मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता का भावार्थ सारांश प्रश्न उत्तर Dr Harivansh Rai Bachcha Nayi Gulmohar Hindi Class 8th Ch 4 Easy Explanation मैं हूँ उनके स
मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता का भावार्थ सारांश प्रश्न उत्तर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी मैं हूँ उनके साथ खड़ी नई गुलमोहर हिंदी पाठ्यपुस्तक Dr Harivansh Rai Bachchan Nayi Gulmohar Hindi Class 8th Ch 4 Easy Explanation मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता का भावार्थ
मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता का भावार्थ
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार
एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार
जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार
नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता
ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्योता
दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
प्रसंग - प्रस्तुत कविता में कवि ने मनुष्य को अन्याय के आगे न झुकने, अपने अधिकारों के लिए लड़ने तथा निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या - कवि कहता है कि मैं उन लोगों के साथ हूँ जो स्वावलम्बी हैं। अपना काम जो स्वयं करते हैं, किसी दूसरे पर आश्रित नहीं रहते। वे लोग अपना पापोचित अधिकार छोड़ते नहीं हैं और वे लोग अत्याचार को सिर झुकाकर नहीं सहते हैं। अत्याचार के विरुद्ध करते हैं। चाहे वे लोग अकेले हों या उनके साथ भीड हो, वे स्वावलम्बन का ही मुकाबला सहारा लेते हैं। अपने ऊपर उनको विश्वास है। अपने हृदय के विचारों को निर्भयतापूर्वक प्रकट कर देते हैं। यदि उनके हृदय में कोई क्रोधपूर्ण बात है तो उसे भी सबके सामने कह देते हैं। उन लोगों को अत्याचारियों की तलवार भी चुप नहीं कर सकती। अर्थात् वे लोग अत्याचारियों के सामने झुकते नहीं हैं। कवि उनका ही साथ देगा जो स्वावलम्बी हैं।
जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर
कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल
जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान
सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
भावार्थ- कवि कहता है कि स्वावलम्बी लोग अपने कन्धों से बढ़कर पर्वत से टक्कर लेते हैं। अर्थात् अपनी शक्ति से अधिक कार्य करके दिखा देते हैं। मार्ग की बाधाओं को वे गिनते नहीं हैं। उनके मार्ग में कितनी ही बाधाएँ आ जाऐं उनके पैर रुकते नहीं हैं। उन्हें कोई भी लोहे की जंजीर बाँधकर नहीं रख सकती। कोई भी शक्ति उन्हें गुलाम नहीं बना सकती। कवि उनके साथ ही चलेगा जो अपनी रीढ़ सीधी रखते हैं अर्थात् जो स्वावलम्बी हैं।
वे लोग इतने साहसी होते हैं कि अपने छप्पर पर जलती हुई लकड़ी भी रख देते हैं। इसका तात्पर्य है कि वे खतरों से खेलते हैं। आग भी उनके छप्पर को जला नहीं सकती। कोई भी बाधा उनके साहस को रोक नहीं सकती। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राणों की बाजी भी लगा देते हैं। वे समुद्र में कूद कर लौटकर किनारे की तरफ नहीं देखते, निरन्तर साहस के साथ आगे बढ़ते हैं। कवि का तात्पर्य यह है कि कठिन कार्य शुरु करने के बाद यह नहीं सोचते कि यह कार्य क्यों शुरू किया। कवि उन लोगों के साथ है जो स्वावलम्बी हैं।
मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता का सारांश
मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता में कवि हरिवंशराय बच्चन जी ने अपने अनोखे अंदाज में मनुष्य को अन्याय के आगे न झुकने, अपने अधिकारों के लिए लड़ने तथा निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा दी है। वे व्यक्ति जो स्वावलम्बी हैं, साहसी हैं वे अपना न्यायोचित अधिकार छोड़ते नहीं हैं। कहने का तात्पर्य है कि न्यायपूर्वक अपने अधिकार को लेने में कोई बुराई नहीं है। जो अपना अधिकार है, उसे प्राप्त करना चाहिए। यदि हम अपना अधिकार छोड़ते हैं तो सामने वाला हमें कायर समझता है और आगे भी दबाव डालता है। कभी भी हमें अत्याचार के सामने नहीं झुकना चाहिए। अत्याचार करना या अत्याचार सहना दोनों ही गलत हैं। हमें अपने कार्य को करने के लिए भीड़ की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। हममें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि निर्दिष्ट काम को अकेले ही कर सकें। स्वावलम्बी व्यक्ति को कभी भी किसी से डरना नहीं चाहिए। वह अपने हृदय के उद्गारों को निर्भय होकर प्रकट करते हैं। वे लोग अत्याचारियों के सामने झुकते नहीं हैं। सभी लोग ऐसे ही वीर बनें जो अत्याचारियों की शमशीरों से घबड़ाएँ नहीं, बल्कि निर्भयता पूर्वक उनका सामना करें। वे लोग अपनी ताकत से अधिक काम करके दिखाते हैं और मार्ग की बाधाओं या तकलीफों की ओर ध्यान न देते हुए निरन्तर आगे बढ़ते जाते हैं। कवि चाहता है कि सभी भारतवासी ऐसे ही बनें। कवि भी उन्हीं लोगों के साथ है जो स्वावलम्बी हैं। सफलता भी उन्हीं के साथ रहती है जो अपना काम स्वयं करते हैं। कोई भी व्यक्ति उन्हें गुलाम नहीं बना सकता या उन्हें परतन्त्रता की बेड़ियाँ नहीं पहना सकता। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राणों की बाजी भी लगा देते हैं। देश की स्वतन्त्रता भी प्राणों की बाजी लगा कर ही प्राप्त की है। हमें भी वैसा ही साहस और शक्ति प्राप्त करनी है। हमें अपना कठिन काम प्रारम्भ करके फिर लौटकर नहीं देखना चाहिए। कितना ही कठिन काम हो उसे पूरा करके ही विश्राम लें। यदि हम काम शुरु करके अधूरा छोड़ देंगे तो हमारी शक्ति और समय व्यर्थ गया। अतः काम शुरु करने से पहले सोच-विचार लें, पर शुरू करने के बाद उसे पूरा करके ही दम लें। स्वावलम्बी व्यक्ति' खतरों की परवाह नहीं करते। जब हमारे देश में ऐसे ही वीर होंगे तभी देश का गौरव बढ़ेगा। इसलिए कवि इस कविता के द्वारा अधिक से अधिक लोगों को प्रेरणा देकर स्वावलम्बी बनाना चाहता है
मैं हूँ उनके साथ खड़ी कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्न.प्रस्तुत कविता के आधार पर बताइए कि कवि किस प्रकार के लोगों के साथ है ?
उत्तर- कवि ने 'मैं हूँ उनके साथ' नामक कविता में बताया है कि वह उन लोगों के साथ है जो अपनी रीढ़ सीधी रखते हैं। रीढ़ सीधे रखने से कवि का तात्पर्य है अपने सहारे पर खड़े होना या बिना किसी का सहारा लिए खड़े होना। इसका सीधा-सादा तात्पर्य है कि स्वावलम्बी होना । जो लोग स्वावलम्बी होते हैं समाज में उनका सम्मान होता है और सभी लोग उसका साथ देने को तैयार रहते हैं। यहाँ कवि ने ऐसे लोगों को उत्साहित किया है जो अपना काम स्वयं करना चाहते हैं। दूसरी तरफ उसने उन लोगों को निरुत्साहित किया है जो अपने काम में हमेशा दूसरों का सहारा माँगते रहते हैं। कवि उन्हीं लोगों के साथ है जो स्वावलम्बी हैं। सफलता भी उन्हीं के भाग में आती है। कवि कहता है कि ऐसे लोग अपना न्यायोचित अधिकार छोड़ते नहीं हैं। वे कभी भी अत्याचारी के सामने झुकते नहीं हैं। चाहे वे अकेले हों या उनके साथ भीड़ खड़ी हो, वे कभी किसी से डरते नहीं हैं। वे अपने मन के विचारों को निर्भय होकर प्रकट कर देते हैं। उनके हृदय की क्रोधभरी बात भी उनकी जिह्वा पर रहती है। उन्हें अत्याचारियों की तलवार भी चुप नहीं रख सकती। अर्थात् वे किसी से डर कर नहीं रहते और न ही दब कर काम करते हैं। अत्याचारी भी उनसे घबराते हैं। ऐसे निर्भय स्वावलम्बी पुरुषों के साथ ही कवि रहना चाहता है।
ये लोग अपनी सामर्थ्य से अधिक काम करके दिखा देते हैं। रास्ते के काँटे या कार्य में आई हुई बाधाएँ उन्हें काम करने से रोक नहीं पातीं। वे तो बाधाओं को भी चुनौती देते हैं। उन लोगों को जो स्वावलम्बी हैं कोई भी व्यक्ति या देश परतन्त्रता की बेड़ी नहीं पहना सकता। कवि उन्हीं लोगों के साथ रहना चाहता है। ये लोग खतरों से घबराते नहीं हैं हार-जीत का सौदा अपने प्राणों की बाजी लगाकर करते हैं। काम शुरु करके लौट कर नहीं देखते। काम कितना ही कठिन हो शुरू करके फिर पश्चाताप नहीं करते, बल्कि उसे पूरा करते है। ऐसे लोगों के बल पर ही देश की लाज और गौरव निर्भर है। कवि अन्य लोगों को भी प्रेरणा दे रहा है कि वे स्वावलम्बी बनें। कवि भी ऐसी ही कर्मवीर व स्वावलम्बी लोगों के साथ रहना चाहता है।
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