विद्यापति भक्त या श्रृंगारी कवि विद्यापति भक्त कवि थे पदावली भक्ति या श्रृंगार रस, Vidyapati Poet Vidyapati aur Unka Kavya bhakt ya shringarik kavi
विद्यापति भक्त या श्रृंगारी कवि | विद्यापति भक्त कवि थे
विद्यापति भक्त या श्रृंगारी कवि विद्यापति भक्त कवि थे - विद्यापति संस्कृत, अवहट्ट तथा मैथिल भाषा के सुविज्ञ हस्ताक्षर थे, परन्तु उनकी कीर्ति की अमर-स्मारिका उनकी पदावली है, जो मैथिली भाषा में लिखी गयी है। यह एक प्रगीतात्मक मुक्तक काव्य है जिसमें लगभग 900 पद हैं। पदावली का विवेचन करने के पश्चात् विद्वानों की इस विषय में विभिन्न धारणाएँ हैं कि विद्यापति भक्त कवि थे या श्रृंगारी कवि थे। वस्तुतः, भक्ति भावना और श्रृंगारसात्मकता दोनों परस्पर विरोधिनी वृत्तियाँ हैं। जो कवि मूलतः भक्त है उसका श्रृंगारिकता की ओर झुकाव संभव नहीं है। दूसरी ओर, जिस कवि की भावाभिव्यक्ति का मूल आधार श्रृंगारिकता है वह भक्त नहीं हो सकता। विद्यापति की सम्पूर्ण पदावली पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो इस सम्बन्ध में विभिन्न अनुसंधित्सुओं के आधार पर तीन पक्ष संभव हैं- विद्यापति की भक्तिभावना, श्रृंगारिकता तथा रहस्याभिव्यक्ति ।
विद्यापति की भक्ति भावना
विद्यापति भक्त कवि थे। इस विषय में निम्नलिखित तर्कों को प्रस्तुत किया जा सकता है-
- पदावली में अनेक पद ऐसे हैं जिनमें विद्यापति की उत्कृष्ट भक्तिभावना परिलक्षित होती है। उन्होंने केवल कृष्ण की ही भक्ति प्रस्तुत नहीं की, बल्कि शिव की उपासना के विषय में संस्कृत व अवहट्ट के अनेक ग्रन्थ भी लिखे थे। कहीं उन्होंने शक्ति की देवी दुर्गा की भक्ति प्रस्तुत की है, तो कहीं सूर्य, अग्नि, गणेश, शिव शक्ति इन पाँच देवों के प्रति एक साथ आराधना व्यक्त की है। इसी कारण उन्हें कोई वैष्णव कहता है तो कोई शैव कहकर पुकारता है, कोई एकेश्वरवादी के रूप में जानता है, तो कोई उन्हें शाक्त मानता है। इसका मूल कारण है कि उनकी पदावली में इसी प्रकार की भक्तिभावना विद्यमान है। उदाहरण के लिए वे भवानीदेवी की वंदना करते हुए कहते हैं- जय-जय भैरवि असुर ,भयाउनि पशुपति - भामिनी माया ।
- कुछ विद्वान् आलोचक विविध तथ्यों के आधार पर विद्यापति को भक्त कवि सिद्ध करते हैं। बाबू ब्रजनन्दन सहाय विद्यापति को वैष्णव भक्ति से ओतप्रोत मानते हैं, विपिन बिहारी मजूमदार का कथन है कि पदावली में अंकित राधा-कृष्ण के शृंगार-चित्रों में माधुर्यभाव की भक्ति ही प्रस्फुटित है।
- मिथिला और बंगाल में विद्यापति के पदों को कीर्तन व धार्मिक उत्सवों पर गाया जाता है। डॉ. उमेश मिश्र ने विद्यापति को इस आधार पर भक्त कवि सिद्ध किया है तथा कहा है- 'बंगाल में विद्यापति वैष्णव कवि तथा भक्त कवि कहलाते थे। इसका कारण यह है कि विद्यापति की कविता ने राधा-कृष्ण की भक्ति की थी तथा उसी तरह की कविता रचने की जड़ बोई थी।'
- विद्यापति के विषय में कुछ किंवदन्तियाँ ऐसी हैं जिनके आधार पर उन्हें भक्त ही कहा जा सकता है। एक ओर तो उनका 'उगना' नामक सेवक था जो साक्षात् शिव जी थे दूसरी ओर, वे अन्त समय गंगा स्नान करने की इच्छा से जा रहे थे तो रास्ते में ही उन्हें गंगा ने दर्शन दिए थे। सर्वमान्य जनश्रुति के आधार पर विद्यापति एक पहुँचे हुए भक्त थे। उनके भक्ति के पद और 'नचारी' इसी बात का प्रमाण है। इन आधारों पर सिद्ध होता है कि विद्यापति भक्त कवि थे।
विद्यापति की शृंगारिकता
पदावली के अधिकांश पद शृंगारिक हैं। अतः प्रायः विद्वानों की धारणा रही है कि विद्यापति की कविता का मूल उद्देश्य शृंगारिक भावों की अभिव्यक्ति था। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं -
अधिकांश विद्वान् और आलोचक यह सिद्ध करते हैं कि विद्यापति श्रृंगारिक कवि थे उनकी पदावली का मूल उद्देश्य श्रृंगार रस के संयोग व वियोग दोनों अवस्थाओं का चित्रण करना था। भक्ति के फुटकर पद उनमें यदा-कदा भले ही दिखाई पड़ें, परन्तु रतिक्रीड़ा, कामलीला व वासना का खुला चित्रण उनके पदों में पर्याप्त रूप में हुआ है। उनकी राधा एक विलासिनी नायिका है और श्रीकृष्ण एक कामुक नायक । दोनों की कामुक चेष्टाओं, रति-सम्बन्धों व संभोगात्मक चित्रों को कवि ने स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है।- श्री मन्मथ गुप्त, डॉ. जनार्दन मिश्र, कुमार स्वामी, प्रो. विपिनबिहारी मजूमदार, डॉ. श्याम सुन्दर आदि का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने विद्यापति को रहस्यवादी कवि सिद्ध किया है तथा उनकी पदावली पर तत्कालीन रहस्यवादी भावना का प्रभाव प्रस्तुत किया है।
- वस्तुतः इन विद्वानों ने विद्यापति की श्रृंगारिकता में भक्तिभावना को देखा है। भगवान् अदृश्य हैं और उसके प्रति की गयी आत्मा की लीलाएँ भी नहीं देखी जा सकतीं। अतः नायक-नायिका या राधा-कृष्ण के माध्यम से स्त्री-पुरुष की प्रेमलीला मानो आत्मा-परमात्मा की आध्यात्मिक क्रीड़ाएँ हैं, उनका सात्विक प्रेम और मिलन है। इसी भावना को ध्यान में रखकर मान्य विद्वान् विद्यापति में रहस्यवादी भावना ढूँढ़ते हैं। वस्तुतः यह धारणा विद्यापति को भक्त ही सिद्ध करती है, श्रृंगारिक कवि नहीं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये विद्वान् शृंगारिकता को भक्ति के क्षेत्र में रखने के पक्षधर हैं।
- विद्यापति ने अपने आध्यात्मिक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए श्रृंगारिकता का आश्रय लिया था जिससे गहन अनुभावों को व्यक्त किया जा सके। व्यवहार में भी शृंगारिक भाषा के माध्यम से ही आध्यात्मिक भावों को प्रस्तुत किया जा सकता है। विद्यापति के अनेक अश्लीलं पद भी वैष्णवों में अत्यन्त सम्मान के साथ देखे जाते हैं। यही परम्परा सूफी ग्रन्थों में भी पायी जाती है। इस कारण भी विद्यापति की पदावली में भक्ति भावना की प्रमुखता मानी जाती है।
निर्णायक मत
विद्यापति भक्त कवि थे या श्रृंगारी, उनमें रहस्यवादी भावना थी या प्रेममूलक वासना थी ? ये प्रश्न आज भी विवादास्पद है। विभिन्न विद्वान् तर्कों के आधार पर उन्हें कभी भक्ति के क्षेत्र में ले जाते हैं, तो कभी श्रृंगारिक परिधि में बाँधते हैं। दोनों पक्षों में अन्ततः व बाह्य प्रमाण हैं। सच यह है कि सच्चा साहित्यकार अपने युग से प्रभावित होता है तथा उसका साहित्य युग को प्रतिबिम्बित करता है। वह परिस्थितियों से बचकर नहीं रह सकता। विद्यापति के
भक्ति के पद निःसंदेह उनकी उदात्त भक्ति-भावना के द्योतक हैं। वे चाहे शिव के भक्त रहे हों, भवानी देवी, आदि शक्ति या राधा कृष्ण के उपासक।
विद्यापति ने यद्यपि संस्कृत और प्राकृत में अनेक ग्रन्थ लिखे थे, परन्तु उनकी कीर्ति-पताका फहराने वाली रचना उनकी पदावली ही है। पदावली में उन्होंने अपने पदों में विविध आश्रयदाताओं के नाम का उल्लेख किया है।
राजा शिवसिंह व रानी लखिमादेवी के आश्रय में विद्यापति अधिक रहे। अतः उन्हीं का नाम अपेक्षाकृत अधिक पदों में है। कहीं-कहीं तो विद्यापति ने राजा शिवसिंह को श्रीकृष्ण व रानी लखिमा को राधा कहकर पुकारा है, जैसे-
राजा सिबसिंघ रूपनारायण
साम सुन्दर काय।
निःसंदेह वह युग भोग-विलास से युक्त था। राजा और सामंत सभी अनेक पत्नियाँ रखते थे और कामोन्मत्त रहते थे। उनके लिए श्रृंगारिक कविता ही सर्वथा उपयुक्त थी। शिव नंदन ठाकुर के शब्दों में-
'विद्यापति राजकवि और राज सभासद थे। उन्हें जिस तरह का गाना बनाने की फरमाइश मिलती थी उसी तरह का गाना बनाते थे और राजा को प्रसन्न रखने के लिए राज-परिवार के नाम भी उसमें जोड़ दिए जाते थे।'
इससे स्पष्ट है कि विद्यापति के पद श्रृंगारिकता को लेकर प्रस्तुत किए गये हैं। वे राधा कृष्ण की भक्ति से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते।
दूसरी ओर, विद्यापति के पदों में श्रृंगारिकता की स्थूलता है- अंगप्रदर्शन, मांसलता, कामोद्दीप्तता, तीव्र अभिलाषा व मिलन आदि की अभिव्यक्ति सर्वथा श्रृंगारिक है। राधा और कृष्ण दोनों ही कामपीड़ित दिखाई पड़ते हैं। उनकी सभी चेष्टाएँ वासना की दुर्गंध और मादकता व कामुकता की कीचड़ से परिव्याप्त हैं। वहाँ भक्ति की एक भी झलक नहीं दिखाई पड़ती।
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