विवाह क्या है? विवाह का अर्थ एवं परिभाषा, विवाह के प्रकार विवाह सनातन संस्कृति के तेरह संस्कारों में से एक संस्कार है, जिससे पति और पत्नी नामक दो रिश्
विवाह क्या है ?
यह प्रश्न बहुत आसान लगता है, लेकिन मुझे लगता नहीं कि कोई इसका सही जवाब दे पाएगा। आज के वक्त में तो लोग विवाह, शादी और मैरिज जैसे शब्दों में भी अंतर नहीं कर पाते।
विवाह सनातन संस्कृति के तेरह संस्कारों में से एक संस्कार है, जिससे पति और पत्नी नामक दो रिश्ते बनते हैं। यह रिश्ता मुख्य रूप से संतति उत्पत्ति के लिए बनाया जाता था, जिससे गौंड रूप में वंश वृद्धि हो सके। यहां पति की जिम्मेदारी होती थी कि वह अपने परिवार सहित अपनी पत्नी की जरूरतों का ख्याल रखे और यथोचित उन्हें पूरा करे। यहां पत्नी का कर्तव्य होता था कि वह अपने पति और संतान की पूर्ण रूप से सेवा करे, साथ ही घर के वृद्ध जनों का भी ख्याल रखे। यहां बच्चे पर माँ का अधिकार ज्यादा होता था, इसलिए ही यहां बच्चे पिता के नहीं बल्कि माँ के नाम से जाने जाते थे।जैसे, कौशल्यानंदन, सुमित्रानंदन, कैकयिनंदन, यशोदानंदन, देवकीनंदन, गंगापुत्र भीष्म, कुंतीपुत्र, इत्यादि।
यहां स्त्री को अन्नपूर्णा, जगदंबा के रूप में देखा जाता था, ना कि किसी अप्सरा या नौकर के। पति त्रिकाल संध्या कर भगवत चिंतन करते हुए अपने और परिवार जीवन यापन का उद्योग करता था और पत्नी उसकी सहायिका होती थी। यह रिश्ता सम्मान का होता था, मात्र सेवा और संभोग का नहीं। संभोग यहां संतति उत्पत्ति का साधन मात्र था, मनोरंजन अथवा विलासिता का नहीं। सनातन संस्कृति संयम का प्रतीक हुआ करती थी। इसके सबसे बडे उदाहरण श्री राम और माता सीता हैं।
शादी है इस्लाम के शौहर बीवी का रिश्ता। यह रिश्ता वास्तव में क्या है, ये तो कोई इस्लाम का जानकार ही बता सकता है, लेकिन जो देखने में आता है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां औरत की जिम्मेदारी बस इतनी ही है कि वो चुपचाप अपने शौहर की बातों को मानती जाए। ये बातें अनगिनत बच्चे पैदा करने से लेकर अमर्यादित संभोग तक जाती हैं। जब उसने ये किया तब तक सब ठीक है वर्ना तलाक! यहां सारा अधिकार पुरुष के पास होता है।
मैरिज है क्रिश्चियन के हसबैंड वाइफ का रिश्ता। यह रिश्ता मुख्य रूप से बस इसिलिये बनता है ताकि स्त्री और पुरुष के संभोग से जो बच्चा जन्मे, उसे नाजायज़ ना कहा जाए। उसे पिता का नाम मिले। यहां अधिकार लगभग बराबरी में बँटे हैं।
लेकिन जिस तरह आज लोगों ने विवाह, शादी और मैरिज को एक दूसरे का पर्यायवाची मान लिया है उसी तरह इन संबंधों का मतलब, तात्पर्य और प्रयोजन भी सम्मिलित हो गया है। शुद्ध रिश्ता शायद ही कहीं हो, खासकर वैवाहिक पति पत्नी में! आज के दौर में विवाह के निम्नलिखित उद्देश्य हो गए हैं
1. लडके के परिवार को भरपूर दहेज मिले
2. बहू अगर नौकरी करती हो तो उसकी सारी तनख्वाह ससुराल वालों को मिले
3. बहू अगर नौकरी नहीं करती तो घर का सारा काम करे
4. घर में अपनी पत्नी होनी चाहिए ताकि पति की संभोग शक्ति व्यर्थ ना जाए और इसके लिए उसे एक लीगल वाइफ मिल जाए।
5. पढी लिखि सुंदर स्त्री हो ताकि समाज में मान बढे
आज सनातन समाज भी विवाह को संभोग से जोडता है। पति के मन में ये बात पत्थर की लकीर की तरह बैठ गई है कि विवाह होता ही इसलिए है ताकि पत्नी की ये नैतिक जिम्मेदारी बन जाए कि वो अपने पति की संभोग इच्छा को पूरा करे। जबकि सनातन इसके विपरीत है। चरक संहिता से उद्धरित एक अंश कहता है कि पति पत्नी को हर रोज एक ही आसन पर एक साथ नहीं सोना चाहिए ताकि वो संयमित रह सकें।
खैर ये तो बदलते वक के साथ मनुष्य की बदलती सोच है। दुख और हैरानी तब होती है जब हम Hindu Marriage Act देखते हैं, जिसमें लिखा है कि विवाह का बंधन तक मान्य नहीं होगा जब तक पति पत्नी संभोग ना कर लें और विवाह के दो वर्ष तक यदि पति पत्नी में संभोग नहीं होता तो उनका विवाह अपने आप निरस्त हो जाता है।
यानि विवाह का आधार बस संभोग है? इस Act में कहीं नहीं लिखा की पति पत्नी एक दूसरे का सम्मान करें, एक दूसरे के माता पिता का सम्मान करें, परिवार के साथ चलें, ये सब कुछ भी जरूरी नहीं!
संभोग नामक इस hormonal drive ने सबको इस कदर अपने वश में कर लिया है कि इसके वशीभूत होकर स्त्री पुरुष अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो चले हैं। आखिर एक पत्नी अपने पति को ऐसा क्या देती है जिसके लिए पति अपने माता पिता से अलग होने और तो और उन्हें वृद्धाश्रम छोडने के लिए तैयार हो जाता है?
एक पुरुष में किसी स्त्री को ऐसा क्या दिखता है जिससे वो अपने पति और परिवार को धोखा देने के लिए तैयार हो जाती है?
मन के इस भाव के आगे लोग इतने विवश हो गए हैं कि सरकार लिव इन को भी मान्यता देने चली है! लिव इन का अर्थ क्या है? बस यही की यहाँ संभोग होगा लेकिन पति पत्नी वाली जिम्मेदारियाँ नहीं होंगी।
समलैंगिकता को मानसिक बीमारी कहने वाले अपनी इस बीमारी के बारे में सोचना ही भूल गए हैं। समलैंगिकता भी तो यही है, जहाँ दो सजातीय लोग अपने sexual Drive को नियंत्रित नहीं कर पाते। सही गलत का निर्णय नहीं कर पाते। संयम नहीं रख पाते।
बलात्कारी पुरुष और चरित्रहीन स्त्रियाँ भी इसका एक ज्वलंत उदाहरण हैं।
अंतर कुछ नहीं है इन सबमें, बस फर्क है परिमाण का। किसका मन, किसकी कामुकता कितनी हावी है और कौन खुद को कितना नियंत्रित रख पाता है।
इसकी सबसे बड़ी वजह है मुगल काल की गुलामी, आजकल का आचार विचार, माता पिता द्वारा दिए जानेवाले संस्कारों का अभाव, अज्ञानी गुरू, निरंकुश मन, टीवी सीरियल, फिल्में, साहित्य, पाश्चात्य संस्कृति की अंधाधुंध नकल।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस विषय में सत्य कहा है -
मात पिता बालकन्ह बोलावैं। उदर भरे सोइ धर्म सिखावहिं।।
उदाहरण - आजकल के माता पिता
हरहिं शिष्य धन शोक न हरहिं। सो गुरु घोर नरक मँह परहिं।।
उदाहरण - आजकल के गुरु/बाबा/संत
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
उदाहरण - ओशो
क्या लोगों की इस भीड़ में कोई रुककर ये सोचेगा कि ये हमारा समाज कहाँ जा रहा है? किस दिशा में जा रहा है? क्या होगा आज से बीस साल - पचास साल बाद? क्या सनातन संस्कृति बस किताबों में इतिहास बनकर रह जाएगी? क्या इसका दुख नहीं है किसीको? क्या कोई रोक नहीं लेना चाहता इस विनाश को? प्रयास मात्र भी नहीं ?
- अधिवक्ता गुंजन मिश्रा
लेखक - परसेप्शन (अंग्रेजी) ; भूल ही जाना अच्छा है(हिन्दी)
पूर्व.लाइब्रेरियन TIMSR
स्वीकृत लाइब्रेरियन (मुंबई विश्वविद्यालय)
बी ० ए। बी.एल.आई.एससी. एम.एल.आई.एससी. नेट, एलएलबी
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