दूबधान लेखिका की 'सिग्नेचर' कहानी मानी जाती है। यह कहानी तो पाठकों एवं समीक्षकों के लिए मील का पत्थर है, या यूं कहना चाहिए कि यह समीक्षातीत है ।
दूब धान साम्प्रदायिक सम्प्रीति का उत्कृष्ट उदाहरणपद्मश्री उषाकिरण खान
केतकी क्या कहे कि गाँव में कौन रहता है उसका? भाई-भाभी और भतीजे-भतीजियाँ नहीं रहते हैं तो क्या, पूरे का पूरा गाँव उसका अपना है। वह एक क्षण के लिए भी गाँव को भूल नहीं पाती है। "
'दूबधान' लेखिका की 'सिग्नेचर' कहानी मानी जाती है। यह कहानी तो पाठकों एवं समीक्षकों के लिए मील का पत्थर है, या यूं कहना चाहिए कि यह समीक्षातीत है । ८० के दशक में लिखी गई यह कहानी,अपनी सुन्दर प्राञ्जल भाषा शैली के साथ न केवल आज भी पूर्ण प्रासंगिक है, अपितु इसकी प्रासंगिकता, अपरिहार्यता और महत्ता आज और बढ़ गई है। आज, जब समाज में चहुँओर बैर, वैमनस्य और द्वेष का विषवमन हो रहा है, साम्प्रदायिक तनाव की प्रखरता से हम दग्ध, संतप्त हैं, ऐसे समय उषाकिरण जी की यह कहानी प्रलेप का कार्य करती है, छाया व शीतलता प्रदान करती है। ऐसी कहानियों को पाठ्यक्रम में रखना बहुत आवश्यक है।
कहानी की पृष्ठभूमि है- ग्रामीण मिथिला,"कोसी का कोर-कछार, कोसी का मिटटी-पानी", और कहानी है इसी कोसी तट की बेटी केतकी की, जो विवाह पश्चात शहर चली जाती है अपने श्वसुरालय, परन्तु उसके हृदय में उसके बचपन का वह ग्राम्य समाज, वह कोसी का तट, वह कासवन, वह ग्राम्य जीवन ही बसा हुआ है। वह आकुल है उस देहाती जीवन की एक झलक पाने को, तरसती है उन ग्रामीणों द्वारा "केतिकी" पुकारा जाना।
केतकी स्मृतिजीवी नहीं है, और न ही पाठकवर्ग को अतीतगामी बनाना लेखिका का यहाँ उद्देश्य है, परन्तु सदियों से चली आ रही हमारी प्रथाओं में, आचार-अनुष्ठानों और रीति रिवाजों में व्याप्त मानवता, अपनेपन और एकता के सन्देश को, विश्व बंधुत्व और सर्वधर्म समन्वय के सन्देश को उजागर करना अवश्य इस कहानी का उद्देश्य है। मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना करना ही इसका लक्ष्य है। औद्योगिक और तकनीकी विकास के इस झंझावात में मानवीय मूल्य,ये आर्द्र कोमल भावनाएं कहीं विलुप्त ही ना हो जाए।
आज के टूटते बिखरते परिवार और टूटते बिखरते सम्बन्धों के विषादमय वातावरण में, केतकी का यह मानना "भाई - भाभी और भतीजे - भतीजियाँ नहीं रहते हैं तो क्या, पूरे का पूरा गाँव उसका अपना है ",आशा की एक अनमोल किरण है .....
समय के साथ बदलाव तो अनिवार्य है, अवश्यम्भावी है, पर उन्नयन के इस महाज्वार में हमारी परम्पराएं, हमारी संस्कृति, हमारे मूल्यबोध और परोपकार तथा बहुजन हिताए की भावनाएँ कहीं बह न जाए इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए।
एक पारिवारिक समारोह के उपलक्ष्य पर,केतकी को अपने विवाह के वर्षों बाद ,गाँव जाने का अवसर प्राप्त होता है । वह बहुत उत्साहित हो उठती है, उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा। कितने वर्ष बीत गए , "अपने दरबे से उतरकर कोसी नहीं देखी, सुनहरी रुपहली अबरकों वाली सिकता नहीं देखी, कास और पटेर के जंगल नहीं देखे, आम की पीपें घिसकर सीटी नहीं बजायी । "
केतकी को याद आती है धुनिया टोली की सबुजनी की, जिसके साथ उसके शैशव की कई सुन्दर स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। सबुजनी गाँव की ही बेटी थी और गाँव में ही ब्याह कर बस गई थी। केतकी उसी से सींकी का बाला -झुमका बनवाकर पहनती।
मुसलमान सबुजनी का जीतिया और छठ पूजा करना और इस प्रासंग पर उसके और बालिका केतकी के बीच हुए कथोपकथन द्वारा लेखिका ने धार्मिक सद्भाव और सम्प्रीति का सन्देश दिया है। सबुजनी कहती है " मैं मुसलमान हूँ न, मेरे हाथ का पकाया हुआ भोजन सूर्य देवता कैसे पाएंगे, इसीलिए फल-फूल लेकर अर्घ्य चढाती हूँ। "
बालिका केतकी कह उठती है " ऐसे देवता को क्यों अर्घ्य चढ़ाते हो जो तुम्हारे मुसलमान होने के कारण छूत मानते हैं ? मत चढ़ाओ। "
इन पंक्तियों द्वारा लेखिका ने बहुत ही गहरी बात कह दी है। अपने उपन्यास 'हसीना मंज़िल' में भी उन्होंने उल्लेख किया है कि तत्कालीन गाँव में कई ऐसे मुसलमान परिवार थे जिनके पूर्वज हिन्दू ही थे .....अतः कुछ परम्पराएं शायद वैसी की वैसी ही रह गईं ।
आज जब धार्मिक भेदाभेद और हिंसा का विषवृक्ष पूर्ण पल्लवित हो अपनी रक्तिम शाखा-प्रशाखाओं का विस्तार कर रहा है, तब ऐसी कहानियों की, ऐसी लेखनी की अत्यंत आवश्यकता है। यह कहानी साम्प्रदायिक सम्प्रीति का उत्कृष्ट उदाहरण है।
केतकी वर्षों बाद गाँव तो आ जाती है, परन्तु आते ही उसका उत्साह, उसका उछाह थोड़ा म्लान पड़ जाता है । गौने के बाद वह द्वितीय बार ही गाँव आई थी परन्तु न स्वागत, न आवभगत, न वे सब पुरातन रीति रिवाजें .....कुछ भी तो नहीं हुआ उसके गाँव आने पर। इस भीषण बदलाव से केतकी को आघात लगा, उसका कोमल कल्पनाशील अन्तस आहत हुआ ।
" बेटी के आने पर प्रतीक्षारत बैठे कहाँ गए वे स्वजन - पुरजन, कहाँ है जुड़ाने को रखा हुआ बड़ी-भात और कहाँ गईं वह परम्परा जिसमें पहले देवी की विनती किए बिना किसी घर में पैर नहीं रखा जा सकता था। "
इस कहानी में लेखिका ने बदलते समय के साथ हो रहे सामाजिक परिवर्तन को बहुत ही सुंदरता से दर्शाया है ।उपार्जन हेतु गाँव से शहरों की ओर जाना, वहीं नौकरी करना, और बस जाना ....शनैः शनैः आधुनिकता की लहार में बह जाना - यह सब सत्य है, कुछ हद तक उचित भी है । गाँव में पक्की सड़कें और ऊँची दीवारों से घिरे बड़े मकान बनना-.यह सब भी सत्य है, उचित भी है,परिवर्तन तो होगा ही ...युग युगान्तर तक ग्राम-देहात का भी वही चिर पुरातन स्वरूप थोड़े ही बना रहेगा ? परन्तु अपनी संस्कृति और भाषा से कटते जाना, सभी परम्पराओं की तिलांजलि देना, आन्तरिकता और आत्मीयता का विसर्जन कर देना कदापि उचित नहीं है।
केतकी अपने हवेलीनुमा घर की चहारदीवारी से बहार निकल गाँव के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद उठाना चाहती थी मानो वह गाँव के रंग-रूप को आत्मसात करना चाहती हो। "केतकी मेड़ों के सहारे खेत में उतर गई। मटर और तीसी का खेत। सफ़ेद, नीले और गहरे गुलाबी खेत। आगे सरसों और तोरी का खेत,पीले पीले फूलों वाले खेत। केतकी कुछ सोचती हुई नीचे उतरती रही। "
अमराई पहुँच, केतकी अपने विस्मृत शैशव और कैशोर्य को पुनः खोजने लगी। आम्र कुञ्ज में अपनी सहेलियों के साथ खेलती बालिका केतकी....कैशोर्य के प्रथम सोपान पर समीर के ममेरे भाई का प्रणय निवेदन ......आज अकस्मात् ही उस भूले बिसरे प्रसंग की स्मृति ने उसके पूरे शरीर पर सिहरन जगा दी। वह साधारण परिवार का लड़का केतकी से कैसे विवाह करता ? अपनी विवशता को उसने केतकी के सम्मुख स्पष्ट भी किया था। वर्षों बाद गाँव आकर केतकी मानो अपने को ही पुनः आविष्कृत कर रही थी, और गाँव का यह उन्मुक्त परिवेश इस अनुसंधान में उसकी सहायता कर रहा था।
पारिवारिक अनुष्ठान और समारोह में भी केतकी का मन न लगा। उसे वह आन्तरिकता, वह सहृदयता , वह अपनापन अब कहीं भी नज़र नहीं आता। आधुनकिता ने ग्रामीण समाज के अन्तस पर भी एक अदृश्य आवरण सा डाल दिया है। गाँव और अपने परिवार में आए बदलाव से पथराई केतकी अपने पति के साथ वापस शहर लौटने का निश्चय करती है। हवेली से दूर जब गाड़ी मिटटी के टीले पर बसे गाँव की और बढ़ती है, तभी अचानक केतकी गाड़ी रोकने को कहती है। यहीं तो था सबुजनी का घर। वह सुन्दर सबुजनी अब मोतियाबिंद उतरी आँखों वाली वृद्धा थी। केतकी को पहचानते ही उसके गोरे झुर्रीदार चेहरे पर हर्ष की लहर दौड़ गई। वह चहक उठी "अच्छा हुआ, गाम-समाज को देखनी आ गई। तू बिना माँ की बेटी, हम सबकी बेटी। अरे कहाँ गई, सुलेमान की कन्या, ज़रा सोना - सिन्दूर ले आ, केतकी की मांग भर। एक चुटकी धान-दूब ले आ, खोइंछा भर दे। "
कितने आश्चर्य की बात है, जहां सब अपनी परम्पराएं भुला बैठे हैं, आधुनिकता की लहार में बहे जा रहे हैं, वहाँ एक अपढ़, विधर्मी वृद्धा ससुराल से आपने गाँव आई एक हिन्दू कन्या को सिन्दूर दान कर रही है .... दूब धान से आशीर्वाद कर रही है।
वृद्धा सबुजनी अपने परिवार वालों से गुड़ और पानी लाने को कहती है। अपनी कमर से निकालकर दो रुपये का मुड़ा-तुड़ा नोट पौती में बंद कर केतकी के हाथों में थाम देती है "यह मेहमान (जामाता ) का सलामी है, दे देना। "
इस दरिद्र वृद्धा के दो रुपये नोट की भेंट में जो आन्तरिकता थी, जो अपनापन था वह केतकी के अपने समृद्ध परिवार की भेंटों में कहाँ ? और उसके इस सिन्दूर में, दूब -धान में और गुड़ पानी में बसी है ग्राम समाज की संस्कृति और परम्परा, बसा है अपनापन। जाज्वल्यमान है मानविकता और अपनेपन की वह भावना जो धर्म, वर्ण और जाति के भेद को नहीं समझती...
उसके गले से लगी उद्भ्रांत सी अश्रुधारा बहाती केतकी से सबुजनी कहती है " रो ले, बेटी, रो ले , मन में कुछ न रखना ,कहा सुना छिमा करना, गाँव-जवार को असीसती जाना।"
इस एक पंक्ति के माध्यम से लेखिका ने कितना कुछ कह दिया है। इस दरिद्र विधर्मी वृद्धा ने तो सम्पूर्ण गाँव को ही एक परिवार में परिवर्तित कर दिया।
कहानी का अंत सच में पाठक को भी रुला देता है, जब विदा-गीत गाती है सबुजनी -
"लाल रंग डोलिया सबुज रंग ओहरिया, आब बेटी जाइ घर बिदेस "
कहानी का अन्त अत्यंत भावुक है। लेखिका निराशावादी नहीं हैं, अपने नाम के सामान ही इस कहानी में भी एक नई भोर की किरण की झलक मिलती है, उस अनपढ़ विधर्मी, ग्रामीण वृद्धा सबुजनी के माध्यम से।
- अभिषेक मुखर्जी
५० . बी. एल . घोष रोड , बेलघड़िया, कोलकाता -७०००५७
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