मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है पर निबंध कर्म पर भाग्य और कर्म पर निबंध Manusya Apne bhagya Ka nirmata khud hai मनुष्य का भाग्य भाग्य का महत्व
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है पर निबंध
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है पर निबंध मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है पर निबंध आप है अपने भाग्य विधाता भारत का निर्माता मनुष्य मनुष्य को भाग्य पर विश्वास करना चाहिए या कर्म पर भाग्य और कर्म पर निबंध Manusya Apne bhagya Ka nirmata khud hai मनुष्य का भाग्य भाग्य का महत्व - साधारणतया संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक भाग्यवादी तथा दूसरे कर्मवीर। प्रथम प्रकार के मनुष्य कर्म करने से डरते हैं। वे भाग्य को ही अपने जीवन का आधार बनाकर चलते हैं। उनके विचार से मनुष्य के अपने करने से कुछ नहीं हो सकता है जो कुछ भी होता है, उनके भाग्य से तथा ईश्वर की इच्छा से होता है। ऐसे व्यक्ति पुरुषार्थ में विश्वास नहीं रखते। वे अकर्मण्य' बने रहते हैं तथा जीवन में कोई उन्नति नहीं कर पाते। उदासी और निराशा उनके मन में घर किए रहती है। वे भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं। ऐसे निर्बल, क्षीण और पुरुषार्थहीन व्यक्तियों का जीवन किसी भी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं होता। ऐसे लोग घर, परिवार, समाज तथा राष्ट्र सभी के द्वारा ढोए जाते हैं। ठीक दूसरी ओर कर्मवीर हैं। वे समाज में कठिनाइयों और असफलताओं से संघर्ष करते हुए अपना पथ प्रशस्त' करने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझते हैं। 'करो या मरो' उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। ऐसे व्यक्ति संसार में अपनी योग्यता और शक्ति के द्वारा स्थान बना लेते हैं।
मनुष्य का कर्म महत्वपूर्ण है
संसार कर्मक्षेत्र है, हमारा कर्मस्थल है। अपने कर्मों से ही हम इस संसार में जाने जाते हैं। कर्म ही हमारा जीवन है। कर्म की विशेषताओं से ही हाड़-मांस के पिंजरे में बंद मनुष्य का जीवन अपनी सत्ता का आभास कराता है। अतः कर्म की सत्ता ही सर्वप्रधान है क्योंकि वही संसार का हेतु है। इसीलिए तुलसीदास जी ने विश्व को कर्मप्रधान कहा है.
'कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा ।।'
अर्थात् इस सृष्टि के विधान में कर्म की ही प्रधानता है, जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल पाता है।
संसार का निर्माता तो वह ईश्वर ही है। किन्तु आज जो इतनी सुख-सुविधाएँ, उन्नति प्रगति दृष्टिगोचर हो रही है यह सब हमारे कर्मों का ही फल है। समस्त रचनात्मक कार्यों में कर्म की ही प्रधानता है। धरती पर हरियाली मनुष्य के परिश्रम का रंग है। गगनचुम्बी इमारतें, आकाश को चीरते मिसाइल, समुद्रतल की अतल गहराइयों में खोज करती पनडुब्बियाँ, मनुष्य के उच्च कर्म की कहानी कहती. हैं। विज्ञान के सूक्ष्म चमत्कार, कल कारखानों में सूई से लेकर हवाई जहाज तक की कल्पना को साकार करना मानव मस्तिष्क के पुरुषार्थ का ही परिणाम है।
भाग्य नहीं ,कर्म का परिणाम
हमारा जीवन हमारे कर्मों का परिणाम है। हम जैसे कर्म करेंगे, उसी के परिणामस्वरूप फल प्राप्त होंगे। परिश्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है और परिश्रम के अभाव में कोई फल प्राप्त नहीं होता। संसार में क्या मनुष्य, क्या देवता सभी कर्मों के अधीन हैं। इसी भाव को जयशंकर प्रसाद जी ने अभिव्यक्त किया है।
"कर्मों की खेती है जगती, जैसी जिसने बोई।
देवों का भी कर्म नियन्ता एक और है कोई।।
अर्थात् कर्म रूपी खेती में जो जैसा बोता है, वह वैसा ही फल काटता है। देवताओं के भी कर्म का नियन्ता सर्वशक्तिमान ईश्वर है।
संसार में कर्मशील व्यक्ति ही सुखों का भोग कर सकता है। अकर्मण्य व्यक्ति को सुख प्राप्त नहीं होते। तुलसीदास जी ने कहा है - 'सकल' पदारथ हैं जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं।।"
कर्म या पुरुषार्थ के सामने असम्भव जैसी कोई वस्तु रहती ही नहीं। हिमालय की ऊँचाई पर, समुद्र की गहराई में, अन्तरिक्ष लोक में, प्रकृति के दुर्गम स्थलों में पहुँचकर वहाँ के दृश्यों का अवलोकन आज पुरुषार्थ के बल पर ही सम्भव हो सका है। महापुरुषों के जीवन चरित्र इस बात के साक्षी हैं कि कर्म का मार्ग ही सफलता का मार्ग है। हमारे कर्म ही पुरुषार्थ की कलम से हमारा भाग्य लिखते हैं। कर्मों के अनुसार ही हमारा भाग्य बनता है। बबूल का पेड़ बोकर आम खाने को नहीं मिलेंगे। हमें सोच विचार कर कर्म करना चाहिए। बिना विचार किए कर्म करने पर बाद में पछताना पड़ता है। अतः जो व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहकर पुरुषार्थ नहीं करते, फिर भाग्य को कोसते हैं, वे मूर्ख हैं। 'न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः' अर्थात् सोते हुए सिंह के मुख में मृग (हिरण) स्वयं प्रवेश कभी नहीं करता। पराक्रमी और पुरुषार्थी सिंह को क्षुधा निवारण के लिए मृग को मारना ही पड़ता है।
पुरुषार्थ का आश्रय Make Your Own Luck
पुरुषार्थ करने से अति निम्न स्तर में जी रहा व्यक्ति भी बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है। “करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान" का भाव यही है। कर्म में निरन्तर लगा रहने वाला व्यक्ति सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाता है। इसके विपरीत जो भाग्यवादी, आलसी, कायर और भीरु (डरपोक) बनकर दूसरों पर निर्भर रहता है उसमें स्वावलम्बन, आत्मविश्वास, सहिष्णुता, धैर्य आदि गुणों का अभाव हो जाता है। वह पतन, अवनति और अपयश का भागी बनता है।
भाग्यवाद को छोड़कर पुरुषार्थ का आश्रय लेने से मनुष्य उन्नति को प्राप्त होता है। उसकी उन्नति के साथ-साथ समाज की उन्नति भी होती है। इसी क्रम में राष्ट्र प्रगतिशील बनते हैं। समाज में पुरुषार्थ के पनपने से साहस, शौर्य, उदारता, सहिष्णुता जैसी उच्च कोटि की भावनाओं का प्रसार होता है जिससे मानव मात्र का कल्याण होता है। पुरुषार्थहीन जीवन लक्ष्यहीन है। पुरुषार्थ में ही कल्याण निहित है। जीवन की सुन्दरता इसे जीने में है, न कि ढोने में।
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