नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाब। समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।। साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।प्रेमी-युगल का विग्
तुअ बिनु अनुखन विकल मुरारि - पद्मश्री उषाकिरण खान
प्राञ्जल और अत्यन्त सुंदर भाषा शैली में लिखी इस उत्कृष्ट कहानी में सभी औपन्यासिक तत्त्वों का समावेश है, एक औपन्यासिक भाव-दशा है । एक कहानी के माध्यम से ही लेखिका ने स्त्री जीवन के सभी पड़ावों को - बचपन से प्रौढ़ावस्था तक की सम्पूर्ण जीवन यात्रा को वर्णित किया है। स्त्री मन के अंतर्द्वंद्वों को, दुविधाओं को, खींचा-तानी को इतनी गहराई से, दक्षता के साथ तो केवल शरत बाबू ही दर्शा सकते थे। शरत बाबू के सामान ही, लेखिका ने भी सती-सावित्री, असूर्यम्पश्या स्वरूप को ही स्त्री का एकमात्र आदर्श नहीं माना है। क्षणिक दुर्बलताएं कभी-कभी बलवती हो जाती हैं, कभी-कभी प्रयास करने पर भी भावनाओं को नियंत्रित करना असंभव सा हो जाता है। फिर, स्त्री भी तो हाड-मांस की बनी मनुष्य है, वैसी ही जैसा एक पुरुष।
मैथिल कोकिल, महापंडित विद्यापति की पदावली की पंक्ति पर आधारित शीर्षक, कहानी पढ़ने की उत्सुकता को कई गुना बढ़ा देता। यह कहानी है पटना शहर में बसे एक समृद्ध शिक्षित प्रवासी बंगाली परिवार की कन्या , "डॉ रागिनी बासु, एम.ए., पी.एच.डी मनोविज्ञान , डी. लिट्. संगीत, अध्यक्ष मनोविज्ञान विभाग " की, जिसका बचपन बीता प्रासादनुमा विशाल हवेली में, अपनी दृढ़ व्यक्तित्व वाली दादी सौदामिनी बासु के संरक्षण में।
"बड़े-बड़े पत्थरों से पटे दो आँगन थे। पहले आँगन में कई बड़े-बड़े कमरे थे, विस्तृत बरामदे थे ऊँचे-से ......बड़े कमरों में बड़े-बड़े शीशों वाले दरवाज़े थे, रोशनदान, मैंटलपीस, फायर प्लेस वगैरह थे ....आँगन के पार उगे झाड़ों के बीच हॉल तक एक पक्का तालाब था। चार सीढ़ियों वाले घाट में बंधा था वह तालाब। तालाब के पश्चिम में एक इमारत थी। वह इमारत दो मंज़िल वाला एक पुस्तकालय था...."
सख्त अनुशासन में पली-बड़ी रागिनी ने बचपन से ही कभी खुल कर जीना न सीखा, उन्मुक्त ह्रदय से अट्टहास न कर सकी, खुले नीलाकाश तले विस्तृत हरीतिमा पर कभी दौड़ न सकी, सदैव ही दबी-दबी सी रही । स्लेट पेंसिल पकड़ने के साथ ही रागिनी को शास्त्रीय गायन की शिक्षा भी दी जाने लगी।
"मुझे और मेरे भाई रजत को आँखों -आँखों में पाला जाता। हम सामान्य बच्चों के साथ देर तक बाहर खेलते नहीं रह सकते थे। हम मल्लिक बाबू के सुसम्पन्न भद्र परिवार के वंशज थे हमारा समय चौखटों में बंटा था। उन खानों में मुश्किल से अपनी आँखों से देखने , अपनी मरजी से चार कदम चलने की सुविधा मिल पाती। "
विद्यालय में एक गरीब पंजाबी ट्रक ड्राइवर की बेटी सुखबीर से रागिनी की मैत्री हो जाती है और इसी सुखबीर के साथ रह कर रागिनी जीवन का सही अर्थ समझने लगती है, अपने इर्द गिर्द के जगत को जान समझ पाती है। दोनों साथ बगीचे मैं दौड़ते ,.... तालाब के किनारे दौड़ते, वहाँ चहचहाती चिड़ियों के झुरमुटों में, भागते गिरगिट, छोटे-बड़े चूहे, चुहिया, नेवले, अपने नन्हे हाथों से अमरुद पकड़कर कुतरती गिलहरी जैसे असंख्य जीवों को निकट से देखने परखने का मौक़ा उसे अपने अहाते में ही सुखबीर के सौजन्य से मिला। सुखबीर के सान्निध्य ने ही रागिनी को जीवन-रस के मिठास का आस्वादन कराया । वह अब अनुभूतिशून्य न रही परन्तु फिर भी अनतर्मुखी ही बनी रही।
"आज के बच्चे, आज इस माहौल में पली किशोरियां कभी नहीं जान पाएंगी कि अनन्तमराल मल्लिक कि परनतिनी का एक फटेहाल लड़की के हाथ में हाथ डालकर दौड़ते फिरना पचास के दशक में सेवकों को कितना- कितना चकित करता था "
रागिनी की दादी का स्वर्गवास हो गया और उसकी माता ने घर-गृहस्थी में दादी की जगह ले ली। रागिनी और सुखबीर कॉलेज में आ गईं परन्तु रागिनी अनतर्मुखी ही बनी रही, वह सदा निर्लिप्त ही रहती। पढ़ाई और शास्त्रीय संगीत में डूबी "नियत धारा पर अपने मन को तिनके की भाँती छोड़ दिया था।" गरीब सुखबीर के विपरीत, रागिनी का कोई ठोस उद्देश्य नहीं था जीवन में, कोई स्थिर लक्ष्य भी नहीं था जिसे साधने हेतु उसे संघर्ष करना पड़े। वह निर्वाक दर्शक बन, अपने आसपास होने वाली गतिविधियों को, घटनाओं को निहारती रहती।
विवाह के लिए कई सम्बन्ध आते परन्तु माता पिता की उच्चाकांक्षाओं के कारण बात पक्की न हो पाती। रागिनी आकाशवाणी में भी गाने लगी थी, शहर के शिक्षित, कलाप्रेमी सस्माज में उसकी पहचान बढ़ने लगी लगी थी, परन्तु एक सुखबीर के अलावा वह एकाकिनी ही थी। सुखबीर मेडिकल की पढ़ाई में व्यस्त हो गई और रागिनी एम.ए. पढ़ती हुई प्रायः अकेली ही रह गई, वह नई सहेलियां न बना पाई। हाँ, इस निभृत, निर्जन, विजन ह्रदय ने विश्वविद्यालय के एक युवा प्राध्यापक के प्रति घोर आकर्षण का अनुभव अवश्य किया। उनका सान्निध्य रागिनी को भाता, उसके हृदय का गोपन कोण आर्द्र हो उठता।
उधर रागिनी के माता पिता भी चल बसे, भाई विदेश में बस चुका था। रागिनी अब महिला महाविद्यालय में व्याख्याता बन चुकी थी। उसके भाई ने कई बार रागिनी से अपने लिए जीवनसाथी तलाशने को कहा, परन्तु अपने में सीमित रहने वाली, अंतर्मुखी, घोर निर्लिप्त रागिनी के लिए यह शायद संभव ही न था। प्रेम का अनुभव भी उसे अवश्य हुआ था । उसी युवा प्राध्यापक के पर्यवेक्षणाधीन उसने अपना शोध कार्य पूर्ण किया। दोनों एक दूसरे के बहुत समीप आ चुके थे। यह जानते हुए भी कि वह प्राध्यापक विवाहित है, रागिनी अपने को रोक न पाई । जिसके यौवन का प्रारम्भिक काल पूर्णतः निस्संग ही बीता, जिसने कभी यौवन के उन्माद और मादकता का अनुभव नहीं किया,वह अपने एकाकी हृदय को कब तब संभालती, कब तक ह्रदय को वज्रकठोर बना रखती । तीस वर्ष की आयु में पहुँच इस मीठे आकर्षण ने रागिनी पर एक फंदा कस दिया था, वह निकल न पाई । मोहपाश में जकड ही गई, आवेग के इस महाज्वार में वह विसर्जित हो गई । उसी की सहमति ने प्राध्यापक के काँपते हुए इरादों को दृढ़ता प्रदान की, उनके हौसले को सख्त-पुष्ट कर दिया । रागिनी ने अपने को समर्पित कर दिया। "मेरे हाथ में कुछ न था। सोचने समझने को धरा ही क्या था। किसी की स्वीकृति की आवश्यकता कहाँ थी ? मैंने स्वयं लपककर छलांग लगाई। पक्षीराज घोड़े पर राजकुमार की बाहों में आ गई। लगा मैं सार्थक हो गई हूँ । मेरा स्वर तृप्त हो उठा है।"
लेखिका ने अत्यन्त विचक्षणता से रागिनी की इस दुर्बलता का, मोहपाश में बंधी इस मनोदशा का चित्रण किया है। उन्होंने रागिनी की इस दुर्बलता को चारित्रिक पतन के रूप में नहीं दर्शाया है। सती-सावित्री, असूर्यम्पश्या रूप ही स्त्री का पूर्ण सत्य नहीं। लेखिका प्रेम को अपने आप में अवैध नहीं मानती हैं ।प्रेम, मन का अत्यंत सुन्दर भाव है, प्रेम उदात्त है , भव्य है, प्रेम दाता है अतः वह अवैध हो ही नहीं सकता है और प्रेम में शरीर का समावेश भी अनुचित नहीं । हम आत्मवाद का कितना भी जयघोष क्यों न करें पर शरीर के अस्तित्व को थोड़े ही नकार सकते हैं ? शरीर भी तो सत्य है । विदेही मन या भावनाहीन शरीर - दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं।
एक दिन अकस्मात रागिनी को यह ज्ञात होता है कि वह प्राध्यापक उसी की पुरानी सहेली, मनोर, के पति है। सब कुछ जानती समझती हुई भी रागिनी अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाती है या शायद वह करना ही नहीं चाहती हो । न वह उस प्राध्यापक को विवश करती है कि वह उससे विवाह करें और न ही वह स्वयं किसी और से विवाह करती है । वह प्राध्यापक से कहती है - "आपके प्यार का संगीत मुझमे लय का जन्म दे रहा है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"
अपने प्रेमी ( प्राध्यापक ) के कहने पर ही रागिनी गायन क्षेत्र में भी अधिक नहीं बढ़ पाई, क्योंकि उनको रागिनी के यूँ सर्वसमक्ष मंच पर आने से आपत्ति थी। रागिनी स्वयंपूर्णा,स्वयंसिद्धा होते हुए भी अपने प्रेमी की बात मान लेती है....यह जानते हुए भी कि यह व्यक्ति उसे कभी सामाजिक मान्यता नहीं दे पाएगा। वर्षों बाद ,जब प्राध्यापक के बच्चे कॉलेज में पढ़ने हेतु दूसरे शहर चले जाते हैं तब उन्होंने रागिनी को अपनाना चाहा, पूर्ण सामाजिक मान्यता के साथ ...उन्होंने रागिनी को विवाह का प्रस्ताव भी दिया परन्तु सदा निर्लिप्त स्वभाव वाली रागिनी ने ही यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया । उसके लिए यह पर्याप्त था कि उस पुरुष की छवि उसके मन मंदिर के उच्चासन पर विराजमान रहे , सदा देदीप्यमान रहे, जाज्वल्यमान रहे। इस घोर अन्तर्मुखी स्वयम्पूर्णा स्त्री के लिए शायद सामजिक मान्यताओं का कोई विशेष महत्त्व ही नहीं था , उसके लिए ये सब केवल आडम्बार ही थे। सच्चा प्रेम बाँधता नहीं अपितु मुक्त करता है। रागिनी ने भी अपने प्रेमी को मुक्त कर दिया ..... जिसके आकर्षण में आजीवन बंधी रही उसी को मुक्त कर दिया । वह अपने प्रेमी से कहती है - "मैं नहीं समझती कि विवाह होना चाहिए ।इस आयु में मनोर को आपकी अधिक आवश्यकता है। प्यार-प्रीत का ज्वार थम गया है ।उसने अतल गहराई पा ली है। में ऐसी ही ठीक हूँ ।"
प्रेम का यह अतल गहन स्वरुप ही तो प्रेम का चरमोत्कर्ष है।इस कहानी के माध्यम से कुछ महत्तपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं -क्या प्रेम कभी वैध और अवैध हो सकता है ? और क्या तथाकथित सामाजिक रूप से अवैध माने जाने वाले सम्बन्ध में आबद्ध होने से ही उस व्यक्ति का चारित्र पूर्ण रूप से कलंकित हो जाता है? क्या यह जानते हुए भी कि प्रेम का पुरुस्कार प्राप्त होना असम्भव है, किसी को आजीवन प्रेम करते रहना , एक साधना नहीं है?
यह बहुत ही यथार्थवादी कहानी है, लेखिका ने पूर्ण बौद्धिकता व हार्दिकता से जो कुछ भी देखा, अनुभव किया उसी को लिपिबद्ध किया है। यह कहानी केवल स्त्री अस्मिता के अलग अलग-अलग पक्षों को ही नहीं , वरन समाज की वास्तविक स्तिथि से भी हम सबको परिचित कराता है- समाज की उस छवि से, जिससे शायद हम सब जानबूझकर भागना चाहते हो.......समाज में वर्षों से दुराव छिपाव चल रहा है जो गलत है। अवैध संबंध ढके रहें तो सब चलता है, प्रकट हो गए तो विस्फोट। यही प्रवृत्ति सारी विकृतियों को बल देती है।
कहानी का शीर्षक पूर्णतः उपयुक्त है, सार्थक है। सच में, राधा और कृष्ण भी तो एक दूसरे के विरह में विकल ही रहे, राधा भी तो विवाहिता ही थी ....और कृष्ण का भी कहाँ विवाह हुआ राधा के साथ फिर भी उनकी मुरली तो राधा के लिए ही बजती थी .....मंदिर-मंदिर में इस प्रेमी-युगल का विग्रह है, हम सब भी तो उस प्रेमी-युगल को पूजते हैं।
"नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर, धिरे-धिरे मुरलि बजाब।
समय संकेत निकेतन बइसल, बेरि-बेरि बोलि पठाव।।
साभरि, तोहरा लागि अनुखन विकल मुरारि।"
- अभिषेक मुखर्जी
गुरु गोविन्द सिंह अपार्टमेंट, ब्लॉक - बी
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