अर्थ हो चला है।“ हाँ एक उम्मीद अब भी कवि की कल्पनाओं में है। गाँव हालांकि बदल चुका होगा यकीनन, लेकिन कवि की कल्पनाओं में कुछ नहीं बदला, सब कुछ वैसे ही है उसके गाँव में “किंतु कहीं दूर अब भी/ मिट्टी के चूल्हे पर पक रही होगी मक्के की रोटी/ पानी के धारों पर गूंज रही होगी हँसी/ विवाह में कहीं मशकबीन बज रही होगी/ दुल्हन विदा हो रही होगी/ पाठशालाओं में बच्चे शैतानी कर रहे होंगे/ प्रेम किसी कहानी की आधारशिला बन रहा होगा/ इंद्रधनुष बच्चों की बातों में शामिल होगा/ खेत खिल रहे होंगे रंगों से/ पक रहे होंगे काफ़ल के फल कहीं दूर/ या कहूँ, जीवन पक रहा होगा।/ दूर जंगल में बुरांस खिल रहा होगा/ जीवन का बुरांस।“ कुछ तस्वीरों का अधूरा रहना ही उनकी नियति है। इस तस्वीर में जो गाँव है शायद यदि कवि कभी गाँव लौटने में सफल हो भी जाय, तो उसे वह गाँव न मिले, जो उसकी कल्पना में है। ऐसे में तस्वीरों में जो गाँव है, उसकी खूबसूरती अपने सीने में दबाए, शहर में रोटी की जद्दोजहद करना ही अब कवि और कवि के तरह न जाने कितनों की नियति है। अहमद सलमान का शेर है “ये क्या के सूरज पे घर बनाना /और उसपे छाँव तलाश करना।/खड़े भी होना तो दलदलों पे/ फिर अपने पाँव तलाश करना।/ निकल के शहरों में आ भी जाना/ चमकते ख्वाबों को साथ लेकर/ बुलंदो-बाला-इमारतों में/ फिर अपने गाँव तलाश करना”।       
इस संग्रह की कुछ कविताएं कोरोना के दौर में लिखी गई हैं। आज जब हम उस दौर से लगभग बाहर आ चुके हैं लेकिन फिर भी जैसे ही किसी भी रूप में वे दृश्य हमारी यादों में आते हैं, उनकी भयवाहता, हमारी लाचारी और उस समय की प्रशासनिक अव्यवस्था हमें जड़ बना देती है। उस दौर में कवि एक बेहतर कल की कामना करते हुए लिखते हैं “जीने के मायने अकसर धुंधले हो जाते हैं/मुश्किल समय में / ऐसी स्थितियों से दवा नहीं लड़ती / बस उम्मीद लड़ती है।/ यह उम्मीद ही तो है/ कि स्वाह हो चुका जंगल फिर खिलेगा/ फिर लौटेंगे पंछी / यह उम्मीद ही तो है/ कि महामारी के बाद फिर खुलेगा संसार/ एक खूबसूरत नदी की तरह।“

कोरोना के समय, हर शहर से गाँव की तरफ पैदल पलायन करते मजदूरों ने किसका दिल नहीं दुखाया होगा। एक जूते या चप्पल का महत्व उस समय मजदूरों के लिए कितना रहा होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जूतों के महत्व के बारे में आशीष लिखते हैं “धरती से जुड़े रहते हैं/ आसमां पे नहीं उड़ते/ दूर तक जाने का हौसला देते हैं/ आँखों के चश्मों से सस्ते भी मिल जाते हैं/ शहर से गाँव पैदल लौटते मजदूर कहते हैं कि / साहब! ज़ेवरों से ज़रूरी होते हैं जूते।“

मृत्यु अवश्यंभावी है लेकिन अकालमृत्यु दुखदायी है। और ऐसी मृत्यु जहाँ हम असहाय महसूस करें, बहुत ही कचोटने वाली होती है। आशीष लिखते हैं “आपदाओं से मरना किसी मुल्क के लिए अच्छी ख़बर नहीं है/ और उससे भी बुरा है अस्पताल में मर जाना/ या कि सदियों से अस्पताल तक न पहुँच पाई/ अधूरी सड़क किनारे दम तोड़ देना।“ लेकिन इसके बाद आशीष इस कविता को विस्तार देते हैं जिससे यह कविता अब सिर्फ उस काल-खण्ड की न रहकर, सर्वकालिक बन जाती है। “मरना अपने आप में मनहूस ख़बर है/ और मार दिया जाना उससे भी बदतर,/ और मारने वालों का सीना ठोककर मार देने की बात करना/ मुल्क की सेहत के लिए कोई अच्छी बात तो नहीं है/ हम सब के भीतर एक कतरा मुल्क बसता है / थोड़ी भाषा, थोड़ी संस्कृति, थोड़ा प्रेम बसता है/ थोड़ी चिन्ता, थोड़ी नफरत और थोड़ा दुख भी बसता है/ अब जैसे ज़रूरी है थोड़ा प्रेम, थोड़ी नफ़रत/ थोड़ी धूप, थोड़ी मिट्टी/ थोड़े से बादल, थोड़ी बरसात/ ठीक वैसे ही बहुत जरूरी है, थोड़ी सी भूख भी। / लेकिन किसी का भूख से मर जाना/ इस दुनिया की आखिरी बुरी ख़बर है।“ इस कविता को पढ़ते हुए स्वाभाविक है कि पाश याद आएंगे। “सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना/ तड़प का न होना/ सब कुछ सहन कर जाना/ घर से निकलना काम पर/ और काम से लौटकर घर आना/ सबसे ख़तरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना/ सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है/ जो हर हत्‍याकांड के बाद/ वीरान हुए आंगन में चढ़ता है/ लेकिन आपकी आंखों में/ मिर्चों की तरह नहीं पड़ता।“
 
शब्द तुम्हारा जिक्र करते हैं - आशीष नैथानी
कोरोना की भयावहता और अराजकता के बीच जब आक्सीजन की कमी की वजह से बच्चों की मृत्यु का समाचार आया, तो जैसे देश का हर नागरिक रो पड़ा। ‘अलविदा मेरे बच्चों’ शीर्षक से आशीष ने एक ऐसी कविता लिखी है जो हमें, हमारे दामन में  झाँकने पर मजबूर करती है और शर्मसार भी। आशीष लिखते हैं “तुम्हें उसने अपनी गोद में उठा लिया मेरे बच्चों !/ ऑक्सीजन न मिलना तो उसका एक बहाना भर है/ वो निराश है अपनी कुछ कृतियों से/ उसे मलाल है कि उसने ही बना दिये ऐसे मुखौटे/ जो चन्द कागज़ के टुकड़ों के लिए बंद कर देते हैं/ ज़िंदगी की सप्लाई/ और ऐसी नकारी सरकारी व्यवस्था पर बैठे ठग भी उसी ने रचे हैं/ वो तुम्हारे नन्हें सीनों पर सर रख कर सिसकना चाहता है बच्चों।“ जाने वाले बच्चों से तो हम माफ़ी मांगने के काबिल भी नहीं। अपनी नाकामी और जिल्लत छुपाते हुए उन बच्चों को यहाँ से जाने का मलाल न पालने की सीख देते हुए आशीष लिखते हैं “तुम्हें वहाँ बादल के खिलौने मिलेंगे/ दूर-दूर तक आम-अमरूदों के बगीचे/ सूरज की कुछ किरणों को जोड़कर तुम रस्सी बना लेना/ और जी भर खेलना रस्सी-कूद/ और हाँ, जी भरकर हवा भी मिलेगी/ वहाँ शायद ज़िंदगी का हिसाब किताब/ ऐसे लापरवाह लोगों के हाथों न हो।“ इन बच्चों को अब वापस न लौटने की सलाह देते हुए आशीष लिखते हैं “जाओ बच्चों खुश रहो/ अब तभी लौटना जब भ्रष्ट और सुस्त व्यवस्थाएँ बेदखल हो जाएं/ ऐसे जाओ कि अब इसके बाद तुम्हारे दुखों का अंत हो गया/ जैसे अंत हो गए थे ज़िंदगी के सिलेंडर हमारे समाज में।“ आज भले ही हम भयवाहता के उस दौर से निकल चुके हों लेकिन ऐसी कविताओं की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी जो हमें हमारी नाकामियों की याद दिलाती रहे।
  
कवि ने अपने हैदराबाद प्रवास के दिनों को याद करते हुए इस शहर पर दस छोटी कविताएं लिखी हैं। शहर में बढ़ती आबादी और कुकुरमुत्ते की तरह उगती इमारतों के लिए लिखते हैं “पठारों पर उग आई हैं इमारतें/ जैसे तुम्हारी उदासी पे/ कभी-कभार मुस्कुराहट उभर आती है।“ वहीं पुराने शहर की पुरानी इमारतों पर उगे घास पर भी कवि की नज़र है “पुराने शहर की कुछ इमारतों पर/ घास उग आई है/ और उग आई हैं / पंछियों के घोसलों की संभावनाएँ भी।“ नई और पुरानी, इन सभ्यताओं, संस्कृतियों के मेल को प्रेम की तरह आवश्यक मानते हुए लिखते हैं “जीवन की उम्मीदों का इस तरह उगना/ शहर की सांसों के लिए जरूरी है/ जैसे प्रेम, हमारी सांसों के लिए।“ हैदराबाद की पहचान चारमीनार का बहुत ही खूबसूरत शब्दचित्र कवि ने उकेरा है “सैलानी चढ़ रहे हैं दमघोंटू सीढ़ियों से/ चारमीनार के ऊपरी माले पर/ कबूतरों के एकांत में पड़ रहा है ख़लल/ कैमरों के फ्लैश बिजली से चमक रहे हैं/ हैदराबाद, कैमरों में कैद होकर/ विश्व भर में फैल रहा है।“ कवि ने हैदराबाद छोड़ दिया है लेकिन हैदराबाद की सुखद यादें कवि के ज़ेहन से गई नहीं हैं। कृतज्ञ कवि, हैदराबाद के लिए कहता है “बूँद को सीपी बनाना/ भला इस शहर से बेहतर कौन जानता है”।
 
प्रेम एक ऐसा शाश्वत विषय है जिसकी अपेक्षा हम किसी भी विषय पर लिखी गई कविता संग्रह में करते ही हैं और यदि कवि आशीष नैथानी जैसे युवा हों, तब यह उम्मीद और बढ़ जाती है। आशीष ने अपने पाठकों को निराश भी नहीं किया है। कुछ प्रेम कविताएं इतनी भावनात्मक और प्रभावी हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। पहाड़ों से प्रेम की तरह, प्रेम कविताओं में भी आशीष की अपनी कहानी, अपना प्रेम दिखता है। हैदराबाद की एक व्यस्त गली, जहाँ सड़क के दोनों तरफ की दुकानों के बीच सड़क ढूँढना आसान नहीं है, की बात करते हुए आशीष लिखते हैं “सड़कों के बीच दुकानें हैं/ या दुकानों के बीच सड़कें/ कुछ स्पष्ट नहीं/ ठीक वैसे ही/ जैसे पहले अल्हड़ प्रेम-प्रस्ताव का जवाब/ स्पष्ट नहीं होता।“ 
 
लेकिन कवि के अल्हड़ प्रेम प्रस्ताव का जवाब आता है। प्रेम पनपता है लेकिन इसे अभी एक लम्बी आंच में तपना है, विरह की वेदना झेलनी है। कवि ने तो विरह के इस इंतजार को कविता में लिख दिया, प्रेयसी ने कैसे काटे होंगे वे पल। कवि अपनी स्थिति के बारे में लिखता है “मगर एक मसि-कागद प्राणी इससे बेहतर क्या कर सकता है / जुगनू की पीठ पर सवार कुछ शब्द उठा सकता है / और उन्हें पिरो सकता है छत पर घूमते पंखे के संगीत के साथ / गीले-गीले शब्दों को तकिये की गर्माहट में सुखाने की /कोशिश भर कर सकता है।“ प्रेम और दर्शन एक-दूसरे के बहुत करीब हैं। कई बार ‘प्रेम’ के रास्ते ‘दर्शन’ की खोज हो जाती है तो कई बार ‘दर्शन’ की तलाश करते मिल जाता है ‘प्रेम’। आशीष लिखते हैं “लिख रहा हूँ क्योंकि कुछ बेहद घनी रातें तुम्हें सोचते हुए गुजरती हैं/ कुछ घनी रातों में कविताएं जन्म लेती हैं/ कुछ घनी रातों में जीवन की अवधि बढ़ जाती है / और कुछ बेहद घनी रातों में ही समझ आते हैं जीवन के गूढ़ मायने भी / इसलिए जीवन को समझने के लिए/ समझने के लिए प्रेम/ लिख रहा हूँ मैं।“
 
हालात जब दूरियाँ पैदा करें तब (पहले के समय में) चिट्ठियाँ या (अब के समय में) फ़ोन, दूरी के दर्द को बहुत हद तक कम करने का काम करते हैं। ऐसी ही किसी रात, नींद न आने की स्थिति में कवि लिखता है “मैं निवेश कर रहा हूँ अपनी नींदें/ तुम्हारे ख़्वाबों में/ नफ़ा-नुकसान सोचे बगैर/ यूँ भी प्रेम कोई सौदा तो नहीं।“ और जैसे बागबान फ़िल्म में अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी के लिए गाते हैं “मैं यहाँ तू वहाँ, जिंदगी है कहाँ।“ वैसे ही कवि अपनी प्रेमिका को कहता है “यकीन करो/ यहाँ मैं भी कमोबेश उसी हालत में हूँ/ शहर की भीड़ में अकेला सा/ जैसे कई कागज़ों के बीच रह जाता है एक कागज़/ दबा हुआ सा/ मुड़ा हुआ सा / कागज़ों की तह बिगाड़ता हुआ।“ और फिर थोड़ी शरारत करते हुए लिखते हैं  “खैर,/ सुनो! पिछले दिनों भेजा है एक और ख़त मैंने/ पढ़ना, संभालकर रखना या फाड़ देना/ क्या पता किस काम आ जाये वो/ हंसने-मुस्कुराने के,/ अलाव तापने के या फिर/ तुम्हारी आँखों की नमी हटाने के।“
 
विरह की स्थिति में हमारी प्रिय चीज भी हमें अच्छी नहीं लगती। जिस पहाड़ के प्रेम में कवि सब-कुछ छोड़ कर पहाड़ों में लौटने की बात करता है, प्रेम में विरह आते ही यह ‘दूरी’ उसे पहाड़ की तरह लगने लगती है जिसे वह धीरे-धीरे काटना चाहता है। “ये जो दूरियां हैं न, ये एक पहाड़ हैं / इसे वक्त की नर्म कैंची से काटना है हमें /इंतजार की सुई से खोदनी हैं इसकी जड़ें / और फिर उम्मीद के हाथों मसल देनी है इसकी मिट्टी।/ .... / मेरी उँगलियाँ तुम्हारी उंगलियों से मिल जाएंगी ऐसे/ कि बन जाएगा एक पुल/ जिस पर चल सकेंगे कुछ नन्हें स्वप्न / हम दोनों के। /.... / कहीं दूर उस पार फिर/ पीले सूरज के आखिरी छोर के बाद/ चाँद खोलेगा दरवाजा/ हमारी नई जिंदगी के लिए।“ न जाने क्यों इसे पढ़ते हुए हर बार यही लगता है कि इस कविता की आखिरी पंक्ति पाठकों को लिखनी है और वह है “आमीन”। कुछ कविताओं की डीएनए एक जैसी होती है। इस कविता की पंक्ति “ये जो दूरियां हैं न, ये एक पहाड़ हैं” को पढ़ते हुए आंधी फ़िल्म से गुलज़ार का लिखा संजीव कुमार की आवाज में डॉयलाग जैसे अपने-आप ही कानों में बजने लगता है “सुनो आरती, ये जो फूलों की बेलें नजर आती हैं ना, ये दरअसल अरबी में आयतें लिखी हुई हैं। इन्हें दिन के वक़्त देखना। बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं। दिन के वक़्त ये पानी से भरा रहता है।.. .. .. .. .. .. .. .. .. .. ..“   
   
समय सदा एक सा नहीं रहता। दूरियाँ घटती हैं। विरह की आंच में ठोस से तरल हो चुके प्रेम को वापस ठोस होने के लिए कुछ समय चाहिए। कवि अपनी प्रेमिका को आश्वस्त करते हुए कहता है “तुम अगर अपनी नर्म हथेलियों को/ मेरे रूखे हाथों में रखने का साहस कर सको/ तो मैं तुम्हारी उन हथेलियों पर/ चाँद उगाने की कोशिश जरूर करूँगा/ तुम अगर छाँव में बढ़ सको दो पग मेरी ओर/ तो बाकी के असंख्य पग/ मैं धूप पर सवार होकर तय कर लूँगा।“   इस विरह ने कवि को उतावला भी कर दिया है और सशंकित भी। इसलिए कवि और अधिक समय जाया न करने की बात करते हुए कहता है “मुमकिन है कि मेरे शब्द कल बर्फ़ हो जाएं / और तुम्हारे स्वप्न देहमुक्त/ तो क्यों न हम आज ही बंध जाएं एक-दूसरे की उंगलियों से/ कि हर रोज़ झील में नहीं उतरते तारे/ कि हर रोज़ पेड़ नहीं गिराते फूल हमारे लिए/ कि हर रोज़ हथेलियों पर नहीं उगा करते चाँद।“ 

कवि की इस आश्वासन का नतीजा निकलता है। दिलों के बीच जो कुछ कदमों का फासला है, धीरे-धीरे मिटता है और प्रेम से फूटे इंद्रधनुष जैसी इस घड़ी को कवि जैसे अपनी यादों में हमेशा के लिए समेट लेना चाहता है “मेरे पास कुछ उदास पन्ने हैं/ और तुम्हारे पास हैं बेशुमार रंगीन पेंसिलें/ अब हमारे मिलने की जगह पर/ एक इंद्रधनुष उग आना चाहिए।/ हमारे बाद,/ न तुम्हारी रंगीन पेंसिलों में रंग ठहरे/ ना बाकी रहे मेरे पास कोरे पृष्ठ/ रहे तो बस ये इंद्रधनुष।“

लंबे विरह के बाद मिलना, प्रेमी को बेफ़िक्र बना ही देता है “तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में है / और हमारे कदमों में आ बसी है एक ताल / इस समय हम सबसे बेफ़िक्र प्राणी हैं / और नील दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह।“ लंबे इंतजार के बाद मिले इस प्रेम के लिए कवि अपना समर्पण जताते हुए कहता है “बल का जितना हक़ ऊर्जा पर होता है / स्वाद का जितना हक़ होता है नमक पर/ कुछ उतना ही हक़ हमारा एक दूसरे पर है/ न जरूरत से ज़्यादा, ना अधिकार से कम/ एक ऐसा हक़ जो किसी पैमाने से परे है।/ जैसे बेहद निजी संवादों पर एकांत का हक़ होता है/ तुम्हारे जीवन के कुछ खुशनुमा पलों पर अधिकार है मेरा/ और मेरे जीवन की कुछ चुनिंदा कविताओं पर / सिर्फ तुम्हारा हक़ है।“

कवि की इस प्रेम कहानी से गुजरते हुए, पाठक अभी प्रेम की कई और परतों के खुलने की प्रतीक्षा कर रहा होता है लेकिन तभी किताब खत्म हो जाती है और जैसे कहीं से आवाज़ आती है “कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त।“ और इसके साथ ही इंतजार शुरू होता है पाठक का, आशीष नैथानी की अगली कविता संग्रह के लिए।
   
आज का युवा राजनीति से उदासीन होता जा रहा है। राजनीति के स्तर में गिरावट आई है और येन-केन प्रकारेण सिर्फ अपने हित की ही बात सोचना, राजनेताओं का उद्देश्य; इसे देखते हुए उम्मीद की कोई किरण तो नहीं नज़र आती, हाँ कवि की कविताओं में, साहित्यकारों की रचनाओं में यह उदासी, यह  बेबसी, यह क्षोभ दिखता है। आशीष लिखते हैं “नेता की रैली में बुलाए जाते हैं लोग/ दूर गाँव-खेड़ों से। / कभी फ़िल्मस्टार का लालच देकर/ रिझाए जाते हैं / तो कुछ लोग खुद चले आते हैं। / भले-भोले लोग/ खेत-खलिहान छोड़ ख़्वाब सजाने/ रैलियों में चले आते हैं।/ नेता चुस्त-दुरुस्त लगता है/ लोग थके-हारे लगते हैं। / नेता जीतता है और सेलिब्रिटी हो जाता है/ जिस चौराहे से गुजरता है,/ रोक दिया जाता है ट्रैफ़िक / वोटिंग से पहले मुनादी कर-करके बुलाता है/ और चुनाव जीतता है / तो अनरीचेबल हो जाता है।” आम से खास बनते ही जनता की समस्याएं उसे याद नहीं रहतीं, उसे अपने आनेवाली नस्लों तक के लिए धन जमा करने की जल्दी होती है लेकिन आम-जनता क्या करे। वह इस इंतजार में तो नहीं रह सकती कि “कबहुँ तो दीनानाथ के, भनक पड़ेगी कान” इसलिए आशीष लिखते हैं “क्योंकि किसी मंत्री-मुख्यमंत्री के अकर्मण्य हो जाने पर / नहीं बैठ सकती जनता हाथ पर हाथ धरे/ लोकतंत्र का राज चौपट भी हो जाए फिर भी / जनता को करनी होती हैं तमाम व्यवस्थाएं साँझ से पहले/ क्योंकि भूख को टाला नहीं जा सकता।“

संसद और विधानसभाओं में माननीयों के अस्वीकार्य आचरण से क्षुब्ध कवि लिखते हैं कि ऐसा ही आचरण उनके साथ जनता भी करने को विवश हो सकती है “जूते और चप्पलों से लिखी जा रही है/ असहमति की एक भाषा प्रतिदिन/ कि काली स्याही से रंगे जा रहे हैं/ चेहरों के पृष्ठ/ और फाड़े जा रहे हैं वस्त्र, संसद में।/ याद रखें कि बच्चे होते है बहुत क्रिएटिव/ जब कल वे असहमति की अपनी भाषा गढ़ेंगे/ तो टोकिएगा मत/ कि अब ज़माना बिगड़ गया है।“

हालात से निराश और अपनी बेबसी से व्यथित कवि इतनी ही आशा कर सकता है कि सारे नेता आपस ही में लड़-मरें “लड़ो कि लड़-लड़कर लहूलुहान हो जाओ/ निचोड़ दो एक-दूसरे के खून का कतरा-कतरा / ताकि जब गंगा इस दूषित रक्त को बहा ले जाए/ तो अगली बरसात के बाद खिलें कुछ नये पुष्प/ कुछ नयी खुशबुओं का जन्म हो / नई उम्मीदें पैदा हों / और जो सपने अधूरे रह गए हैं/ उन्हें पूर्णता प्राप्त हो।“ हालांकि कवि यह नहीं जानता कि नेता की प्रजाति, रक्तबीज़ की है और इसकी हर आने वाली नस्ल, पहले से ज्यादा रक्त पिपासु, ऐसे में किसी बदलाव की उम्मीद फिलहाल तो दिवास्वप्न  ही है।

संग्रह की कुछ कविताएं सूक्तियों की तरह हैं, छोटी लेकिन बहुत प्रभावी, बहुत महत्वपूर्ण। घर बनाने की प्रक्रिया के बारे में लिखते हैं “घर बनाने में सिर्फ पूँजी नहीं लगती / एक पूरा जीवन लगता है।“ इसे वही समझ सकता है जिसने इस कार्य का खुद अनुभव किया हो। मेहनतकश लोगों की खुरदरी एड़ियों के बारे में लिखते हैं  “कोमल हथेलियों का /कोई राज़ हो न हो / खुरदुरी एड़ियों का अपना वृहद इतिहास /जरूर होता है”। भाषा के लिए लिखते हैं “किसी भाषा का खो जाना / सिर्फ़ कुछ शब्दों की मौत नहीं / एक समाज विशेष/ संस्कृति विशेष का स्वाह हो जाना है”। इस कविता को पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह की पंक्ति याद आती है “जैसे चींटियाँ लौटती हैं/ बिलों में/ कठफोड़वा लौटता है/ काठ के पास/ वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक/ लाल आसमान में डैने पसारे हुए/ हवाई-अड्डे की ओर/ ओ मेरी भाषा/ मैं लौटता हूँ तुम में/ जब चुप रहते-रहते/ अकड़ जाती है मेरी जीभ/ दुखने लगती है/ मेरी आत्मा”। 

अमूमन ऐसा होता है कि प्रसिद्ध और श्रेष्ठ कवियों की भी यादगार और संग्रहणीय कविता संग्रह उनके लेखन के आरंभिक समय में नहीं आती। लेकिन आशीष नैथानी की कविता संग्रह ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं’ इसका अपवाद है। अमूमन एक अच्छे कविता संग्रह में भी किसी पाठक की दृष्टि से हर कविता ऐसी नहीं होती जो पढ़ते समय पाठक को रोक ले। कुछ कविताएं ऐसी होती हैं।  ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं’ संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जिन्हें पढ़ते समय मैं बार-बार रुका, रुकना पड़ा। काले स्याही से लिखे गए शब्दों को पढ़कर तो फिर भी, आगे बढ़ जाया जाए लेकिन अदृश्य अक्षरों में जो भावनाएं इन कविताओं से साथ चस्पा हैं, वे बार-बार पाठक को यूँ रोक लेती हैं जैसे मैदानी क्षेत्र का सैलानी, पहाड़ी क्षेत्र में जा कर नदी और पहाड़ के सौन्दर्य में बंध जाता है। कविताओं की भाषा सरल लेकिन प्रभावी है। बिम्ब के लिए कई जगहों पर पहाड़ी शब्दों का चयन किया गया है जिससे इन कविताओं में मिट्टी की खुशबू बरकरार है। इन कविताओं का विषय, और इन विषयों का जिस खूबसूरती से निर्वाह किया गया है, उसे देखते हुए यकीन करना मुश्किल होता है कि कवि ने अभी अपने जीवन के तीन दशक भी पूरे नहीं किए हैं। इनके उम्र को देखते हुए लगता है जैसे बोन्साई पौधे पर मीठे-मीठे फल लगे हैं; हालांकि बोन्साई पौधे की बस ऊंचाई ही कम होती है, उम्र कम नहीं होती। आशीष नैथानी की कविताओं में पहाड़ों से आती हुई ताज़ी हवा की सुगंध है, पहाड़ों की खूबसूरती है और उसका दर्द भी, शहद सी मिठास है तो जड़ी-बूटी की कड़वाहट भी जो हमारी ही किसी विकार को ठीक करने के काम आती है। कविता के लिए कवि ने लिखा है “कवियों के लिए बेशक/ कुछ शब्द बन पड़ें कविता का रूप/ मगर विश्व का हर व्यक्ति, हर प्राणी /हर घड़ी, कविता न रचते हुए भी/ रच रहा होता है, अपने हिस्से की अनूठी कविताएँ”। आशीष शब्दों से कविताएं तो लिख ही रहे हैं लेकिन अपने संघर्षों से भी हर दिन एक नई कविता रच रहे हैं। ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं’, एक ऐसा संग्रह है जिसे पढ़ते हुए पाठक अपने-आप को इन कविताओं द्वारा रचे गए दृश्यों से जुड़ा हुआ पाएंगे और एक कवि के तौर पर आशीष नैथानी अपने जीवन के किसी भी पड़ाव पर इस संग्रह पर अपना नाम देखकर गर्व की ही अनुभूति करेंगे।


- प्रवीण प्रणव निदेशक,
प्रोग्राम मैनेजमेंट) माइक्रोसॉफ्ट,
कवि, कहानीकार, समीक्षक, संपादक ,
Email : praveen.pranav@gmail.com 
Cell: 9908855506    

COMMENTS

Leave a Reply
नाम

अंग्रेज़ी हिन्दी शब्दकोश,3,अकबर इलाहाबादी,11,अकबर बीरबल के किस्से,62,अज्ञेय,37,अटल बिहारी वाजपेयी,1,अदम गोंडवी,3,अनंतमूर्ति,3,अनौपचारिक पत्र,16,अन्तोन चेख़व,2,अमीर खुसरो,7,अमृत राय,1,अमृतलाल नागर,1,अमृता प्रीतम,5,अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध",7,अली सरदार जाफ़री,3,अष्टछाप,4,असगर वज़ाहत,11,आनंदमठ,4,आरती,11,आर्थिक लेख,8,आषाढ़ का एक दिन,22,इक़बाल,2,इब्ने इंशा,27,इस्मत चुगताई,3,उपेन्द्रनाथ अश्क,1,उर्दू साहित्‍य,179,उर्दू हिंदी शब्दकोश,1,उषा प्रियंवदा,5,एकांकी संचय,7,औपचारिक पत्र,32,कक्षा 10 हिन्दी स्पर्श भाग 2,17,कबीर के दोहे,19,कबीर के पद,1,कबीरदास,19,कमलेश्वर,7,कविता,1478,कहानी लेखन हिंदी,17,कहानी सुनो,2,काका हाथरसी,4,कामायनी,6,काव्य मंजरी,11,काव्यशास्त्र,40,काशीनाथ सिंह,1,कुंज वीथि,12,कुँवर नारायण,1,कुबेरनाथ राय,2,कुर्रतुल-ऐन-हैदर,1,कृष्णा सोबती,3,केदारनाथ अग्रवाल,4,केशवदास,6,कैफ़ी आज़मी,4,क्षेत्रपाल शर्मा,53,खलील जिब्रान,3,ग़ज़ल,139,गजानन माधव "मुक्तिबोध",15,गीतांजलि,1,गोदान,7,गोपाल सिंह नेपाली,1,गोपालदास नीरज,10,गोरख पाण्डेय,3,गोरा,2,घनानंद,3,चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,6,चमरासुर उपन्यास,7,चाणक्य नीति,5,चित्र शृंखला,1,चुटकुले जोक्स,15,छायावाद,6,जगदीश्वर चतुर्वेदी,17,जयशंकर प्रसाद,35,जातक कथाएँ,10,जीवन परिचय,77,ज़ेन कहानियाँ,2,जैनेन्द्र कुमार,7,जोश मलीहाबादी,2,ज़ौक़,4,तुलसीदास,28,तेलानीराम के किस्से,7,त्रिलोचन,4,दाग़ देहलवी,5,दादी माँ की कहानियाँ,1,दुष्यंत कुमार,7,देव,1,देवी नागरानी,23,धर्मवीर भारती,12,नज़ीर अकबराबादी,3,नव कहानी,2,नवगीत,1,नागार्जुन,25,नाटक,1,निराला,39,निर्मल वर्मा,4,निर्मला,42,नेत्रा देशपाण्डेय,3,पंचतंत्र की कहानियां,42,पत्र लेखन,202,परशुराम की प्रतीक्षा,3,पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र',4,पाण्डेय बेचन शर्मा,1,पुस्तक समीक्षा,141,प्रयोजनमूलक हिंदी,38,प्रेमचंद,50,प्रेमचंद की कहानियाँ,91,प्रेरक कहानी,16,फणीश्वर नाथ रेणु,4,फ़िराक़ गोरखपुरी,9,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,24,बच्चों की कहानियां,88,बदीउज़्ज़माँ,1,बहादुर शाह ज़फ़र,6,बाल कहानियाँ,14,बाल दिवस,3,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',1,बिहारी,8,बैताल पचीसी,2,बोधिसत्व,9,भक्ति साहित्य,143,भगवतीचरण वर्मा,7,भवानीप्रसाद मिश्र,3,भारतीय कहानियाँ,61,भारतीय व्यंग्य चित्रकार,7,भारतीय शिक्षा का इतिहास,3,भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,10,भाषा विज्ञान,18,भीष्म साहनी,9,भैरव प्रसाद गुप्त,2,मंगल ज्ञानानुभाव,22,मजरूह सुल्तानपुरी,1,मधुशाला,7,मनोज सिंह,16,मन्नू भंडारी,10,मलिक मुहम्मद जायसी,9,महादेवी वर्मा,20,महावीरप्रसाद द्विवेदी,3,महीप सिंह,1,महेंद्र भटनागर,73,माखनलाल चतुर्वेदी,3,मिर्ज़ा गालिब,39,मीर तक़ी 'मीर',20,मीरा बाई के पद,22,मुल्ला नसरुद्दीन,6,मुहावरे,4,मैथिलीशरण गुप्त,14,मैला आँचल,8,मोहन राकेश,16,यशपाल,19,रंगराज अयंगर,43,रघुवीर सहाय,6,रणजीत कुमार,29,रवीन्द्रनाथ ठाकुर,22,रसखान,11,रांगेय राघव,2,राजकमल चौधरी,1,राजनीतिक लेख,21,राजभाषा हिंदी,66,राजिन्दर सिंह बेदी,1,राजीव कुमार थेपड़ा,4,रामचंद्र शुक्ल,3,रामधारी सिंह दिनकर,25,रामप्रसाद 'बिस्मिल',1,रामविलास शर्मा,9,राही मासूम रजा,8,राहुल सांकृत्यायन,2,रीतिकाल,3,रैदास,4,लघु कथा,125,लोकगीत,1,वरदान,11,विचार मंथन,60,विज्ञान,1,विदेशी कहानियाँ,34,विद्यापति,8,विविध जानकारी,1,विष्णु प्रभाकर,3,वृंदावनलाल वर्मा,1,वैज्ञानिक लेख,8,शमशेर बहादुर सिंह,6,शमोएल अहमद,5,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय,1,शरद जोशी,3,शिक्षाशास्त्र,6,शिवमंगल सिंह सुमन,6,शुभकामना,1,शेख चिल्ली की कहानी,1,शैक्षणिक लेख,57,शैलेश मटियानी,3,श्यामसुन्दर दास,1,श्रीकांत वर्मा,1,श्रीलाल शुक्ल,4,संयुक्त राष्ट्र संघ,1,संस्मरण,34,सआदत हसन मंटो,10,सतरंगी बातें,33,सन्देश,44,समसामयिक हिंदी लेख,270,समीक्षा,1,सर्वेश्वरदयाल सक्सेना,19,सारा आकाश,22,साहित्य सागर,22,साहित्यिक लेख,88,साहिर लुधियानवी,5,सिंह और सियार,1,सुदर्शन,3,सुदामा पाण्डेय "धूमिल",10,सुभद्राकुमारी चौहान,7,सुमित्रानंदन पन्त,23,सूरदास,16,सूरदास के पद,21,स्त्री विमर्श,11,हजारी प्रसाद द्विवेदी,4,हरिवंशराय बच्चन,28,हरिशंकर परसाई,24,हिंदी कथाकार,12,हिंदी निबंध,438,हिंदी लेख,536,हिंदी व्यंग्य लेख,14,हिंदी समाचार,186,हिंदीकुंज सहयोग,1,हिन्दी,7,हिन्दी टूल,4,हिन्दी आलोचक,7,हिन्दी कहानी,32,हिन्दी गद्यकार,4,हिन्दी दिवस,91,हिन्दी वर्णमाला,3,हिन्दी व्याकरण,45,हिन्दी संख्याएँ,1,हिन्दी साहित्य,9,हिन्दी साहित्य का इतिहास,21,हिन्दीकुंज विडियो,11,aapka-banti-mannu-bhandari,6,aaroh bhag 2,14,astrology,1,Attaullah Khan,2,baccho ke liye hindi kavita,70,Beauty Tips Hindi,3,bhasha-vigyan,1,chitra-varnan-hindi,3,Class 10 Hindi Kritika कृतिका Bhag 2,5,Class 11 Hindi Antral NCERT Solution,3,Class 9 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 1,17,Class 9 Hindi Sparsh,15,divya-upanyas-yashpal,5,English Grammar in Hindi,3,formal-letter-in-hindi-format,143,Godan by Premchand,12,hindi ebooks,5,Hindi Ekanki,20,hindi essay,430,hindi grammar,52,Hindi Sahitya Ka Itihas,105,hindi stories,682,hindi-bal-ram-katha,12,hindi-gadya-sahitya,8,hindi-kavita-ki-vyakhya,19,hindi-notes-university-exams,77,ICSE Hindi Gadya Sankalan,11,icse-bhasha-sanchay-8-solutions,18,informal-letter-in-hindi-format,59,jyotish-astrology,24,kavyagat-visheshta,26,Kshitij Bhag 2,10,lok-sabha-in-hindi,18,love-letter-hindi,3,mb,72,motivational books,12,naya raasta icse,9,NCERT Class 10 Hindi Sanchayan संचयन Bhag 2,3,NCERT Class 11 Hindi Aroh आरोह भाग-1,20,ncert class 6 hindi vasant bhag 1,14,NCERT Class 9 Hindi Kritika कृतिका Bhag 1,5,NCERT Hindi Rimjhim Class 2,13,NCERT Rimjhim Class 4,14,ncert rimjhim class 5,19,NCERT Solutions Class 7 Hindi Durva,12,NCERT Solutions Class 8 Hindi Durva,17,NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan वितान भाग 1,3,NCERT Solutions for class 12 Humanities Hindi Antral Bhag 2,4,NCERT Solutions Hindi Class 11 Antra Bhag 1,19,NCERT Vasant Bhag 3 For Class 8,12,NCERT/CBSE Class 9 Hindi book Sanchayan,6,Nootan Gunjan Hindi Pathmala Class 8,18,Notifications,5,nutan-gunjan-hindi-pathmala-6-solutions,17,nutan-gunjan-hindi-pathmala-7-solutions,18,political-science-notes-hindi,1,question paper,19,quizzes,8,raag-darbari-shrilal-shukla,8,Rimjhim Class 3,14,samvad-lekhan-in-hindi,6,Sankshipt Budhcharit,5,Shayari In Hindi,16,skandagupta-natak-jaishankar-prasad,6,sponsored news,10,suraj-ka-satvan-ghoda-dharmveer-bharti,6,Syllabus,7,tamas-upanyas-bhisham-sahni,4,top-classic-hindi-stories,59,UP Board Class 10 Hindi,4,Vasant Bhag - 2 Textbook In Hindi For Class - 7,11,vitaan-hindi-pathmala-8-solutions,16,VITAN BHAG-2,5,vocabulary,19,
ltr
item
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: शब्द तुम्हारा जिक्र करते हैं - आशीष नैथानी
शब्द तुम्हारा जिक्र करते हैं - आशीष नैथानी
आशीष नैथानी की काव्य संग्रह ‘शब्द तुम्हारा ज़िक्र करते हैं“ से गुजरते हुए, जिसे रुद्रादित्य प्रकाशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है। 67 कविताओं का यह सं
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicL4VesasYA_mQarOeCgvyWukHapGDPFDbTU1veqzRWU9GjLhw_RgM32udEiEAedEWgBgLJMtz0oTCjjIjNEG-9uPewhQ161beWvXGtw7wuqPVjTvBedDbzEsm1-rzHTgHHulbiHKgG6AeqEEmMa0QkRfl6PKDWkcHF9Ubhdlvr51k1l3lhFkwsr19Q4wx/w320-h250/shabd-tumhara.jpg
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicL4VesasYA_mQarOeCgvyWukHapGDPFDbTU1veqzRWU9GjLhw_RgM32udEiEAedEWgBgLJMtz0oTCjjIjNEG-9uPewhQ161beWvXGtw7wuqPVjTvBedDbzEsm1-rzHTgHHulbiHKgG6AeqEEmMa0QkRfl6PKDWkcHF9Ubhdlvr51k1l3lhFkwsr19Q4wx/s72-w320-c-h250/shabd-tumhara.jpg
हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika
https://www.hindikunj.com/2023/07/shabd-tumhara-zikr-karte-hain.html
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/
https://www.hindikunj.com/2023/07/shabd-tumhara-zikr-karte-hain.html
true
6755820785026826471
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका