क्या बिना मारे नहीं पढ़ा सकता शंभुआ ! मेरे एक अध्यापक थे शंभु नाथ दुबे। वे हमारे गांव के प्रायमरी में पढ़ाते थे। उनका गांव भी एक गांव छोड़ कर पड़ता थ
क्या बिना मारे नहीं पढ़ा सकता शंभुआ !
मेरे एक अध्यापक थे शंभु नाथ दुबे। वे हमारे गांव के प्रायमरी में पढ़ाते थे। उनका गांव भी एक गांव छोड़ कर पड़ता था। वे हरीपट्टी के हम भिखारी राम पुर के बीच में एक गांव था बनकट। वह भूगोल नहीं बदला है। अब वे शंभु नाथ दुबे गुरुजी शरीर में नहीं हैं। लेकिन मन में हैं!
उनकी अकसर याद आती है। वैसे तो अनेक अध्यापक याद आते है लेकिन उनकी याद एक दो विशेष कारणों से आती है!
शंभु नाथ दुबे गुरु जी महुए के मौसम में महुआ निचोड़ कर एक दो लोटा पीते और बारह बजे से तीन बजे तक सोते। खैर।
मेरे गांव का एक लड़का था शंभु नाथ यादव। अब समस्या यह आई कि गुरुजी अपना नाम का शिष्य सहन नहीं कर पाए और उसका नाम रजिस्टर में बदल दिया। नाम कर दिया यश नाथ यादव। और उसके परिजनों पर जोर लगा कर उसका नाम संभवतः सदैव के लिए बदलवा दिए।
यही शंभु नाथ दुबे गुरुजी एक पहाड़ा में किसी प्रश्न पर मेरी चूक पर मुझे एक या दो डंडे लगा दिए। ससुरा सत्रह का पहाड़ा मैं सत्रह नवां के आगे बढ़ा नहीं जबकि बगल में बैठा मित्र ऊदल फुसफुसाया 170..लेकिन मैं बोलूं कि उसके पहले शंभु नाथ गुरुजी ने घुटने के ऊपर वाले हिस्से पर दोनों पैरों पर जमा के लगा दिए। मैं तीसरी में पढ़ता था और पर्याप्त सुकुमार था।
मार खा कर कुछ देर रोया फिर बस्ता समेत कर घर के लिए निकल पड़ा।
मेरी स्किन या मांस पेशियाँ प्रतिक्रियावादी है। उनके डंडे के निशान भरपूर उभर आए। दोनों जांघें जिनको जांघ कहना जांघों का अपमान होगा वे डंडे के निशान से अलंकृत हो गई थीं। हॉफ पैंट या धारी वाली पट्टीदार चड्डी के बाहर से वे निशान उजागर हो रहे थे। आज भी चोट लगे तो उपट आता है।
मैं लगभग रोता हुआ घर जा रहा था कि पड़ोस की एक दादी मिल गईं। उनका नाम हीरवती देवी था। वे मेरे पिता जी की बड़ी भाभी थीं। उनका दुख यह था कि उनके पुत्र नहीं थे। तीन बेटियां ही थीं और एक बेटी ने उनका उत्तराधिकार पा लिया था। हम लोग उनको मावा कम अपनी उमर के उनके बच्चो की नानी के नाम से पुकारते थे। तो ओम की नानी मेरी मावा ने मेरे पैरों पर डंडे के निशान देखे और पूछा किसने मारा?
मैंने उनको बताया कि शंभु नाथ दुबे गुरु जी ने मारा है। मावा अलफ हो गईं और मेरा हाथ पकड़ लिया और गुस्साते हुए बोलीं "शंभुआ मारेस! चलु ओके बताई थ!
शंभु नाथ दुबे गुरुजी महुआ निचोड़वा कर दो लोटा रस पी चुके थे तब तक! और ऊंघ में थे।
वे मुझे ले गईं गांव के उसी स्कूल की उसी पाठशाला में और शंभु नाथ दुबे जी के सामने खड़ा कर दिया। उनके गर्जन तर्जन से शंभु नाथ दुबे जी पर से महुये के रस का प्रभाव जाता रहा। वार्ता और उलाहने से आगे बढ़ कर मावा ने उनको अपने दुर्बल हाथों से देखते देखते एक चटकन लगा दिया!
दर्शक सन्न!
यह इमरजेंसी का साल था। मावा एकदम इंदिरा गांधी जी की तरह अपने तेवर में थीं!
विशाल काय लंब उदर शंभु नाथ जी झर झर रोने लगे। बच्चे उनका रोना देखें और दादी का गुस्सा अभी भी शांत नहीं हो। मावा ने शंभु नाथ दुबे जी को वहीं छोड़ स्कूल के हेड मास्टर की ओर प्रस्थान किया। साथ में मैं अपने दो पतले पैरों पर डंडे का दाग लिए!
हेड मास्टर गांव के ही एक ताऊ जी थे पंडित सूर्यदत्त मिश्र जो कि मावा के भी देवर लगते थे। हम सब उनका सम्मान भी करते थे और ददा होने से डरते भी थे। मेरे सुलेख के गुरु थे वे, हर सुबह स्कूल जाने के पहले एक पन्ना लिख कर दिखाने के बाद ही स्कूल जाने का नियम दिया था उन्होंने। पिता जी और वे दोनों ही एक दूसरे का बहुत मान करते थे। मावा ने मुझे उनके सामने पेश किया और उनसे पूछा कि ऐसे कसाई की तरह मार कर क्यों पढ़ाया इस शंभुआ ने!
हेड मास्टर ददा ने कुछ तो आश्वासन दिया और मैं दादी के साथ घर लौट आया। आगे कई दिन मैं स्कूल गया नहीं।
शंभु नाथ यादव का नाम तो यश नाथ से शंभु नाथ नहीं हुआ लेकिन शंभु नाथ डूबे गुरुजी जी अपनी बदली करवा लिए! वे अपने में बदलाव लाए या नहीं लेकिन मावा ने उनको बदले में अपने उग्र स्नेह से अलंकृत किया। आज मावा भी नहीं हैं लेकिन उनका मुझे मेरे अध्यापक के सामने लेकर जाना और उनको डपटना मुझे बहुत निर्भय कर गया। अनपढ़ दादी निर्भयता और अहिंसा दोनों का पाठ दे कर गईं! उन पर बहुत विस्तार से लिखना पड़ेगा। वे चलता फिरता मसल या मुहावरा कोश थीं!
आगे शंभु नाथ दुबे गुरुजी मिलते रहे लेकिन उनका वह झर झर निर्झर रुदन मुझे मेरे पैर के दो डंडों से भारी लगता रहा। मावा अब है नहीं लेकिन उनका यह पूछना कि क्या बिना मारे नहीं पढ़ा सकता शंभुआ! आज भी गूंज रहा है। क्या बिना शारीरिक दण्ड के शिक्षा संभव नहीं भारत में!
- बोधिसत्व
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